एक मशहूर विद्वान राजा के दरबार में उपदेश दे रहा था। इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य, विज्ञान, राजनीति और समाज से जुड़े कई प्रसंग वह सुना चुका था। वह धाराप्रवाह अपनी बात रख रहा था। विद्वान की हर विषय पर लगातार एकतरफ़ा विचार प्रकट करने की सामर्थ्य से सभी हतप्रभ थे। वह स्वयं को प्रकाण्ड विद्वान घोषित करने के सारे उपाय अपनाने को आतुर था।
दोपहर हो गई। मगर विद्वान था कि लगातार अपना ज्ञान बघार रहा था। दोपहर बीत गई। विद्वान को अचानक जैसे कुछ याद आया। उसने राजा से कहा-‘‘अरे हाँ। सुना है कि आपके दरबार में कोई ज्ञानी है। इतना ज्ञानी कि आपने उसका नाम ही ज्ञान सिंह रख दिया है। आप उसे बड़ा विद्वान बताते हैं। जरा हम भी तो देखें उसकी विद्वता।’’ ज्ञान सिंह को जैसे इसी अवसर की तलाश थी। वह उठा और विद्वान के पास जा पहुँचा। ज्ञान सिंह के हाथ में सुराही और एक पात्र था। उसने विद्वान से कहा-‘‘लीजिए। पहले जल ग्रहण कीजिए।’’ यह कहकर ज्ञान सिंह सुराही के जल को पात्र में उड़ेलने लगा। पात्र भर गया। मगर ज्ञान सिंह पात्र में फिर भी जल उड़ेलता ही जा रहा था। विद्वान ने चौंकते हुए कहा-‘‘बस करो। ये क्या कर रहे हो? दिखाई नहीं देता ? पात्र तो कब का भर चुका है।’’
ज्ञान सिंह ने कहा-‘‘मैं भी तो आपसे यही कहना चाहता हूँ। मैं ही ज्ञान सिंह हूँ। किन्तु अपनी विद्वता मैं आपको कैसे दिखाऊं? आप के ज्ञान का पात्र भी तो भरा हुआ है। मैं जो कुछ भी कहूँगा, वो भी इस जल की तरह छलक कर बाहर गिर जाएगा।’’
यह सुनकर विद्वान सकपका गया। दरबार में सन्नाटा छा गया। विद्वान अपनी झेंप मिटाते हुए राजा से कहने लगा-‘‘महाराज। अब तक मैंने मात्र सुना ही था कि आपके दरबार में ज्ञान सिंह है। आज इस रत्न के साक्षात दर्शन भी कर लिए हैं। मैं ज्ञान सिंह को प्रणाम करता हूँ।’’ ज्ञान सिंह ने सिर झुकाकर महाराज का अभिवादन किया।
महाराज मंद ही मंद मुस्करा रहे थे। वहीं दरबारी ज्ञान सिंह की विद्वता पर तालियाँ बजा रहे थे।
मनोहर चमोली 'मनु'
पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड - 246001 मो.-9412158688.
कहानी अच्छी लगी धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंji shukriya bahut.
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