14 मार्च 2024

उत्तराखण्ड का बाल पर्व : त्योहार एक नाम अनेक


कहीं फ्योंली, प्यूँली, फ्यूँली, फूलदेई, बालपर्व, फूल संगराद, फूल सग्यान ,फूल संग्रात, मीन संक्रांति तो कहीं गोगा के नाम से मशहूर है यह पर्व 

राजा-रजवाड़ों के समय की बात है। तब पहाड़ में गाँव,शहर या कस्बे नहीं हुआ करते थे। जनमानस ठेट हिमालय की तलहटी में, नदी किनारे और घने जंगलों की गोद में रहता था। पेड़, पहाड़, नदी, झरने, फूल और जंगली कंद-मूल ही उनके संगी-साथी थे। 
फ्यूंली एक लड़की थी। जीवन के बारह-तेरह वसंत भी नहीं देखे थे। उसे जंगली फल-फूल बहुत प्यारे थे। वह दिन भर पेड़-पौधों के साथ खेलती-कूदती। उसकी दोस्ती बुराँश,सरसों के फूल, लयया, आड़ू, पैंया, सेमल, गुरयाल, चुल्लू, खुबानी, पूलम के फूलों से खूब थी। उसे पीले फूल बहुत पसंद थे। हाड़ कंपाने वाला जाड़ा जब बीतता तो वह वसंत को धाद लगाती। वसंत आता। पेड़-पौधों के फूल सतरंगी हो जाते। वह झड़ चुके फूलों को यहाँ-वहाँ बिखेरती। सेंटुली, घुघती और घेंडूली, तितलियां, मधुमक्खियाँ और रिंगाल-अंगल्यार तक उसकी मदद करते।
एक दिन की बात है। किसी दूर देश का राजकुमार अपने शिकारी दल से बिछड़ गया। घने जंगल में फ्यूंली की खिलखिलाती हँसी का पीछा करता हुआ वह उसके पास जा पहुँचा। राजकुमार अपनी थकान भूल गया। वह खेलते रहे। शाम होने को आई तो राजकुमार को अपना देश याद आया। फ्यूंली ने कहा कि वह उसे छोड़ आती है। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल आए। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे। राजकुमार ने फ्यूंली से विवाह कर लिया। फ्यूंली राजकुमार के संग चली गई। 
फ्यूंली क्या गई। जंगल उदास हो गया। पेड़-पौधों में आई रौनक गायब हो गई। पशु-पक्षी तक अपनी लय खो चुके थे। वहीं फ्यूंली को राजमहल के तौर-तरीके पसंद नहीं आए। कुछ ही दिन बीते थे। उसे अपने पहाड़, नीले आसमान, हरे-भरे जंगल, कल-कल करती नदी की लहरें और पक्षियों की चहचहाटों की खुद लगने लगी। फ्यूंली मैत जाना चाहती है। यह इच्छा किसी को रास नहीं आई। ऐसे अवसर भी आए जब फ्यूंली ने राजमहल लांघा। राजा, रानी और राजकुमार तक को यह बात पसंद नहीं आई। फ्यूंली के चारों ओर कड़ा पहरा लगा दिया गया। मैत की याद में एक दिन फ्यूंली ने दम तोड़ दिया। अल्पायु देह को चिता नहीं दी जाती! फ्यूंली को दफ़ना दिया गया। कुछ दिन बाद उस जगह पर पाँच पंखुड़ी वाला नया पीला फूल उग आया। देखते ही देखते आस-पास पीले फूूलों की पौध उग आई। 
खु़शबूरहित इस नए फूल का नाम फ्यूंली के नाम पर फ्यूंली ही रखा गया। फ्यूंली का फूल की ख़बर जैसे हवा, जल, प्रकाश, मिट्टी और पक्षियों को हो गई। दूसरे वसंत पर यह फ्यूंली का फूल जंगल-जगल जा फैला। जहाँ खाद, पानी और रोशनी नहीं पहुँचती थी, वह वहाँ भी उग आया। 

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एक किस्सा और याद आ रहा है। उसका भी उल्लेख कर लेते हैं- 

स्वर्ग में कोई उत्सव था। विष्णु खास अतिथि थे। उन्हें किसी एक फूल का पौधारोपण करना था। फूलों की कई प्रजातियों के पौधों में किसी एक का चुनाव किया जाना चाहिए था। पीले रंग की प्योंली गर्व से इतरा रही थी। उसने एक-एक कर सभी फूलों की पौध से कह दिया था कि विष्णु उसको ही स्वर्ग का खास पुष्प बनाएँगे। उसे अपने पीले रंग पर, सदाबहार होने पर और सुगन्धित खु़शबू पर घमण्ड हो गया था।
विष्णु आए। उन्होंने एक नज़र सभी पौध पर डाली। प्योंली के अलावा सभी फूल उन्हें कुछ उदास लगे। वहीं प्योंली ख़ूब महक रही थी। विष्णु मन की बात जान लेते थे। पल भर में ही वह सारा मामला समझ गए। बस! फिर क्या था! विष्णु ने कदंब की पौध को उठा लिया। वहीं प्योंली को धरती के लिए उपयुक्त माना। उन्होंने प्योंली की खु़शबू भी छीन ली। इसके साथ-साथ तभी से वह मात्र वसंत के आगमन पर ही खिलती है। कुछ ही दिनों के बाद प्योंली की पौध भी दूब-घास के सामने नेपथ्य में चली जाती है।   

आज मार्च की चौदह तारीख है। चैत्र माह की पंचमी का दिन। आज चैत्र माह का पहला दिन है। इसे चैत्र संक्राति भी कहा जाता है। आज ही से सुबह-सुबह नन्हे-मुन्ने बच्चों की खिलखिलाहटें सुबह होने से पहले घर की दहलीज़ पर सुनाई देती हैं। किवाड़ खुलते ही जंगली फूलों की महक के साथ आँगन भरने लगता है। यह वसंत की आहट है। बच्चों की हँसी, खिगताट और मस्ती के साथ घर-गाँव आज से महकने लगते हैं।

धीरे-धीरे फ्यूंली का कथा और फ्यूंली का फूल समूचे उत्तराखण्ड में कुछ इस तरह फैल गया कि लोक मानस ने इसे वंसत के आगमन से जोड़ दिया। चूँकि फ्यूंली खुद एक छोटी बालिका थी तो इस लोक पर्व की ज़िम्मेदारी नन्हीं बालिकाओं ने ले ली। हालांकि बालक भी फूलदेई त्योहार मनाते हैं। आस-पास के नन्हें बच्चे आज ही के दिन से सुबह-सवेरे उठते हैं। सूरज के उगने से पहले आस-पास के जंगली फूलों को चुनते हैं। बाँस की कण्डी में तरह-तरह के ताज़ा फूल घरों की देहरी-दहलीज पर रखते हैं। कभी ऐसा भी था कि सुबह-सवेरे पौधों-पेड़ों से झर चुके फूल ही चुने जाते थे। फिर पता नहीं परम्परा में यह कैसे जुड़ गया कि झर चुके फूल तो बासी होते हैं। 

अब बच्चे सुबह-सुबह जंगली पौधों से ताज़े फूल चुनते हैं और उन्हें घरों की देहरी में डालते हैं। कहीं पाँच तो कहीं आठ दिन तो कई तेरह दिन और कहीं पूरे महीने यह त्योहार मनाया जाता है। घर-गाँव की देहरी में फूलों को रखने के पीछे यह मंशा रहती है कि यह घर खुशियों से भरपूर रहे। इस घर की कन्या फले-फूले। मैत-सैसर की खुशहाली का कामना भी इस त्योहार से जुड़ी है। वसंत माह के आखिरी दिन हर घर के लोग इन बच्चों को भेंट देते हैं। कहीं उड़द की दाल के पकौड़े बनते हैं। कहीं तस्मै बनती हैं। कहीं गुड़-मिश्री और दाल की भेंट दी जाती है। कहीं इच्छानुसार इन फूल्यारों को परिवार से रुपयों की भेंट भी दी जाती है। ऐसे घरों को भी नहीं भूला जाता जिन घरों में किसी वजह से ताले जड़े हैं। कहीं-कहीं तो घरों के मुख्यद्वार की चौखट पर दूध देने वाली गाय के गोबर के साथ दूब चौखट पर चिपकाया जाता है। यह कामना की जाती है कि इस घर के लोग कहीं भी हों वह सम्पन्न हो। उनके घर में माँ का दुलार और दूध-दही की कमी न हो। 

समय के साथ इस लोक पर्व में हरियाली, खुशहाली, गीत-संगीत, परम्पराएं और किस्से जुड़ते चले गए। यह भी मान लें कि फ्यूंली को मात्र मिथक पात्र मान लिया जाए तो भी सामाजिक समरसता के स्तर पर यह एक सामुदायिक, सांस्कृतिक और लोक निबाह का जानदार पर्व है। आस-पास और पड़ोस-खोला के बच्चे सब तरह के झंझावतों से मुक्त होकर टोलियों में फूल चुनते हैं। हर घर की देहरी पर फूल डालते हैं। मिलकर गीत गाते हैं। जिस घर से प्यार में जो भी भेंट मिलती है उसे स्वीकार करते हैं। यह क्या कम है? 

इस बालपर्व यानी फूलदेई के कई गीत हैं। उनके निहितार्थ भी बेमिसाल है। सबकी कुशलता चाहने की मंशा का फ़लक कितना विशाल है। आप स्वयं पढ़िएगा- 

फूलेदई, छम्मा देई, 
दैंणी द्वार, भरी भकार, 
ये देली स बारम्बार नमस्कार, 
पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.... 

सार बहुत ही सहज है कि है फूलदेई इस घर की देहरी फूलों से भरी रहे। सबको क्षमा हो। सबकी रक्षा हो। यह घर सुख-सफल रहे। इसके भण्डार भरे रहें। इस घर की देहरी को बार-बार नमस्कार है। यह घर फले-फूले। 
एक अन्य गीत इस तरह मिलता-जुलता भी गाया जाता है-

फूलदेई छमादेई, 
दैणी द्वार, भर भकार! 
फूलदेई फूल संगरांद, 
सुफल करो नऊ बरस 
तुमकू भगवान, 
तुमारा भकार भर्यान 
अन्न-धन फूल्यान ! 
औंदी रया रितु मास
फूलदा रया फूल! 
बच्यां रौला हम तुम. 
फेर आली फूल संगरांद !
गीत का एक अंश यह भी है-
फूलदेई छम्मा देई ।
फूल देई छम्मा देई ।
दैणी ,द्वार भर भकार।
यो देलि कु नमस्कार ।
जतुके दियाला ,उतुके सई ।।

फूलदेई का पारंपरिक एक गीत यह भी है-

ओ फुलारी घौर।
जै माता का भौंर ।।
क्यौलि दिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।।
चला फुलारी फूलों को,
चला छौरो फुल्लू को। 

एक और गीत है जिसे पांडवास समूह ने वीडियो के तौर पर शानदार ढंग से पुनर्लेखन किया है। वह कुछ इस तरह से है-


चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी
मैं घौर छोड़यावा ।
हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बालो बसंत
मैं घौर छोड़यावा।।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड़्याँ।
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ।
ना उनु धरम्यालु आगास
ना उनि मयालू यखै धरती
अजाण औंखा छिन पैंडा
मनखी अणमील चौतरफी
छि ! भै ये निरभै परदेस मां
तुम रौणा त रा
मैं घौर छोड़यावा।।
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
फुल फुलदेई दाल चौंल दे
घोघा देवा फ्योंल्या फूल
घोघा फूलदेई की डोली सजली।।
गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल
अयूं होलू फुलार हमारा सैंत्यां आर चोलों मा ।
होला चौती पसरू मांगना औजी खोला खोलो मा ।।
ढक्यां मोर द्वार देखिकी फुलारी खौल्यां होला।

हालांकि मौसम बहुत बदल गया है। पाँच पत्तियों की फ्यूंली इस बार फरवरी के पहले सप्ताह में ही खिल गई थी। बुरांश भी एक फरवरी से पहले ही खिल गया था। फिर भी आज के दिन बच्चों का उत्साह देखने को मिलता है। बीती शाम से ही बच्चे रिंगाल की टोकरी, अब तो बाज़ार में प्लास्टिक की टोकरियाँ मिलने लगी है। कुछ बच्चे तो घर के झोले-थैले लेकर आज की सुबह का इन्तज़ार करते हैं।  लेकर फ्यूंली, गुर्याल, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। सुबह उठना नहाने के लिए पानी गरम करना, संगी-साथियों को पुकार लगाना। सब कुछ खुशगवार लगता है। कुमाऊँ मे ंतो कई जगहों पर ऐपण बनाने की परम्परा भी है। 

बच्चों के मुख से फूलदेई गीतों के विविध प्रकार और धुन अच्छी लगती है। ‘घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.... गीत गाते हुए बच्चों की टोली लगातार कम होती जा रही है। कहीं-कहीं तो अकेले-दुकेले बच्चे भी इस परम्परा को बचाए हुए है। अब बच्चों को बदले में दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा की जगह चॉकलेट, टॉफी ने ले ली है। कुछ परिवार बच्चों को कॉपी, पेंसिल, रूमाल, स्कूली सामान देने लगे हैं। इस बहाने बच्चों को बताया जाता है कि यह सृष्टि घोघा नाम की देवी ने बनाई है। कई जगह तो टोलियां सारे रुपए इकट्ठा कर लेती हैं और बाद में बाज़ार से मिठाई लाकर घर-घर बांटते हैं। कुछ जगहों पर बच्चों को मीठा भात खिलाने की परम्परा भी है। गुड़ के पानी में बना भात जिसमें सौंप-घी की महक पूरे वातावरण में अलग तरह की भूख बढ़ा देती है। 

कुछ लोगों का मानना है कि बच्चे घरों में जाकर फूल तोड़ते हैं। पारिस्थितिकीय संरचना को क्षति पहुँचाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि फूलदेई पूरी तरह से जंगली फूलों और खेतों,सड़कों, पगडण्डियों में खड़े पेड़-पौधों के झरे हुए फूलों पर आधारित है। वह कहते हैं कि बच्चे घरों के मुख्य द्वार की चौखट पर दो-चार फूल ही चढ़ाते हैं। वह गिनती के ही फूल चुनते हैं। जानकार बड़े बच्चों को हिदायत देते हुए नहीं भूलते। फ्योंली, पैयया, लयया, बुराँश,  जंगली खुबानी, आड़ू के फूल, बासिंग के पीले, लाल और सफेद फूल

चुनते हैं। बच्चों को सहेजना, सँभाल करना, मिलजुल कर रहना आने लगता है। वह अपनत्व के भाव से भरने लगते हैं। अपने घर के साथ इलाके के दूसरे घरों से लगाव सीखते हैं। सामूहिकता का भाव यही त्योहार तो भरता है। बच्चे शीत-गरम, सावन के साथ चैत्र मास को समझने लगते हैं। वसंत के महत्व को समझने लगते हैं। वह धरती का और धरती में आ रहे मौसमों का आभार प्रकट करना सीखने-समझने लगते हैं। मंगसीर, पूस और माघ की सर्द रातों के बाद फागुन-चैत्र के खुशगवार मौसम का स्वागत करना सीखते हैं। मौसमों के मर्म को समझते हैं। क्या यह बड़ी बात नहीं है? 


मुझे तो लगता है कि इस बहाने बच्चे फूलों की महत्ता को भी तो समझते हैं। आगे चलकर यही नई पीढ़ी घर-आँगन में कई प्रजातियों के फूलों की सँभाल भी तो करती हुई देखी जाती है। एक माह तक बच्चे जंगल के निकट जाते हैं। जंगली ही सही कई वनस्पतियों की पहचान और उन्हें सहेजने का भाव भी तो उनके भीतर स्थाई होता चला जाता है।  

चैत्र का महीना हमारे ढोल-दमाऊ बजाने वाले फ़नकारों का महीना भी है। हालांकि समय के साथ यह परम्परा अब लुप्त ही समझिए। पुरानी पीढ़ी के फ़नकार अभी भी परम्परागत कुछ परिवारों के खलिहान में जाकर ढोल-दमाऊ बजाते हैं। बदले में वह परिवार अपनी रसोई से प्रमुख अनाज भेंट स्वरूप देते हैं। फ़नकार इसे अपना हक समझते रहे हैं और देनदार इसे अपना दायित्व समझते रहे हैं। लेकिन अब नई पीढ़ी के बच्चे इस परम्परा को आगे बढ़ाना नहीं चाहते। समय के साथ-साथ यदि कोई परम्परा किसी भी तरह की हीनता का बोध पनपाती है तो उसे आगे बढ़ाए रखना उचित भी नहीं है। समय तेजी से बदल रहा है।  



बहरहाल, आज 14 मार्च को आरम्भ हुए इस बाल पर्व का खुलकर स्वागत करना हम सभी का दायित्व है। ऐसे कई त्योहार पूरे देश में मनाए जाते हैं। यदि आप इस लेख में कुछ शामिल करना चाहते हैं जो ज़रूर लिखिएगा। कमेंट के साथ मुझे chamoli123456789@gmail.com पर सुझाव भेज सकते हैं।

-मनोहर चमोली ‘मनु’ .
सम्पर्क: 7579111144

17 जन॰ 2024

तीस साल बाद: एक मुलाक़ात: संस्मरण

-मनोहर चमोली ‘मनु’



धर्मवीर ! कद लगभग छह फुट ! सांवला रंग। दुबला-पतला शरीर। धूप-मिट्टी और रंग बदलते मौसम के साथ घुली-मिली गठी हुई देह।



भाल और भौंहे आँखों को सामान्य से अधिक भीतर ले जा चुकी हैं। नाक उभरी हुई है। इतनी कि उसकी ही आँखें अपने होंठों को नहीं देख सकती हैं। धर्मवीर के सिर पर बालों का गुच्छा है। वे एक तरह से चेहरे की छतरी है। चेहरे पर पतली सी मूँछें हैं। मूँछों की सरहद होंठ के दोनों किनारों से आगे तक फैली हुई हैं। माथे से टपकता पसीना लुढ़ककर होंठों तक नहीं जाएगा। गालों से लुढ़ककर ठुड्डी से बहता हुआ ज़मींदोज़ हो जाएगा। अपनी ही देह के पसीने में नमक ज़्यादा होता है। मेहनत-मजूरी करते समय तो मीठा खाने का मन करता है। काश ! पसीने का स्वाद मीठा होता।

मैं धर्मवीर को पहचान नहीं पाया। कैसे पहचानता? तीस-इकतीस साल बाद मुलाकात हुई है। नाम तक भूल गया था। समय हमारी स्मृति की चादर में धूल की परतें पोत देता है। यदि समय-समय पर यादों के उजाले में नहीं गए तो वही परतें खुरचने पर भी नहीं हटतीं। माँजी ने बताया,‘‘बेटा। धर्मवीर मिलने आया है। खेत में भाई के साथ खड़ा है।’’ मैं मिलने गया। वह खेत में खड़ा हुआ था। दोनों हाथ जोड़कर आँखें झुका ली। मैंने हाथ बढ़ाया। लेकिन उसका हाथ नहीं बढ़ा। उसकी कोहनियों ने हथेलियों को ऊपर उठाया। वह नमस्ते की मुद्रा में एक-दूसरे के साथ चिपक गईं।

मैंने धीरे से पूछा,‘‘कैसे हो?’’ धर्मवीर ने मेरी आँखों में झांकते हुए जवाब दिया,‘‘बहुत अच्छा।’’ मैं चुप था तो वह बोल पड़ा,‘‘मैं तो कई दिन आपके यहाँ आ गया हूँ। आपके घर का खाना खा लिया है। यहाँ कई बार चाय पी ली है। धनिया, मूली, हरी सब्जियाँ ले गया हूँ। बस ! आपसे मिलना चाहता था। भाई साहब ने बताया कि आप आने वाले हो। तो मिलने आ गया।’’ वह चाय पी चुका था। बड़े भाई से बात कर रहा था।

दरअसल। बीती बरसता में खेत के किनारे का पुश्ता गिर गया था। वह लगाया गया तो बहुत-सी मिट्टी बगल के स्वामी के खेत में बिखरी हुई थी। दोनों भाईयों के साथ धर्मवीर ने उसे उठाने का काम किया। खेतों में कई बड़े पेड़ों की डालें छांटने के सिलसिले में उसका हमारे घर आना हुआ था। काम तो खत्म हो गया था लेकिन धर्मवीर की तरफ से कुछ छूटा हुआ था। वह उसे सहेजने आया था।

‘‘तीन दिन तो पेड़ों की कटाई-छंटाई में लग गए। मैंने भाई जी से कह दिया था। मेरे साथ खड़ा रहना। रस्सी है। पाठल है। डाल है। भारी पेड़ थे। कई बातें होती हैं। दोनों भाई साहब भी पूरा-पूरा दिन साथ में लगे रहे। माताजी से भी मुलाकात हो गई थी। बस ! आपसे मुलाकात नहीं हुई थी।’’ उसने अपने आने का कारण बताया।
‘‘आगे भी पढ़ाई की थी?’’
‘‘नहीं गुरुजी। बस ! आपने पांचवी तक पढ़ाया। उसके बाद मैं ही नहीं पढ़ पाया। आपको खूब याद करता हूँ। अबकी जमाने में न वो पढ़ाई है, न वैसे गुरुजी रहे। जाखतों में भी वो बात नहीं रही दिक्खे।’’
‘‘बाल बच्चे कितने हैं?’’
‘‘बस गुरुजी। ऐसा ही कुछ हो गया। गरीबी बहुत थी न। शादी नहीं की। बस, किसी तरह गुजारा हो रहा था। आज भी वैसे ही चल रहा है। हबड़-तबड़ नहीं है। चैन से दिन बीत रहे हैं।’’ यह कहते हुए वह शरमा-सा गया। कुछ झेंप से माथे पर बल पड़ गए।
मैंने बात बदलनी चाही। पूछ लिया,‘‘गाँव का वह सौर ऊर्जा का प्लाण्ट अभी भी है?’’
‘‘अजी नहीं। सब खुर्द-बुर्द हो गया। मेरे साथ के कई तो कब के चले गए। उन्हें शराब और एब खा गए। दुख होता है। आपने तो म्हारे गाँव में आकर साक्षरता चलाई। वे बड़े-बूढ़े तो मर-खप गए जिन्हें आप अक्ल देना चाहते थे। लेकिन मेरे जैसे कई हैं जो आपको याद करते हैं। बार-बार याद करते हैं। आप हम बच्चों को एक दिन चिड़ियाघर ले गए थे।’’

मैं तीन दशक पहले के समय में पहुँच गया। गाँव के बुनियादी स्कूल में पढ़ाने के बाद तीन से चार बजे साक्षरता केन्द्र चलाता था। महिलाएँ तो खू़ब आती थीं। पुरुषों को जोड़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी थी। वह कहता जा रहा था। आगे बोला,‘‘यहाँ आता हूँ तो अपनापन-सा लगता है। आपके परिवार के लोग बहुत अच्छे हैं। वैसे, समाज से ऐसा माहौल तो गया वैसे। आपके दोनों बड़े भाई, भाभियाँ भी बहुत अच्छी हैं।’’

‘‘और मैं?’’ उसने फिर से हाथ जोड़ लिए। वह मुस्कराया तो उसकी मूँछे गालों की तरफ फैल गई। करीने से बनाई गई मूँछों के बाल किसी भरी-पूरी फसल की तरह लहरा रहे थे। वह गरदन को नहीं-नहीं में हिलाते हुए बोला,‘‘जी बुरे की तो बात ही नहीं है। हमारे भली के लिए आप पिटाई भी करते थे। आपकी हर बात सच्ची थी। हमी बचपने में थे। क्या करते! गरीबी भी बहुत थी। सुबह का खाना खाते थे। खाते-खाते सोचते थे कि क्या रात को भी खाना मिलेगा? अब तो स्कूल में भात भी मिल रहा है। तब भी सौरे बच्चे पढ़ते ना हैं।’’

साँझ ढल चुकी थी। मेरे ठीक दायीं ओर सूरज ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा और लाल दिखाई दे रहा था। वह साल के जंगल के पीछे छिपने जा रहा था।

मैंने पूछा तो वह बोला,‘‘न जी न। गुटखा, बीड़ी, तम्बाकू या शराब को हाथ नहीं लगाता हूँ। जिन्होंने इनकी गैल की वो दूसरी दुनिया में चले गए। मैंने सरोपा के बारे में पूछा ! वह जीवित है। यह जानकर अच्छा लगा। बारह महीने कुरता पहनने वाला सरोपा। आँखें धंसी हुई। चेहरे में पक चुके बालों की बेतरतीब दाढ़ी वाला सरोपा। कमर के नीचे मात्र जांघिया पहनता है। उसे किसी ने जूतों में कभी नहीं देखा। उसके हुलिए से छोटे बच्चे डर जाते थे।

धर्मवीर बहुत धीरे से किस्से सुना रहा था। उसने बताया,‘‘ इक्यावन बीघा वाले बधी की याद है? वो जिसका बाप हुक्का पहनता था। उसने बाप के मरने के बाद सारी जमीन शराब में बेच खाई! हमने उनके खेत्तों में मजदूरी की है। आज उसकी नवी पीढ़ी फटेहाल है। हम तो इज़्ज़त की खा रहे हैं। आजेश जो फफियाता था। वो भी नहीं रहा।’’ धर्मवीर बीते तीस-बत्तीस सालों का एक-एक पन्ना पलटना चाहता था। मैंने पूछा,‘‘यहाँ के काम की मजूरी मिल गई?’’

‘‘हाँ। वो तो भाई साहब ने आज सुबह ही दुकान पे दे दी थी। मैं तो आपसे मिलने आया था।’’
‘‘कितनी दी?’’
‘‘बस जी दे दी। पूरा हिसाब हो गया। ऐसी कोई बात ना है।’’
धर्मवीर ने बताया नहीं। शायद सात-एक दिनों का हिसाब था। उसने लेन-देन की निजता का मान रखा। मुझे क्यों नहीं बताया? मैं नहीं समझ पाया। मैंने भी कहा,‘‘यहाँ अलग कुछ नहीं है। एक ही बात है।’’ उसने माँजी की तरफ देखते हुए कहा,‘‘हाँ जी। जानू हूँ।’’ वह दाँए पैर के जूते से मिट्टी कुरेदने में व्यस्त हो गया। मेरे और अपने समय के किसी दिन को याद करने लगा।
फिर कहने लगा,‘‘मुन्ना मास्टर जी के जाने के बाद आप आए थे। लेकिन किरन बैनजी मुझे क़तई अच्छी नहीं लगती थी। बहुत ही ऊँट-पटांग बोलती थी। आपसे डरते थे सारे बच्चे। लेकिन आपकी बातें ध्यान से सुनते थे। मन लगा रहता था।’’
मैंने उसके हाथ पर सौ रुपए के दो नोट रखने चाहे। उसने मुट्ठी भींच ली। मैं मुट्ठी खोलकर वह दो नोट रखना चाहता था। लेकिन पत्थर-सी हो गई मुट्ठी खोल न सका। मैंने उसके जैकेट की जेब में वह रुपए रख दिए। उसने भी दोनों हाथ अब जैकेट की जेब में रख दिए।
मैंने कहा,‘‘कुछ मीठा खरीदना या अपने लिए सब्जी-दाल। अब पीते-खाते तो उसका इन्तजाम करता।’’
‘‘कैसी ठिठोली कर रहे हो! इस घर से शराब नहीं मिल सकती।’’

मैं उसे छोड़ने रास्ते तक गया। मेरे हाथ में उसके हाथ का स्पर्श मुझे अलग-सी अनुभूति दे गया। यह कुछ वैसी नहीं थी, जैसी किसी दूध पीते बच्चे की देह से आती है! लेकिन कुछ ऐसी थी जिससे छिटकना नहीं चाहता हूँ।
हाँ! लिखते समय कुछ विलक्षण-सा महसूस कर रहा हूँ। वह शान से सीना चौड़ा किए हुए लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चला गया। जैसे, कोई जागीर मिल गई हो।
‘‘आते रहना। मेरे भाई-भाभियाँ तो इसी घर में ही हैं।’’

‘‘जी। अपना घर है। यहाँ आने के लिए पूछना थोड़े पड़ेगा। अच्छा गुरुजी नमस्ते।’’ धर्मवीर चला गया।
बहुत जोर डालने पर भी धर्मवीर का चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ते समय का हुलिया उभर नहीं रहा है। वहीं मैं धर्मवीर की ज़िन्दगी में अब तक शामिल हूँ। वह चाहता तो तीस-बत्तीस साल के अन्तराल को बनाए रख सकता था। उसने अपनी कहानी में मेरे किरदार को क्यों रखा? हम तो तनिक-सी बात पर रिश्तों को छिटक देते हैं! मैं यही सोच रहा हूँ। (वाकया, साझा करने का मकसद यही है कि कितनी बातें-मुलाकातें-यादें होती हैं जो याद आती हैं। तीस-बत्तीस साल पहले मैं संघर्षरत था। तब शिक्षण के तौर-तरीके भी पता नहीं थे। फिर भी बच्चे याद रखते हैं। संभव है हमारी बचकानी बातों पर हँसते भी होंगे।)
फोटो: बिटिया विदुषी ने ली है।

14 जुल॰ 2023

हिन्दी बाल साहित्य : छोटे बच्चों के लिए लेखन


-मनोहर चमोली ‘मनु’


हिन्दी में बाल साहित्य खूब लिखा जा रहा है। यह सच है। यह भी सच है कि छोटे बच्चों के लिए सार्थक लेखन बहुत कम हुआ है। बच्चों के लिए अर्थपूर्ण लेखन चुनौतीपूर्ण है। तेजी से बदलते परिवेश और ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए विविधता से भरा लेखन आज की मांग भी है। बाल साहित्य को सरसरी तौर पर बच्चों का, बच्चों के लिए और बच्चों के द्वारा मान लेना गलत है। प्रौढ़, महिला-पुरुष से इतर बच्चों के वय वर्ग में इतनी विविधता है कि रचनाकारों को सजगता से रचनाकर्म करने की आवश्यकता पड़ती है।


अभी-अभी स्कूल जाने वाले बच्चों की मनःस्थिति अलग होती है। जो बच्चे पढ़ना जान चुके हैं। पढ़ने का अभ्यास कर चुके हैं। लय और गति से अभ्यस्त हो चुके बच्चों के लिए अलग रचना सामग्री जरूरी है। जिन बच्चों को पढ़ने का चस्का लग चुका है उनके लिए लिखना अलग बात है। वहीं वह बच्चे जो अभी स्कूल ही नहीं गए हैं उनके लिए चित्रात्मक लेखन तो और भी चुनौतीपूर्ण है।

हिन्दी में लिखी अधिकांश रचनाएँ पाठकों को एक ही लाठी से हाँकती हुई दिखाई पड़ती हैं। वय वर्ग के हिसाब से लिखी गईं रचनाएँ प्रायः कम लिखी जाती हैं। वे बच्चे जो अभी घर में हैं। अक्षरों की दुनिया से वाकिफ़ नहीं हैं उनके लिए आनन्ददायी लिखना पहली शर्त है। आनंददायी तत्व तो प्रत्येक रचना के लिए अनिवार्य शर्त माना जाना चाहिए। बहरहाल, जो बच्चे अब स्कूल जाने लगे हैं। स्कूली किताबों में माथापच्ची कर रहे हैं। स्कूली ढर्रे पर ढल रहे हैं। तब उन्हें रुचिकर पढ़ने को न मिला तो वे साहित्य से दूर होते चले जाएँगे।

मान लेते हैं कि इन सभी बातों को ध्यान में रखा जा रहा है। तब रचनाओं की शब्द संख्या पर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है। बाल साहित्य में बाल पाठकों को ध्यान में रखकर शब्द संख्या का तालमेल बहुत गड्डमड्ड दिखाई पड़ता है। सोलह, बीस या चौबीस पृष्ठों की चित्रात्मक किताबों में हजार, बारह सौ कहीं-कहीं पन्द्रह सौ शब्द संख्या ठूंसी हुई मिलती रहती हैं। वय वर्ग पर ध्यान दे ंतो दस-बारह साल के बाल पाठकों को दो सौ पृष्ठों की किताब पढ़ने के लिए देना उचित नहीं है। सोलह, बीस या चौबीस पेज की चित्रात्मक किताब किसी भी पाठक को दी जा सकती है। यदि रोचकता होगी तो पाठक उसे पढ़ना चाहेगा। तब वय वर्ग की बात करना निरर्थक लगता है।



हिन्दी बाल साहित्य की अधिकतर पत्रिकाएं पढ़ने की ललक नहीं जगाती। बाल साहित्य के नाम पर छपी किताबों का भी यही हाल है। स्कूल पूर्व, अभी-अभी स्कूल जाने वाले, पढ़ना सीख चुके, अर्थपूर्ण पढ़ना सीख चुके और किताबों से दोस्ती कर चुके बच्चों के लिए विविधता भरी किताबें होनी चाहिए। इस बात से असहमति संभवत किसी को भी नहीं हो सकती। कोई किताब या पत्रिका सभी बच्चों के लिए है। यह मान लेना अच्छा नहीं है।



एक ही किताब छोटे, बड़े, किशोर बच्चे भी पढ़ सकते हैं। युवा और प्रौढ़ भी पढ़ सकते है। यह पढ़ते हुए अच्छा लगता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। तब तो बिल्कुल भी नहीं है जब पढ़ने के लिए परोसी गई सामग्री तीव्र सीखों, संदेशों, आदर्श की अतिरंजनाओं, उपदेशों से अटी पड़ी हों। अच्छी छपाई, आकर्षक भरे-पूरे चित्र, साफ-सुथरा फोंट पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। इन सब खास बातों का ध्यान रखने के बावजूद कहानियों का अंत या कहा जाए सोचा-समझा लक्ष्य पढ़ने का आनन्द खत्म कर देता है। बाल पाठक भी ठूंसे गए लेक्चर को समझ जाते हैं।
कुछ बाल कहानियों के अंत आज भी इस प्रकार से होते हैं-

‘हनी ने प्रधानाध्यापक जी के पांव छुए और भविष्य में उनकी सीख पर चलने का दृढ़ संकल्प लिया।’ ‘मोहन की बात का रोहित पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसका जीवन एकदम बदल गया। अब रोहित अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करता बल्कि वह नियमित पढ़ाई करता और एक दिन आया जब वह भी बोर्ड की परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास हुआ।’ ‘इसी तरह हम दुनियावी कर्मों को प्रभु को समर्पित कर प्रभु की दी हुई जिम्मेदारी समझकर करें तो हम तनावमुक्त और सुखपूर्वक जीवन जीते हैं।’ ‘बंटी बतख ने हल्के से टिंकू कबूतर की पीठ ठोंक दी-‘अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना...।’ यह सुनकर टिंकू कबूतर ने आभार में अपना सिर झुका लिया।’ ‘बुरे आदमी का उपकार करना भी उतना ही बुरा है जितना सज्जन की बुराई करना।’ ‘जिसके कुल-शील और स्वभाव का पता न हो, उसे कभी भी शरण नहीं देनी चाहिए।’ ‘हाँ, मम्मी! नीलू ने स्वीकारा और फिर जिद्द न करने की कसम खाई!’ ‘दूसरों पर भरोसा करना सदा धोखा देता है। अपनी सहायता स्वयं करनी चाहिए।’

यह कुछ कहानियों के अंत थे। पाठक अंत तक पढ़ते-पढ़ते समझ जाता है कि पूरी कहानी यही सिद्ध करने के लिए गढ़ी गई हैं। यह तरीका अभी भी चला आ रहा है। पाठक इन्हें फार्मूला टाइप कहानी कहते हैं।


अब कुछ कहानियों की बात कर लेते हैं जो कथ्य, भाषा और विषय के स्तर पर शानदार होती हैं। फिर भी वह अपना वह प्रभाव नहीं जमा पाती, जो जमा सकती थी। लचर चित्र कहानी के प्रभाव को धुंधला कर देते हैं। यदि कहानी के साथ उसी अनुपात में प्रभावी चित्र शामिल हो तो कहानी पाठक के मन में बैठ जाती है। चित्र कहानी का सहायक नहीं होता। वह कहानी को विस्तार देता है। कहानी जो कुछ नहीं कह पाती चित्र उससे आगे की कहानी का बयान होता है। कुछ ऐसी कहानियों का उल्लेख जरूरी है जो प्रभावी हैं लेकिन चित्र उन्हें ज़्यादा विस्तार नहीं दे पाए।





‘छोटा सा मोटा सा लोटा’ सुबीर शुक्ला की एक कहानी है। कहानी बहुत शानदार है। एक छोटा सा मोटा लोटा है। वह एक लंबे खंभे पर चढ़ता है। उसकी यात्रा में कुछ पात्र मिलते हैं। अंत में लोटा यानि मटका चूर-चूर हो जाता है। इस कहानी में आनंद है। कौतूहल है। रोमांच है। लेकिन यह सब चित्रों की सहायता से बढ़ सकता था। इस कहानी के चित्रों पर बेहतरीन काम हो सकता था। इसी तरह ‘मकड़ी और मक्खी’ सुशील शुक्ल कृत एक कहानी है। एक मक्खी अक्सर मकड़ी के जाले के आस-पास आ जाती है। एक दिन मकड़ी मक्खी को पकड़ लेती है। मक्खी कुछ ऐसी बात कह देती है कि मकड़ी की आँखों में हँसते-हँसते आँसू आ जाते हैं। मौके का फायदा उठाकर मक्खी भाग जाती है। इस चित्रात्मक पुस्तक में भी सार्थक और प्रभावी चित्रों की अपार संभावना थी।

‘प्यारे भैया’ राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार प्राप्त स्वीटी पर आधारित एक कहानी है। रजनीकांत की यह कहानी प्रेरणास्पद है। रोचकता के साथ आगे बढ़ती है। शब्द सीमा के स्तर पर बहुत लंबी है। फिर चित्रों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। आकार पर भी ध्यान नहीं दिया गया। एक अकेला चित्र बेहद नीरस और बेढब प्रतीत होता है। बाल भारती में पूर्वाेत्तर राज्यों की कहानियाँ ‘कहानियाँ सात बहनों से’ के अन्तर्गत प्रकाशित हुईं।





डॉ॰ सुनीता कृत कहानी ‘और सामने था पहाड़’ मेघालय के एक बरगद के पेड़ पर केन्द्रित है। बरगद के पेड़ का फैलाव बहुत था। धूप न आने की चर्चा उठी और उसे काटने का निर्णय हुआ। कहानी बेहतरीन भाव-बोध के साथ आगे बढ़ती है। लेकिन कहानी को जिस प्रभावी चित्र की दरकार थी वह उसे नहीं मिला। परिणाम कहानी का जो फैलाव हो सकता था वह सिमट गया।


चित्र कई बार पन्ने उलटने पर बाध्य कर देते हैं। ठीक उलट कुछ चित्र पन्ने पर ही टिके रहने के लिए विवश कर देते हैं। टिके रखना चित्र का काम नहीं होता। वह तो ठहरकर रचना को पढ़ने के लिए ऊर्जा देते हैं। पवित्रा अग्रवाल कृत कहानी ‘माँ’ भी भावपूर्ण कहानी है। लेकिन चित्र उतने ही बेनूर और अप्रभावी बने हैं। खाना-पूर्ति करते चित्र कहानी की आभा को भी प्रभावित करते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी अनाकर्षक चित्र से ढकी कहानी पाठक पढ़ ही नहीं पाते। पढ़ते हैं लेकिन वह स्मृति में उभरी रहे, संभवतः जवाब नहीं में होगा। दूसरे शब्दों में कहें कि वह कहानी पढ़ी तो जाती है पर मन-मस्तिष्क में ताज़ा और ज़िन्दा भी रहेगी, कहना मुश्किल होगा।


हिन्दी भाषी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक और प्रकाशकों में सभी की ऐसी दृष्टि है। यह नहीं कहा जा रहा। चुनिंदा ही सही लेकिन हैं, जो संजीदगी से श्रमसाध्य कार्य कर रहे है। रंगीन, प्रभावी और व्यावसायिक चित्रकारों से कहानियों पर चित्र बनाना आसान कार्य नहीं है। पर्याप्त समयपूर्व रचनाओं का न आना और चित्रकारों को भी भरपूर समय न मिल पाना बड़े कारण हैं। चित्रों का तय समय पर बनाने और पत्र-पत्रिका-पुस्तक का प्रकाशित होने का दबाव भी रहता है। चित्रों के लिए सम्मानजनक पारिश्रमिक देना अभी स्वस्थ कार्यसंस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाया है। हिन्दी भाषी परिवारों में जन्मदिवस पार्टी, रेस्तराओं में लंच-डिनर, मँहगे खिलौनों और ऑन लाइन शॉपिंग पर खूब खर्च करने का चलन है। यह बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन बच्चों के लिए आकर्षक, अर्थपूर्ण किताबें खरीदने का बजट नहीं बढ़ रहा है। यह आदत भी बढ़ती हुई नहीं दिखाई देती। परिवारों में कहीं छोटा सा पुस्तकालय तो दूर रैक भी नहीं दिखाई देता।



भाव-बोध-कथ्य से प्रभावी कहानियों और उनके चित्रों पर बात भी की जानी चाहिए। बहुत से प्रकाशन हैं जो बाल साहित्य को भव्यता के साथ प्रकाशित कर रहे हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट, एकलव्य, इकतारा, प्रथम, रूम टू रीड़, तूलिका की दर्जनों किताबें हैं जो इस लिहाज से पढ़ी जानी चाहिए। पढ़ने के लिए खरीदी जानी चाहिए। उपहार में देने के लिए प्रोत्साहित की जानी चाहिए। चुनिंदा उदाहरणों से इसे समझने का प्रयास करते हैं। अरशद खान कृत चूहा और थानेदार कहानी है। चूहा थानेदार के पास जाता है कि उसे साँप से डर है। बिल पर साँप कब्जा भी कर सकता है और उसे गड़प भी सकता है। थानेदार ने एक बिल्ली और नेवले को बिल के बाहर तैनात कर दिया। बित्ती भर की कहानी पर बने चित्र भी शानदार हैं।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत ने गिजुभाई का गुलदस्ता में दस पुस्तकों का सेट प्रकाशित किया है। यह सभी किताबें बेमिसाल हैं। गुलदस्ता तीन में एक ‘चिरौटा चार सौ बीस’ एक कहानी है। इस गुलदस्ते को प्रख्यात चित्रकार आबिद सुरती ने अपने बहुविविध फन से सजाया है। कुछ कहानियों में लोक तत्व शानदार है।

पढ़ना है समझना के तहत एन.सी.ई.आर.टी. ने बुनियादी स्कूलों के वय वर्ग पाठकों के लिए चालीस पुस्तकों का सेट तैयार किया है। इसे बरखा सीरीज केे नाम से खूब प्रसिद्धि मिली है। पुस्तकमाला निर्माण समिति के लेखकों ने तैयार किया है। ‘मीठे-मीठे गुलगुले‘ में मदन और जमाल ने भी गुलगुले बनाना सीखा। बच्चों की कल्पनाशीलता को किसे अंदाज़ा नहीं है! श्याम दस साल का छात्र है। उसे अपनी ख़ामियाँ पता हैं। लेकिन उसकी कल्पना के घोड़े खूब डग भरते हैं। ‘क्या होता अगर?’ हरि कुमार नायर की कहानी है। इसे प्रथम बुक्स ने प्रकाशित किया है। चित्र भी बेहतरीन ढंग से कहानी को विस्तार देते हैं। पाठक किसी भी वय वर्ग का हो, इस किताब के पढ़कर मुस्कराएगा भी और हैरान भी होगा। मेहा अपनी माँ के बारे में डायरी लिखती है। मेहा की माँ अपनी माँ के घर से लौटी है। छोटी-सी कहानी में बहुत-सी बातें छिपी हैं। चित्र उसे बहुत बड़ा फलक देता है।



इन किताबों की यात्रा खूब आनंद देती है। इनसे गुजरते हुए लगता है कि बच्चों की आवाज़ें बाल साहित्य में धीरे-धीरे ही सही, सही तौर पर दर्ज़ हो रही हैं। आइए! आबादी का एक चौथाई हिस्सा बच्चों का मान लेते हैं। एक चौथाई में हिन्दी में पढ़ने वाले बच्चों का अनुमान लगाते हैं। यह अनुमान पच्चीस करोड़ से अधिक का है। पच्चीस करोड़ बच्चों की विविधता पर गौर करें तो लाखों-लाख कहानियों की ज़रूरत है। देश, काल, परिस्थितियाँ और वातावरण जोड़ ले तो नित नई विविधता परोसने वाली कहानियाँ लिखना-कहना चुनौतीपूर्ण है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य में लगे साहित्यकारों-चित्रकारों-प्रकाशकों को सलाम कहना तो बनता ही है। इन सभी के साझे प्रयासों को पंख देने का काम ही पुस्तक संस्कृति को आगे बढ़ाना है।

॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’


सन्दर्भ:

1-सुबीर कृत कहानी ‘छोटा सा मोटा सा लोटा’ प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
2-सुशील कृत कहानी ‘मकड़ी और मक्खी’ प्रकाशक: रूम टू रीड, इंडिया
3- रजनीकांत कृत कहानी ‘प्यारे भैया’ प्रकाशक: मासिक पत्रिका देवपुत्र
4-पवित्रा अग्रवाल कृत कहानी माँ प्रकाशक: बाल वाणी दुमाही पत्रिका
5-डॉ॰सुनीता कृत और सामने था पहाड़, प्रकाशक: बाल भारती
6-अरशद खान कृत चूहा और थानेदार, प्रकाशक: प्लूटो
7- गिजुभाई बधेका कृत ‘चूहा सात पूंछों वाला’ प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
8-एन.सी.ई.आर.टी. कृत मीठे-मीठे गुलगुले’ प्रकाशक: एन.सी.ई.आर.टी.नई दिल्ली
9-हरि कुमार नायर कृत क्या होता अगर? प्रकाशक: प्रथम बुक्स
10-मेहा कृत आज की डायरी प्रकाशक: प्लूटो, इकतारा प्रकाशन।

नोट: यह लेख पुस्तक संस्कृति, के अंक जुलाई-अगस्त 2023 में प्रकाशित हुआ है।

17 सित॰ 2022

विद्यार्थियों ने कहानी डायरी लेखन में दिखाई दिलचस्पी


कक्षा छह,सात,आठ,दस और ग्यारह के विद्यार्थियों में वय वर्ग की विविधता रचनात्मक कार्यो में कैसे उपयोगी हो? कैसे वे एक-साथ एक-दूसरे को सहयोग करें? कैसे भागीदारी में दायरा बढ़ाएं और अपने चिन्तन को बढ़ाएं? एक साथ मिलकर कुछ सुनें। बोलें, देखें और फिर मिलकर लिखें। यही सोचकर एक कार्यशाला मोहन चौहान जी के नेतृत्व में शुरू हुई। यह कार्यशाला 9 सितम्बर से 11 सितम्बर 2022 तक संचालित हुई। अंकुर एक रचनात्मक पहल के बैनर तले विद्यालयी सहयोग से यह संभव हुआ। राजकीय इंटर कॉलेज,खरसाड़ा,विकासखण्ड नरेन्द्र नगर, टिहरी में तीन दिवसीय रचनात्मक कार्यशाला में सहभागी बनने का अवसर मिला। गन्तव्य तक पहुँचने के लिए बासठ किलोमीटर का सफर तय करते हुए मन में खयाल आ रहा था कि आखिर कक्षा छह से आठ तक के विद्यार्थियों के साथ किन-किन मुद्दों पर बात की जाए? यह भी कि लेखन की किन विधाओं पर काम हो?

आज अवकाश का दिन था। सुबह सात बजे से से पूर्व पौड़ी से चला फिर भी नौ बज ही गए। कार्यशाला स्थल पर पहुँचा तो विद्यालय के अध्यापक मोहन चौहान और राजकीय प्राथमिक विद्यालय कठूर, विकासखण्ड चम्बा के अध्यापक दीपक रावत उनचास विद्यार्थियों के साथ कार्यशाला प्रारम्भ कर चुके थे। आठ समूह बनाए गए थे। कोशिश यही रहती रही है कि सभी समूह में सभी तरह के बच्चों को शामिल किया जाए। विद्यार्थियों ने अपने-अपने समूह के नाम भी बड़े दिलचस्प रखे। बकलोल, चूजे चार, गोलमाल, बकैती, चंपा-चमेली, स्वीटी स्पेशल, पागलपंथी और गोलमाल। 

विचार किया गया कि दुनिया को समझने-जानने और जानकारी जुटाने के साथ दुनिया को यह भी बताया जाए कि हमारी अपनी दुनिया क्या है ! हमारी भाषा क्या है? हमारे आस-पास क्या है? ग्रीन-बोर्ड पर विद्यार्थियों ने शानदार आंचलिक अनुभव साझा किए। जैसे-काखड़ी, कलच्वाणी, तुमड़ी, माछा, आरु, छिपाड़ु, मौल, दवै, मुंगरी, काखड़, छाला, मारसू, रिंगाल, ब्वई, पालु, कुलाड़ु, कपाल, दाथड़ू, भिमलु, चौकली, पत्यूड़, करौंदू, बासलु, गोदड़ी, बाखरू आदि। 

ग्रीन-बोर्ड पर से विद्यार्थियों ने अपने-अपने समूह के लिए एक-एक शब्द चुन लिया। अब समय था कि वे समूह में चर्चा कर एक-एक कहानी बनाएं। आधा घण्टा दिया गया था। लेकिन ठीक एक घण्टे बाद आठ कहानियां जो चार्ट पर आईं, उन्हें पढ़ा गया। 



तय तो यह हुआ था कि एक-एक कहानी पर शिल्प, भाव और कमजोर पक्ष पर बात हो। लेकिन इसे छोड़ दिया गया। यह सोचकर कि कहानियां पढ़ते-पढ़ते ओर लिखने के अभ्यास में यह कौशल भी विद्यार्थी अर्जित कर ही लेंगे।

इससे पूर्व चित्रात्मक किताब से दो कहानियाँ पढ़कर सुनाई गई। कहानी सुनाते समय यानि पढ़कर सुनाने के लहजे में चित्रों पर भी और कहानी आगे कहाँ जा सकती हैं, पर चर्चा करते रहे। विद्यार्थियों की तार्किकता और कल्पना शक्ति देखते ही बनती है। पिक्चर बुक में से पहले सत्र में मुकेश मालवीय कृत पाँच खंबों वाला गाँव और चंदन यादव कृत कुत्ते के अण्डे का चयन किया गया। विद्यार्थियों ने कहानी के हर पेज पर अनुमान और कल्पना का उपयोग करते हुए उसके आगे की घटना का अनुमान लगाया। यह अनुमान विविधता से भरा था। 

पहले दिन अधिकतर गतिविधियां सुनना कौशल को ध्यान में रखते हुए की गईं। हालांकि कुछ गतिविधियां देखना और सोचना पर भी आधारित थीं। जैसे कद, रंग, जाति, धर्म, इलाके को लेकर किसी को कमतर समझना गलत है। शहर अच्छे होते हैं और गाँव खराब। अपने आस-पास की चीजें तुच्छ होती हैं और महानगर की चीजें बहुत अच्छी। प्रथम,द्वितीय और तृतीय स्थान प्राप्त करना उपलब्धि है और कुछ भी स्थान पर न आना निराशा। अनुमान और कल्पना के साथ गणित की अवधारणाओं के साथ जोड़ने वाली गतिविधियों में विद्यार्थियों को आनन्द आया। 
विद्यालयी स्तर पर गठित पीटीए के अध्यक्ष लक्ष्मण सिंह रावत जी भी कार्यशाला में आए। उन्होंने बच्चों के जलपान की व्यवस्था भी की। 

एक अन्य गतिविधि भी ग्रीन-बोर्ड पर की गई। विद्यार्थियों से कहा गया कि वह अपने अनुभव और जानकारी के आधार पर उन बातों,मान्यताओं, अवधारणों और चीजों के लिए एक शब्द सुझाएं जो हमारे आस-पास चलन में हैं लेकिन वह वास्तव में हैं नहीं। यह भी कि कभी थीं पर अब नहीं हैं लेकिन चर्चा में हैं। जैसे राजा,रेडियो, लालटेन। 


विद्यार्थियों ने एक से बढ़कर एक त्वरित प्रतिक्रिया में अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने आछरियां, जुगनू, चिमनी, डायनासौर, भूत, देवता, जात, आत्मा, परियां, राजकुमार, राक्षस, जादू , चुड़ैल, स्वर्ग, बैलगाड़ी, सिलबट्टा, छाया जैसे शब्द सुझाए। ग्रीन-बोर्ड पर इकट्ठा हुए शब्दों से कोई पांच शब्द विद्यार्थियों ने स्वेच्छा से अपने लिए ले लिए हैं। वह आज घर जाकर किसी एक शब्द पर मौलिक और व्यक्तिगत कहानी लिखकर लाने पर सहमत होंगे। 

मोहन चौहान जी काफी समय से विद्यालयी छात्रों के साथ रचनात्मक लेखन कार्यशाला पर बात कर रहे थे। हर बार किसी न किसी वजह से यह टल रही थी। आखिरकार 9 सितब्र से 11 सितम्बर 2022 तक यह कार्यशाला तय हो पाई है। इस बार कार्यशाला की थीम है-‘सुनना ... देखना ... सोचना ... और लिखना साथ-साथ’ तय हुई है। अधिकांश बालक और बालिकाएं घर से अपने लिए भोजन लाए थे। उन्होंने साथियों के साथ भोजन भी साझा किया। एक कक्षा-कक्ष में यह आयोजन है। उसकी व्यवस्था विद्यालय के विद्यार्थी स्वयं कर रहे हैं। विद्यार्थी खरसाड़ा, कोठी, सकन्याणी,सौड़,लसेर,कांडी,उखेल,झांकड़ और भट्टगांव के हैं। तेज धूप और बहुत दूर के विद्यार्थियों को कार्यशाला में शामिल नहीं किया गया है। दोपहर दो बजे तक ठहराव और पैदल दो किलोमीटर से अधिक आने-जाने की परेशानी को भी ध्यान में रखना पड़ा है। कुल मिलाकर विद्यार्थियों की हाजिर-जवाबी और सहभागिता काबिल-ए-गौर है। अभी तो दो दिन शेष हैं।
‘सुनना ... देखना ... सोचना ... और लिखना साथ-साथ’ विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला के दूसरे दिन आज रा॰इं॰कॉ॰खरसाड़ा,नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल में ‘डायरी लेखन’ मुख्य रहा। पढ़ते-लिखते शिक्षक जानते हैं कि डायरी लेखन हमारी भीतर संवेदना के भाव को मरने नहीं देता। हर्ष-विषाद, सुख-दुख, तनाव-बेचौनी, उलझन-उल्लास के क्षण में डायरी लेखन सखा-सहेली का काम तो करती ही है साथ में हम क्या थे, हम क्या हैं और हम क्या होंगे अभी के भाव पर लगातार नजर रखने का काम भी करती है। दिलचस्प बात यह है कि बुनियादी स्कूल सहित माध्यमिक कक्षाओं के सीखने के प्रतिफल जिन्हें हम लर्निंग आउटकम्स के तौर पर जानते हैं और बुनियादी मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता की दक्षता के लिए भी ‘डायरी लेखन’ खास औजार हो सकता है। 

आज सुबह के सत्र में सबसे पहले बीते दिन का सार-संक्षेप तनिशा ने विस्तार से रखा। मयंक, स्नेहा, कनिका, पायल और शुभम ने छूटी हुई गतिविधियां जोड़ी। पहले दिन की संख्या छियालीस से बढ़कर विद्यार्थियों की आज संख्या छियासी हो गई। कुल मिलाकर 43 बालिकाएं और 43 बालक शामिल हुए। इस प्रकार अब कक्षा ग्यारह से पांच, कक्षा दस से दस, कक्षा आठ से बाईस, कक्षा सात में पैंतीस और कक्षा छह चौदह विद्यार्थियों ने शिरकत की। आकार में एक औसत कक्षा-कक्ष में छियासी विद्यार्थियों को लगभग पांच से छह घंटे बिठाए रखना स्वयं में चुनौतीपूर्ण रहा। यही कारण रहा कि आज विद्यालयी समय के उपरांत कार्यशाला का दूसरा दिन भी समाप्त कर दिया गया। चूंकि सुनना कौशल को हम हमेशा प्राथकिमता देते हैं। आज सुनना के साथ सोचना पर भी फोकस किया गया। बीते दिन लिखने के लिए दी गई कहानियां जमा की गईं। सरसरी तौर पर विद्यार्थियों ने अपने घर-गाँव, समाज, परिवार और सहपाठियों से संबंधित पात्रों को ध्यान में रखकर कहानियां लिखीं। 


तेरह गाँव घोरसाड़, खरसाड़ा, लसेर, जिमाण गाँव, सौड़, उखेल, झांकड़, मयाण गाँव, कांडी, कोलसारि, सकन्याणी, कोठि, भट्टगाँव के विद्यार्थियों को ग्रीन-बोर्ड पर दो अलग-अलग डायरी अंश के नमूने लिखकर पढ़े। सिर्फ लिखकर पढ़ना काफी नहीं था। उन दोनों डायरी अंश के काल्पनिक लेखकों की मनोदशा पर भी विस्तार से चर्चा हुई। क्या आप इन डायरी अंश को पढ़कर अनुमान और कल्पना का इस्तेमाल कर कुछ कह सकेंगे। हम हतप्रभ रहे कि विद्यार्थियों ने दोनों डायरी अंशों को पढ़कर-समझकर सटीक और तार्किक कयास लगाए। 

बहरहाल, उसके बाद उन्हें भी कल्पना और स्मृति पर आधारित डायरी लिखने का अवसर दिया गया। डायरी में क्या-क्या जरूरी तत्व होते हैं? क्या-क्या नहीं लिखा जाना चाहिए? इस पर भी विस्तार से चर्चा की गई। हमें प्रसन्नता है कि अल्प समय में ही कई विद्यार्थियों ने एक नहीं दो-दो डायरी अंश के नमूने प्रस्तुत किए। मौटे तौर पर उनकी डायरी अंश भाई-बहिनों,रिश्तेदारों में प्रमुख बुआ, नानी,चाचा-चाची, दादा-दादी, सहेली, खेल, चोट, सांप,कुत्ते, बिल्ली, स्कूल, सहपाठी और अध्यापकों के आस-पास केन्द्रित रही। 

अच्छी बात यह रही कि उन्होंने यह आसानी से और त्वरित जान लिया कि दिनचर्या और डायरी लेखन में फर्क होता है। चूंकि आज अगल-बगल कक्षाएं भी संचालित रहीं तो कार्यशाला कक्ष के भीतर मस्ती, उल्लास और आवाज आधारित गतिविधियां नहीं करा पाए। लेकिन समयबद्ध, सोचसहित और शब्दाधारित कई गतिविधियां कराई गई। विद्यार्थियों को स्वछंद से स्वस्थ दबावयुक्त मानसिक माथापच्ची गतिविधियां दी गईं। लग रहा था कि वे इन गतिविधियों में उलझन महसूस करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सोचयुक्त इन गतिविधियों में भी उन्होंने अपना बेहतर प्रदर्शन करने की ललक को मरने नहीं दिया। आज भी बहुत ही मजा आया। दूसरे दिन की समाप्ति से पहले विद्यार्थियों ने आश्वस्त किया है कि वह कल आभासी नहीं वास्तविक डायरी अंश लिखकर लाएंगे। आने वाला कल आज से भी बेहतर होगा। यह उम्मीद तो है ही।  


रा॰इं॰कॉ॰खरसाड़ा,नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल में इस कार्यशाला में सहभागी बनकर मैं यात्रा से लौट आया हूँ। किसी ने कहा था-यात्रा कितनी भी अहम् क्यों न हो, एक दिन समाप्त हो जाती है। लगभग पैंसठ किलोमीटर की यात्रा कर अब मैं पौड़ी में हूँ। हाँ यह यात्रा तो खत्म हो चुकी है लेकिन जिन 180 आँखों में झांकते हुए मुझे जो ख़याल मिले, सोच मिली, संकल्प मिले और सबसे बड़ी बात अच्छे समाज में भागादीरी की जो भावनाएं मिलीं उन्हें क्यों कर मैं कहूंगा कि वे भी खत्म हो गईं। लगभग 18 घण्टे हमने साथ-साथ संवाद किए। कुछ सपने बुने। कुछ परेशानी-दिक्कतें साझा की। रचनात्मकता तो जो बनी सो बनी लेकिन इस बहाने बातों ही बातों में सहयोग, सामूहिकता, साझी विरासत, सामुदायिकता, आंचलिकता, मनुष्यता और संवैधानिक मूल्यों की बातें हुईं वह किसी भी उदास किताब और सपाट व्याख्यान से बढ़कर थीं। 

आज विद्यालय में अवकाश था। फिर भी विद्यार्थी दूर-दूर से पैदल चलकर कार्यशाला में आए। आज स्मृति को टटोलने, एकाग्रता को बचाए-बनाए रखने, प्रकृति में जीवों की खासियत, विद्यार्थियों और शिक्षकों के असल धर्म पर, मानवगत व्यवहार पर, जीवन के लक्ष्यों पर कई गतिविधियां भी की गई। 

दो दिन के प्रतिफल का आकलन करने के बाद तय हुआ कि तीसरे दिन कहानी पर और काम किया जाए। बीते दिन हुई गतिविधियों का सार-संकलन पर चर्चा हुई। विद्यार्थियों ने स्मृति पर आधारित मौखिक बातें रखीं। सूरज, आरुषी, स्नेहा, पायल और कनिका ने दूसरे दिन के सत्रों को याद किया। तीसरे दिन विद्यार्थियों के न समूह बनाए गए। दस समूह बनाए गए। 

आज तय हुआ कि विविधता से भरी चित्रात्मक किताबों से छोटी-छोटी कहानियां पढ़ी-सुनी जाए। यह चार कहानियों में सुशील शुक्ल की ’मकड़ी और मक्खी’, प्रियंका की ’रंग’, शीतल पॉल की ’पुथ्थु’ और मुकेश मालवीय की कहानी ’बड़ा या छोटा’ का वाचन किया गया। मजेदार बात यह रही कि विद्यार्थियों को यह कहानियां खूब पसंद आईं। कहानियों में आगे क्या होगा? अनुमान और कल्पना के सहारे विद्यार्थी तार्किक ढंग से अपनी बात रख रहे थे। कहानियां जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थीं विद्यार्थियों के चेहरे पर उत्सुकता देखते ही बनती थीं। किताबों के चित्रों, पात्रों, कहानी के शिल्प और कहानी के कहन पर विस्तार से बात हुई। 

सूक्ष्म जलपान के बाद विद्यार्थियों को समूह में मिलकर एक-एक कहानी लिखने की गतिविधि दी गई। आधा घण्टे का समय दिया गया था। सबसे बड़ी बात यह रही कि उनसे निवेदन किया गया कि समूह में हर सदस्य की राय, सुझाव और सहभागिता को शामिल किया जाए। इस समय में समूह में विद्यार्थियों ने चर्चा की, बहस की, तर्क-वितर्क किए। कुछ लिखा। कुछ हटाया। कुछ जोड़ा। कुछ कम किया। फिर उसे चार्ट पेपर पर लिखा भी। दस कहानियों को फिर से समूहवार सभी सहभागियों को पढ़कर सुनाया। कहानियों के कहन, पात्र, पात्रों के माध्यम से आ रही बातों, समस्याओं, काल्पनिकता, बेतुकेपन को रेखांकित किया। 

हमने महसूस किया कि विद्यार्थी मान रहे हैं और जान रहे हैं कि कहानी का मतलब बेसिर-पैर की बात को लिखना नहीं होता। घसियारी समूह की कहानी ’भूत का वहम’, ढोल-दमौ समूह की कहानी ’चींटी और मेढक’,  मसेटू समूह की कहानी ’अच्छा या बुरा’ लालटेन समूह की कहानी ’फ्युँली’, जुगनू समूह की कहानी  ’किसान और परी’ बुराँश समूह की कहानी ’आलसी लड़का’, गुड़हल का फूल समूह की कहानी ’टीचर और बच्चे’, पहाड़ी ग्रुप समूह की कहानी ’कंजूस आदमी’ तिमलु दाणी समूह की ’चींटी और बिल्ली’ और पहाड़ की शान समूह की कहानी ’मोनू का खरगोश’ में कहानीपन अच्छे से शामिल हो सका।  

इन तीन दिनों में बच्चों के साथ सुनने, बोलने, देखने, सोचने और लिखने से जुड़ी बहुत सी गतिविधियों के साथ गाहे-बगाहे बहुत से मुद्दो पर हल्की-फुल्की बातचीत की जाती रही। समय के सदुपयोग पर, सार्थक-निरर्थक चीजों,बातों और समाज में आ रही सामाजिक उदासीनता पर भी बार-बार बातचीत होती रही। 



समापन अवसर पर विद्यार्थियों ने भी अपनी बात रखी। निकिता, कनिका, शुभम, शशांक, प्रियांशी, प्रीति और साक्षी ने पिछले तीन दिनों के अपने अनुभवों को साझा किया। सभी इस बात पर सहमत दिखाई दिए कि इस तरह की कार्यशालाएं जल्दी-जल्दी होनी चाहिए। 

कार्यशाला में अंकुर एक सृजनात्मक पहल के साथियों में प्राथमिक स्कूल नौगा के शिक्षक दिनेश भी उपास्थित रहे। उन्होने भी अपने अनुभव साझा किए। शिक्षक साथी दीपक दो दिन बदस्तूर कार्यशाला में पूर्ण सहयोग करते रहे। उन्होंने अपने स्कूली जीवन को याद किया और बताया कि इस तरह की कार्यशालाओं को कोई मोल नहीं चुकाया जा सकता। पीटीए अध्यक्ष लक्ष्मण सिंह रावत ने बच्चों को सामाजिक योगदान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पहले दिन भी और आज भी विद्यार्थियों के लिए जलपान की व्यवस्था की। अंतिम सत्र में विद्यार्थियों ने फीड बैक लिखित में दिया। उन्होंने सब कुछ अच्छा ही बताया। पूछा तो यह था कि क्या-क्या अच्छा नहीं लगा। लेकिन इस सवाल का सकारात्मक जवाब ही आया। विद्यार्थी कविता लेखन पर एक दिन चाहते थे। वह चाहते हैं कि ऐसी कार्यशालाएं बार-बार हों। जल्दी-जल्दी हों और कम दिन की न हों। 

इन तीन दिनों की सहभागिता की बात करें तो हम वयस्कों में छह साथियों का सहयोग सहभागियों को मिला। सहभागियों की बात करें तो पहले और तीसरे दिन संख्या कम रहीं। दूसरे दिन छियासी विद्यार्थियों ने हिस्सेदारी की। हम कह सकते हैं कि कुल नब्बे दिलों-दिमागों की भावनाएं और सोच एक छत के नीचे तीन दिन तालमेल बिठाने के प्रयास में जुटी रहीं। कहा जा सकता है कि यह प्रयास किसी सालाना परीक्षा की अंक तालिका के अंक जैसे दिखाई नहीं देंगे। अलबत्ता किसी वसंत की बयार की मानिंद इसे सालों-साल महसूस किया जा सकता है। 

मैं आभार प्रकट करता हूँ कि मोहन जी बार-बार मुझे इस तरह का अवसर देते हैं जिसकी वजह से मैं फिर से बच्चे, बाल जीवन और अपने बालपन में लौटता हूँ। समझने-जानने का प्रयास करता हूँ कि बचपन की भावनाओं को समझ सकूँ। उनका सम्मान कर सकूँ। ‘सुनना ... देखना ... सोचना ... और लिखना साथ-साथ’ विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला समाप्त हो गई। 
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’

20 अग॰ 2022

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कला के प्रति संवेदनशीलता ही मनुष्यता को बचाएगी : जगमोहन बंगाणी

जगमोहन बंगाणी की कूची से बनी पेंटिंग्स भारत से बाहर स्पेन, कोरिया, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे देशों में उपस्थित हैं। कला के पारखी समूची दुनिया में हैं और वे अपने घरों-कार्यालयों में रचनात्मकता को भरपूर स्थान देते हैं। बंगाणी मानते हैं कि कला आपके अपने अनुभव से आत्म-साक्षात्कार कराती है। वह स्वयं को जानने का एक असरदार साधन होती है। कला मन के भीतर चल रहे विचारों का प्रतिबिंब होती है। आप उसे बिना कहे हजारों शब्द दे सकते हैं।


कला के क्षेत्र में बंगाणी एक ऐसे चित्रकार हैं जो अभिनव प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। लीक से हटकर अलहदा पेंटिग के लिए वह जाने जाते हैं। भारत के उन चुनिंदा चित्रकारों में वह एक हैं जो नए प्रयोग और दृष्टि के लिए प्रसिद्ध हैं। बंगाणी अब दिल्ली में रहते हैं। अलबत्ता उनकी जड़ें उत्तराखण्ड के मोण्डा, बंगाण से जुड़ी हुई हैं। हिमाचल की संस्कृति से परिचित और उत्तराखण्ड के पहाड़ में जन्मा-बीता बचपन उन्हें अभी भी प्रकृति से जोड़े हुए है। वह किसान परिवार से हैं। यह बताते हुए उनके गर्वीले मस्तक में उभरी चमक साफ देखी जा सकती है। उनकी आँखें फैल जाती हैं। उनके पास पैतृक सेब का बागीचा है। वह यह बताना नहीं भूलते।


मोण्डा उत्तराखण्ड के सुदूर जनपद उत्तरकाशी के विकासखण्ड मोरी, संकुल टिकोची का गांव है। इसी गाँव के राजकीय प्राथमिक विद्यालय में बंगाणी की प्रारम्भिक पढ़ाई हुई है। समय की विडम्बना देखिए कि छात्र संख्या के कम होने का हवाला देकर अब पच्चीस परिवारों के इस गांव का प्राथमिक विद्यालय अब बंद हो चुका है।


विविधता से भरे पेड़-पौधों के साथ हिमालयी परिवेश का असर था कि बंगाणी तीसरी-चौथी में ही कला के प्रति एक नजरिया रखने लगे थे। उनके गांव से बरनाली छह किलोमीटर दूर था। वह कला बनाने के लिए कोरी ड्राइंग कॉपियां लेने वहां जाते थे। कला करने का शौक ही था कि अपने सहपाठियों की ड्राइंग कॉपियांे पर भी वह हाथ आजमाते रहते थे। पांचवी के बाद की पढ़ाई के लिए उन्हें घर से तीन किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। यह पैदल रास्ता पहाड़ी ढलान का था। घर लौटते हुए लगने वाला समय ड़ेढ़ घण्टा से अधिक ही रहता था। बंगाणी स्कूल से आते-जाते समय का सदुपयोग करते। वह चलते-चलते पढ़ाई संबंधी सबक़ को याद कर लेते थे। दोहरा लेते थे। वह घर पहुँचकर लिखने वाला होमवर्क करने के बाद सारा समय कला सीखने के लिए निकालते।
छह से अधिक ख्यातिलब्ध एकल प्रदर्शनी का आयोजन कर चुके बंगाणी बताते हैं कि स्कूल जाना और स्कूल में जाकर पढ़ाई करना एक अलग बात थी। स्कूल में सहपाठियों के साथ सीखना-समझना की यात्रा अन्तहीन होती है। लेकिन, स्कूल जाते समय और स्कूल से घर आने की जो पैदल यात्रा होती थी, उसने प्रकृति को गौर से देखने-समझने का मौका दिया। इस तरह आठवीं की पढ़ाई के बाद बड़कोट जाना हुआ। कक्षा नौ की पढ़ाई के साथ कला के प्रति लगाव और बढ़ा। बढ़ता ही गया।


कला के क्षेत्र में सात से अधिक जाने-माने सम्मान और पुरस्कार प्राप्त बंगाणी मानते हैं कि कला कोई धनाढ्य वर्ग का शगल नहीं है। कला का सामान्य जीवन से गहरा रिश्ता है। कला और जीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारे लिए भले ही दूसरे का जीवन आम या खास हो सकता है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन उसके लिए आम ही होता है। जीवन सुखद और दुखद अनुभवों के साथ एक निरंतरता के साथ चलता रहता है। जिसके जीवन में कला है और कला का सम्मान है वह अपने उन अनुभवों को संजो सकता है। खुद का संवार सकता है। एक बेहतर जीवन जीने का नज़रिया दूसरों को कला के माध्यम से दे भी सकता है।


वह तीस-बत्तीस साल पीछे लौटते हैं। उन्हें अपनी स्मृतियों को सामने लाने के लिए कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वह बोलते चले जाते हैं जेसे आँखों से कोई फिल्म देख रहे हों और उसका वर्णन कर रहे हों। वह बताते हैं,‘‘बड़कोट में बड़े भाई के फोटो स्टूडियो में जाने का मौका मिला। पढ़ाई के साथ-साथ फोटो खींचना, डार्क रूम में उन्हें तैयार करना। इस सब ने नये विचार भी दिए। पेंसिल स्कैच बनाने लगा। कुछ आकर्षक फोटो का पोट्रेट बनाने का शौक हुआ। जिन परिचित-अपरिचितों के फोटो के पोट्रेट बनाये जब उन्हें देता तो वह खुश हो जाते। मुझे इस काम से अपने लिए जेबखर्च मिलने लगा। मेरा हस्तलेख अच्छा था तो अब दुकानों के साइन बोर्ड बैनर आदि बनाने से भी अपनी ज़रूरतों के लिए रुपए जुटने लगे। ग्यारहवीं कक्षा में पता चला कि आइल कलर भी होते हैं। स्कूली छात्रों के चार्ट पेपर भी तैयार करने लगा।’’


बीस से अधिक कला कैंप, कला महोत्सवों और आयोजनों में बंगाणी ने कला और उसके विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की है। वह उस दौर के कला विद्यार्थी हैं जब सोचना, समझना और आकार देना सब अपनी आँख, हाथ और मस्तिष्क के सहारे करना होता था। रंग-कूची, काग़ज़ सहायक सामग्री होती थी। यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। लेकिन उस दौर में इंटरनेट न था। इंटरनेट नई क्रांति लेकर आया है। इंटरनेट ने देश, काल, परिस्थितियों के घेरे को तोड़ दिया है। आज कला के आयाम और माध्यम बहुत बदल गए हैं। डिजिटल कला का विकास हो गया है। आज एनएफटी कला तेजी से कलाकारों को आकर्षित कर रही है। डिजिटल संपत्ति के रूप में भुगतान बढ़ता जा रहा है।


बंगाणी बताते हैं कि कला और फोटोग्राफी आपस में जुड़े हुए हैं। एक-दूसरे के सहायक हैं। वह याद करते हैं,‘‘मेरा रास्ता यहीं से तय हुआ। हम उस दौर और परिवेश के हैं जब बारहवीं के बाद पता चला कि आर्ट कॉलेज भी अलग से होते हैं। कला से लगाव के बावजूद भी ग्यारहवीं में गणित का छात्र रहा। बारहवीं के बाद उत्तरकाशी गया। स्नातक में प्रवेश लिया।’’



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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


बंगाणी कहते हैं,‘‘आप अपने आप ही आप नहीं बन जाते। आपको आप बनाने वालों में घर-परिवार, पड़ोस, दोस्त, अग्रजों-अध्यापकों की भूमिका होती है। छोटे-छोटे अवसर आपके कदमों को आगे बढ़ने में सहायक होते हैं।’’ उत्तरकाशी के राजकीय महाविद्यालय से स्नातक में प्रवेश ने बंगाणी को विस्तार दिया। वह पढ़ाई के लिए प्रतिबद्ध थे साथ ही छात्रावास में रहने का शुल्क भी जुटाना था। सड़कों की दीवार पर लिखने का काम हाथ में लिया। स्नातक प्रथम वर्ष में ही कॉलेज की सालाना प्रदर्शनी में बंगाणी की उनतालीस चित्रों ने उन्हें अलग पहचान दिलाई।


वह बताते हैं कि कला के क्षेत्र में दिशा देने वाले बहुत मिले। अब वे नाम बहुत हैं। एक पल में जो नाम याद आ रहे हैं, उनमें मोहन चौहान, सुनीता गुप्ता, मंजू दी, कमलेश्वर रतूड़ी, शारदा, रोशन मौर्य प्रमुख हैं। बंगाणी के हाथों की तूलिका को मात्र उत्तरकाशी में ही रंग नहीं बिखेरने थे। फिर वह स्नातक द्वितीय वर्ष के लिए देहरादून आ गए। देहरादून में व्यावसायिक काम मिलने लगा। स्वयं सेवी संस्थाओं के लिए काम मिलने लगा। देहरादून में डीएवी कॉलेज के अध्ययन ने उन्हें नए पंख दिए।


वह बताते हैं,‘‘सीखने-समझने के लिए नए-नए विचार पनप रहे थे। एक मन था कि दिल्ली जाना चाहिए। पीएचडी करनी चाहिए। कुछ छूटता तो कुछ जुड़ने लग जाता। मैं जैसे-जैसे एक कदम बढ़ाता। रास्ते दस कदम चलने का हौसला देते।’’

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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


साल दो हजार में देहरादून के डीएवी महाविद्यालय से ड्राइंग और पेन्टिंग में परास्नातक करने के बाद उन्हें दिल्ली स्थित राष्ट्रीय ललित कला अकादमी से रिसर्च स्कॉलरशिप मिल गई। इससे पूर्व ही उन्हें दिल्ली की ऑल इंडिया फाइन आर्टस एंड क्रॉफ्ट्स सोसायटी ने उत्तराखण्ड स्टेट अवार्ड से नवाज़ा। दिल्ली में ही रहकर कुछ नामचीन प्रकाशनों के लिए चित्र बनाने का काम भी किया। खाली वक्त पर पेंटिग चलती रही। साल दो हजार पाँच से सात तक बंगाणी फोर्ड फाउण्डेशन फैलोशिप के लिए न्यूयार्क रहे। यह अंतरराष्ट्रीय फैलोशिप कार्यक्रम था। दो हजार ग्यारह से तेरह तक बंगाणी भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन जूनियर फैलोशिप में रचनाशील रहे। बंगाणी एक सवाल के जवाब में बताते हैं,‘‘कला और कलाकार का बेहद आत्मीय संबंध है। यथार्थ में और कैनवास की सतह में विषय और ब्रश स्ट्रोक कलाकार के व्यक्तित्व में भी होना चाहिए। लेकिन कई बार कलाकार अपने अनुभवों से समाज को दिशा भी देता है और भयावहता से आगाह भी कराता है। कला के लिए कलाकार की सोच और स्वयं उसका व्यक्तित्व बहुत कुछ निर्भर करता है। कई बार कलाकार स्वयं अंधेरे में रहते हुए भविष्य की टॉर्च बन जाता है जो अपने आगे रोशनी बिखेरता है भले ही उसके पीछे अंधेरा रहा हो।’’


बंगाणी बताते हैं कि जब आप एक गांव में पलते-बढ़ते हैं वह एक दुनिया हो जाती है। जब आप शहर में आते हैं तो आपकी दुनिया बढ़ जाती है। जब आप उस शहर की राजधानी में आते हैं तब आपकी दुनिया का विस्तार हो जाता है। जब आप देश की राजधानी में आते हैं तब आपको वहां से एक और दुनिया दिखाई देती है। जब आप देश से बाहर ऐसी जगह जाते हैं, जहां मुल्कों का काम दिखाई देता है तब आपका नज़रिया और विस्तार लेता है। वह बड़ी सहजता से बताते हैं कि तमाम मुल्कों के कलाकारों का नजरिया मुझे किसी गांव या शहर से नहीं दिखाई देता। लेकिन, जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विविधिता से भरे कला के काम को देखते हैं तब हमें पता चलता है कि हम जिसे काम कह रहे हैं वह तो काम का एक छोटा सा हिस्सा भर है।

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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


वह पीछे मुड़कर देखते हैं। याद करते हैं और बड़ी सहजता से बताते हैं,‘‘ठेठ पहाड़ से निकला एक कलाकार बनने की इच्छा रखने वाला किशोर 2004 तक आते-आते जीवन के सत्ताईस वसंत देख चुका था। उसका काम सराहा जा रहा था। उसकी कूची के रंग बिक रहे थे। काम भी लगातार मिल रहा था। लेकिन वह अपने काम से संतुष्ट नहीं था। कुछ द्वंद्व बराबर परेशान कर रहा था। कुछ सम्मान, पुरस्कार और प्रमाण-पत्रों के बावजूद जब यह अहसास हुआ कि अभी घूमना है। दुनिया को देखना है। अवलोकन करना है तो बस फिर सोचा। सोचा। डेढ़-दो महीने कुछ काम नहीं किया। अपना अवलोकन किया। होश संभालने तक की यात्रा को फिर से टटोला। फिर अपनी जन्मभूमि को याद किया। अपनी माँ को याद किया। फिर ब्रश उठाया। पचास-साठ बार लिखा-माँ। माँ। तुम कहाँ हो! बस! फिर यही से मुझे एक दिशा मिली। फिर मेरा नया काम उभरा। 10 चित्र बनाए जो टैक्स्ट में थे। टैक्स्ट में चित्र था। फिर अपने संघर्षों से ही एक नई दिशा मिली। समझ में आया कि पारंपरिक चित्र, यथार्थवादी चित्रण का रेखांकन करने वाले असंख्य है। कुछ हट कर क्या हो? कुछ नया क्या हो?’’


वह अब भी अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि एक अनमोल जीवन है। इस एक अकेले जीवन में कुछ करने योग्य काम तो किया ही जाना चाहिए। कला के क्षेत्र में पढ़ना बहुत जरूरी है। यात्राएं करना ज़रूरी है। यदि कलाकार पढ़ेगा लिखेगा नहीं, देखेगा नहीं और चर्चा नहीं करेगा तो मौलिक और नवीनता से भरे काम का सर्जन नहीं कर पाएगा। वह बताते हैं,‘‘कला के प्रति संवेदनशीलता की कमी है। हमें आर्ट गैलरियों का भ्रमण करना चाहिए। सूक्ष्म अवलोकन की बहुत ज़्यादा जरूरत है। कला, साहित्य और संस्कृति के जानकारों के साथ कुछ समय बिताना चाहिए।’’


सुप्रसिद्ध सामूहिक विश्व एवं अखिल भारतीय कला प्रदर्शनियों में सहभागी बन चुके बंगाणी बताते हैं,‘‘मैं अपने आप को विशिष्ट कला प्रेमी मानता हूँ। ऐसा कला प्रेमी जो पहाड़ी जीवन में रचा-बसा है। ऐसे इलाके का बचपन मेरे पास है जो उत्तराखण्ड और हिमाचली कला, संस्कृति और जीवन से सराबोर है।’’
इक्कीसवीं सदी की कला और कलाकारों के एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं,‘‘ बहुत से लोगों का दृष्टिकोण कला और कलाकार के प्रति बहुत ही सकारात्मक होता है। लेकिन, अधिकांश लोगों में आज भी कला शिक्षा का अभाव होता है। अभी भी चित्रों से सुखद संवेदना लेने के बजाय चित्रों को समझने पर अधिक जोर देने वालो की संख्या अधिक है।’’


वैश्विक स्तर पर कला के प्रति वह स्वयं क्या नजरिया रखते हैं? इस सवाल के जवाब में वह बताते हैं,‘‘कला के विकास में यूरोप और अमेरिका का नाम अग्रणी है। आज भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश चीन, अफ्रीका, जापान और कोरिया जैसे कई देश हैं जो अपनी कला के प्रति जागरुक हो गए हैं। कला अनवरत् विकसित हो रही है। कला के प्रति दृष्टिकोण भी बदल रहा है। अब बच्चे भविष्य में मात्र विज्ञान और वाणिज्य में ही अपना कॅरियर देखते हैं। वह कला में भी अपना कॅरियर देख पा रहे हैं।’’

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जगमोहन बंगाणी की एक पेंटिंग


समाज में अराजकता और असंतोष से संबंधित एक सवाल के जवाब में जगमोहन बंगाणी कहते हैं,‘‘मनुष्य जीवों में महाबली अपनी मनुष्यता की वजह से बन पाया है। उसने अपने जीवन स्तर को बहुत विकसित कर लिया है। जब मनुष्य के पास भाषा नहीं थी तब भी कला थी। कला के प्रति यदि हम संवेदनशील होंगे तो हमारे भीतर मनुष्यता बची रहेगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम कला और कलाकार के प्रति संवेदनशील हों। हर मनुष्य के भीतर कला है और कलाकार भी है। बस उसे पहचानने, उभारते और विस्तार देने की आवश्यकता भर है।’’


जगमोहन बंगाणी का कला संसार बेहद वृहद है। यदि आप उन्हें और उनके काम को निकटता से देखना-महसूसना चाहते हैं तो निम्नलिखित लिंकों पर एक क्लिक कीजिएगा। मैं आश्वस्त हूँ कि आपको आनन्द आएगा। आप उजास, उल्लास और प्रफुल्लता से भर जाएँगे।
लिंक हैं-
-मनोहर चमोली ‘मनु’

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मोण्डा उत्तराखण्ड के सुदूर जनपद उत्तरकाशी के विकासखण्ड मोरी, संकुल टिकोची का गांव