30 नव॰ 2012

___________ फुलबगिया, पहला अंक, अक्टूबर 2012...'प्यार की बातें' -मनोहर चमोली ‘मनु’

प्यार की बातें
-मनोहर चमोली ‘मनु’
‘‘मैडम जी, ये अमन बार-बार प्यार-प्यार की बातें सुना रहा है।‘‘ अमन की बगल में बैठी हुई तूलिका ने शिकायत करते हुए कहा। अध्यापिका बच्चों की हाजिरी ले रही थी। चैंक पड़ीं। गुस्से से बोली-‘‘अमन। क्या हो रहा है? खड़े हो जाओ। क्या प्यार-व्यार लगा रखा है। मैं भी तो सुनूं।’’
अमन ने अंगुलियां गिनते हुए बताया-‘‘ मैं तीन से प्यार करता हूं।।’’
‘‘तीन से! कौन तीन?’’ अध्यापिका ने सख्ती से पूछा।
अमन सहम गया। हिचकते हुए कहने लगा-‘‘एक तो गौरेया से। जिसका घोंसला बाहर आंगन में है। मैं उसके बच्चों को दाना देता हूं न। अब वो मुझे देखकर चीं-चीं करते हैं। उसके बच्चे भी मेरा आना सुन लेते हैं।’’
अध्यापिका को हंसी आ गई। वह अपनी हंसी छिपाते हुए मन ही मन मुस्कराने लगी। फिर कड़क आवाज में पूछने लगी-‘‘दूसरे के बारे में भी तो बताओ।’’
अमन ने बताया-‘‘दूसरी गिलहरी है। मैं हर रोज उसे रोटी के छोटे-छोटे टूकड़े देता हूं। मैंने उसका नाम पुच्ची रखा है। पुच्ची कभी-कभी मेरे बैग में आकर छिप जाती है। और न वो अपना खाना जगह-जगह पर छिपाती है।’’
अध्यापिका के अलावा कक्षा के सभी सहपाठी अमन की बात गौर से सुन रहे थे। अध्यापिका ने पूछा-‘‘अब जल्दी से तीसरे के बारे में भी बता दो।’’
‘‘तीसरी तितली रानी है। पहले वो मुझे देखकर उड़ जाती थी। अब नहीं उड़ती। मैं तो बस उसके रंग-बिरंगे पंखों को देखता रहता हूं। उसे छूता भी नहीं हूं। अब तो तितली रानी मुझे देखकर उड़ती भी नहीं। मैं उससे खूब बातें करता हूं।’’ यह कहकर अमन चुप हो गया।
अध्यापिका ने हाजिरी का रजिस्टर बंद कर दिया। सभी बच्चों से कहा-‘‘प्यारे बच्चों अमन का प्यार सच्चा है। सही बात तो यही है कि हम जिसे प्यार करेंगे वो भी हमें प्यार करेगा। ये पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी हमसे प्यार चाहते हैं। अमन के लिए हम सभी ताली बजाएंगे।’’
कक्षा नन्हें हाथों से बज रही तालियों से गूंज उठी। अमन तूलिका को देख रहा था। तूलिका भी जोर-जोर से ताली बजा रही थी। 000

-मनोहर चमोली ‘मनु’

23 नव॰ 2012

बाल भारती, नवम्बर, 2012. बाल कहानी : 'दाना दो गौरेया को.' -मनोहर चमोली ‘मनु’

दाना दो गौरेया को  

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    ‘‘दादाजी। आप आंगन में क्यों चावल के दानें बिखेर रहे हो? आंगन गंदा हो जाएगा। इन चावल के दानों को खाने के लिए  चिड़िया आएंगी और जगह-जगह बीट कर दंेगी। जरा सोचिए।  अगर आप रोज दस दाने ही आंगन में बिखेरोगे, तो एक महीने में तीन सौ दाने। इस तरह एक साल में तीन हजार छह सौ दाने बरबाद कर दोगे।’’ अखिल ने कहा। यह सुनकर दादा जी चैंक पड़े। फिर उन्हें हंसी भी आ गई। उन्होंने अखिल का कान प्यार से उमेठते हुए कहा-‘‘वाह! मेरे गुदड़ी के लाल। तुम्हारा दिमाग तो वाकई किसी वित्तमंत्राी की तरह चल़ रहा है। पर मेरे प्यारे बच्चे। जरा आप भी तो सोचिए। इस धरती पर सिर्फ इंसान ही इंसान रह जाएं और पशु-पक्षी समाप्त हो जाएं तो ?’’

    अखिल समझ नहीं पाया। दादाजी की ओर देखकर बोला-‘‘मैं समझा नहीं। चावल के दानों से पशु-पक्षी के समाप्त होने का क्या मतलब है?’’

    दादाजी ने हंसते हुए कहा-‘‘खा गए न गच्चा। मैं बताता हूं। अखिल। समूची प्रकृति में एक खाद्य श्रंखला है। एक जीव दूसरे जीव का भोजन है। यहां तक की घास-पात भी कई जीवों का भोजन है। जो जीव घास-पात खाते हैं। उन्हंे दूसरे जीव खाते हैं। उन दूसरे जीवों को तीसरे जीव खाते हैं।’’

    ‘‘ये तो मैंने भी पढ़ा है। मगर दादाजी। पक्षी नहीं भी रहे तो हमें क्या फर्क पड़ता है?’’ अखिल ने पूछा।

    दादाजी ने जवाब दिया-‘‘ये तुमने अच्छा सवाल पूछा। देखो। मैं आंगन में चावल के जो दाने डालता हूं। वो गौरेया पक्षी के लिए हैं। जब वे चावल के दाने खाती है, तो चहचहाती है। पक्षियों का चहचहाना किसे अच्छा नहीं लगता। अब तुम कहोगे, कि अगर हम चावल न भी दें तो भी पक्षी अपना दाना-पानी कहीं न कहीं से चुग ही लेंगी। फिर हम ऐसा क्यों करें? सुनो। गौरेया पक्षी हमारे  आस-पास रहने वाली चिड़िया है। हमारे घर-आंगन की चिड़िया है। लेकिन हम मनुष्य उसे खत्म करने पर तुले हुए हैं। बेटा। इसे बचाना जरूरी है। नहीं तो आने वाले समय में तुम गौरेया के बारे में सिर्फ किताबों में ही पढ़ पाओगे।’’

    ‘‘गौरेया को बचाना है! गौरेया को क्या होने जा रहा है?’’ अखिल झुंझला गया।

    ‘‘बेटा। अब हम बेहद आधुनिक हो गए हैं न। हमने अपने घरों के आस-पास के पेड़ ही काट दिये हैं। अब चिड़िया अपना घोंसला कहां बनाएंगी?  पहले घरों में छप्पर हुआ करते थे। छज्जे और रोशनदान हुआ करते थे। गौरेया  उनमें अपना घर बना लेती थी। उनका घोंसला हमारे आस-पास ही हुआ करता था। अब हमारे घरों में रोशनदान ही नहीं हैं। अब तो दो-तीन मंजिल वाले मकान बन रहे हैं। अब तुम ही बताओ। बेचारी गौरेया अपना नीड़ कहां बनाए?’’ दादाजी ने पूछा।

    अखिल ने बिना विचार किए जवाब दिया-‘‘ जंगल में बनाए और कहां।’’

    दादाजी झट से बोल पड़े-‘‘बेटा। अब जंगल ही कहां बचे हैं।  सुदूर के जंगल भी सिमटते जा रहे हैं। वैसे भी गौरया बेहद संवेदनशील होती है। उसे हम मनुष्यों के आस-पास रहना अच्छा लगता है।’’

    अखिल ने सोचते हुए पूछा-‘‘पर दादाजी अब तो मुझे गौरेया कभी-कभी ही दिखाई देती है। वे कहां चली गईं हैं?’’

    दादाजी ने गहरी सांस लेते हुए बताया-‘‘बेटा गौरेया ही नहीं, कई पक्षी धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। हमारे देश में पक्षियों की लगभग बारह सौ प्रजातियां हैं। लेकिन कई प्रजातियों के पक्षी सालों से नहीं दिखाई दिए। गौरेया को शोरगुल और कोलाहल पसंद नहीं। दिन-प्रतिदिन ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। हमने कीटनाशकों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। उससे भी गौरेया का जीवन खतरे में पड़ गया है।’’

    ‘‘कीटनाशक तो कीटों को मारने वाली दवाएं हैं न?’’ अखिल ने पूछा।

    ‘‘हां। तुम ठीक समझे। इन कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा उपयोग हो रहा है। यह कीटनाशक दवाएं कई  जीव-जंतुओं के जीवन को नष्ट कर देती हैं। गौरेया जब अंडे देती है, तब उसे प्रोटीन की आवश्यकता होती है। गौरेया के बच्चों को जिंदा रहने के लिए भी  प्रोटीन चाहिए। पक्षियों को प्रोटीन कीटों को खाने से मिलता है। मगर अब वे कीट तो हमने दवा छिड़क कर पहले ही समाप्त कर दिए हैं। जो कीट बचे भी हैं, उन पर कीटनाशक दवाओं का इतना असर होता है कि गौरेया उन्हें खाकर अपनी औसत आयु से बेहद कम जी पा रही है। पर्यावरण संतुलन में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मगर तुम तो मुझे उनके लिए चावल के कुछ दानें डालने से भी मना कर रहे हो। तो बताओ फिर ये चिड़िया कहां जाएगी? कैसे जिंदा रहंेगी। क्या खाएंगी?’’ दादा जी अखिल से पूछा।

    दादाजी को उदास देखकर अखिल ने  एक पल की देरी नहीं की। वह मायूसी से बोला-‘‘साॅरी दादाजी। मुझे नहीं पता था कि हमारे दो-चार चावल के दानों से  गौरेया का जीवन बच सकता है।  अब ये काम आप मुझ पर छोड़ दो। आज से ही नहीं, अभी से मैं गौरेया को दाना दूंगा। ’’

    ‘‘लेकिन अखिल आंगन गंदा भी तो हो जाता है न। तब।’’ दादाजी ने अखिल को घूरते हुए पूछा।

    ‘‘ओह दादाजी। इसके लिए हम आंगन का एक कोना तय कर लेते हैं। सुबह का समय पक्षियों को दाना देने का सबसे अच्छा समय होगा। फिर मम्मी बाद में आंगन तो साफ करती ही है।’’ अखिल ने उपाय भी सुझा दिया।

    ‘‘यह ठीक रहेगा।’’ यह कहकर दादाजी ने अखिल का हाथ पकड़ लिया। अखिल दादाजी से लिपट गया।


- मनोहर चमोली ‘मनु’., भितांईं, पो0बाॅ0-23.जिला-पौड़ी गढ़वाल.पिन-246001. मोबा0-9412158688.

18 नव॰ 2012

बाल कहानी-'सब हैं अव्वल'. साहित्य अमृत- नवंबर 2012


सब हैं अव्वल

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
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काननवन में हँसी-खुशी और धमा-चैकड़ी का माहौल देखकर आस-पास के वनवासी हैरान हो जाते। सुबह से रात होने तक उल्लास और आनन्द की गूँज चारों और सुनाई देती। काननवन में खुशियों का स्कूल जो खुल गया था। स्कूल जाने वालों के व्यवहार में तेजी से बदलाव दिखाई देने लगे। हर माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे थे। यही कारण था कि भालू के स्कूल में पढ़ने वालों का तांता लगा रहता।
क्या छोटा और क्या बड़ा। क्या पशु और क्या पक्षी। क्या मांसाहारी और क्या शाकाहारी। मेढ़क, साँप, चूहा, बिल्ली, शेर, बकरी, हाथी, बंदर, तितली, लोमड़ी, सियार, खरगोश, कुत्ता, गिलहरी और हिरन भी एक ही मैदान में सुबह-सवेरे प्रातःकालीन सभा में हाथ जोड़े खड़े दिखाई देते।
भालू खूब मन लगाकर पढ़ाता। पढ़ने वाले भी मन लगाकर पढ़ाई कर रहे थे। एक-दूसरे की मदद करते। समूह में सीखते। अपनी बातें साझा करते। स्कूल की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते। सुनने की ललक बढ़ने लगी थी। बोलने की क्षमता में लगातार सुधार हो रहा था। अक्षरों को पढ़ने की गति बढ़ रही थी। हर कोई लिखना सीख रहा था।
सभी के दिन आनंद, मस्ती, उछल-कूद और भाग-दौड़ में गुजर रहे थे। फिर एक दिन अचानक भालू ने कहा-‘‘साल भर हो गया है। अब तुम्हारी परीक्षा होगी। तैयार रहिए।’’
कक्षा में सन्नाटा छा गया।
‘‘परीक्षा ! ये क्या है?’’ मेढक ने सिर खुजलाते हुए पूछा।
भालू को हँसी आ गई। चेहरे पर घबराहट लाते हुए बोला-‘‘परीक्षा ही तुम्हें पास-फेल करेगी। मतलब ये कि तुमने साल भर क्या सीखा। कितना सीखा।’’
अब खरगोश बोला-‘‘लेकिन हम सब तो समझ ही रहे हैं कि हम रोज कुछ न कुछ यहाँ नया सीख रहे हैं। तब भला ये परीक्षा की क्या जरूरत?’’
भालू ने डाँटते हुए कहा-‘‘चुप रहो। मैं पढ़ाता हूं और तुम पढ़ते हो। मैं सीखाता हूं और तुम सीखते हो। अब समय आ गया है कि सब जान लें कि तुम में से अव्वल कौन है?’’
‘‘अव्वल ! ये अव्वल कौन है?’’ छिपकली ने पूछा।
भालू ने बताया-‘‘परीक्षा ही तय करेगी कि तुम सभी में कौन सबसे अधिक होशियार है। साल भर स्कूल में पढ़ाया गया है। सिखाया गया है। समझाया गया है। परीक्षा से तय होगा कि तुम कितने बुद्धिमान बन सके हो। अब घर जाओ और परीक्षा की तैयारी करो। कल तुम्हारी परीक्षा होगी।’’
स्कूल से लौटते हुए सब सोच में पड़ गए। उनके चेहरे चिंता से भर गए। तनाव और भय के कारण वे हँसना-गाना भूल गए। वे एक-दूसरे से बेवजह तुलना करने लगे। निराशा और हताशा से भरा हर कोई एक-दूसरे से दूर-दूर चलने लगा। आज सुबह तक जो नाचते-कूदते स्कूल जा रहे थे, वे स्कूल से लौटते हुए एक-दूसरे को देखकर घबरा रहे थे। परीक्षा ने जैसे उनकी आजादी छीन ली हो। खुशियों की पाठशाला एक झटके में डर की पाठशाला बन गई। हर कोई रात भर सो नहीं सका।
सुबह हुई। सब बुझे मन से स्कूल पहुँच गए।
भालू ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘परीक्षा यहीं मैदान में होगी। सब तैयार रहें।’’ हर कोई सिर झुकाए बैठा हुआ था।
भालू ने स्कूल की ऊँची दीवार की ओर देखते हुए कहा-‘‘इस दीवार पर जो चढ़ेगा। वही अव्वल माना जाएगा। सब दीवार की ओर दौड़े। बंदर, गधा और सियार उछलते ही रह गए। छिपकली झट से दीवार पर चढ़ गई।’’
चूहा उदास हो गया। धीरे से बोला-‘‘मेरे जैसे इतनी ऊँची दीवार पर कभी नहीं चढ़ पाएंगे।़’’
भालू ने पीपल के पेड़ की ओर देखते हुए कहा-‘‘इस पेड़ पर चढ़ो।’’ उड़ने वाले पक्षी पलक झपकते ही पेड़ की शाखाओं पर पँख पसारकर बैठ गए। हिरन, मेढक जैसे जीव-जन्तु अपना सा मुंह लेकर खड़े रह गए।
भालू ने फिर कहा-‘‘मैदान के चार चक्कर लगाओ। मैं सौ तक गिनती बोलूंगा। गिनती पूरी होने से पहले चार चक्कर जो लगाएगा वही अव्वल माना जाएगा। दौड़ो।’’
सब दौड़ने लगे। खरगोश, कुत्ता सबसे आगे थे। बेचारा कछुआ सबसे पीछे रह गया।
भालू ने एक नई घोषणा करते हुए कहा-‘‘मैदान के किनारे बड़ा सा पत्थर पड़ा है। हटाओ उसे।’’
हर किसी ने कोशिश की। पत्थर टस से मस न हुआ। हाथी झूमता हुआ आया और उसने पत्थर को सूण्ड से धकेल दिया। एक के बाद एक नई परीक्षा से सब तंग आ गए। हर परीक्षा में एक अव्वल रहता और बाकी मायूस हो जाते।
मधुमक्खी के सब्र का बांध टूट गया। वह बोली-‘‘मैं इस परीक्षा का बहिष्कार करती हूँ। ऐसी पढ़ाई से तो अनपढ़ रह जाना ही अच्छा है। ऐसी पढ़ाई, ऐसा स्कूल और ऐसा शिक्षक मुझे स्वीकार नहीं, जो कक्षा में सहभागिता के बदले गैर बराबरी की भावना विकसित करे। इस पढ़ाई को धिक्कारना ही अच्छा है।’’
मधुमक्खी की बात सबने सुनी। मैदान में सन्नाटा छा गया।
तितली ने मधुमक्खी की बात का समर्थन करते हुए कहा-‘‘मैं भी इस परीक्षा का विरोध करती हूँ।’’
फिर किसी ओर ने भी कहा-‘‘मैं भी।’’
दूर से कोई चिल्लाया-‘‘मैं भी।’’
अब कुछ एक साथ बोले-‘‘हम भी।’’
     फिर क्या था। सब एक साथ चिल्लाए-‘‘हम सब भी।’’
सब भालू की ओर दौड़े। भालू घबरा गया। वह भागकर जंगल में जा छिपा। काननवन का स्कूल बंद हो गया। अब सब प्रकृति से सीखने लगे। अपने अनुभवों से सीखने लगे। तभी से आज तक किसी भी जंगल में कोई स्कूल नहीं लगता। 000
Manohar Chamoli 'manu'





3 अक्तू॰ 2012

बालहंस, अक्तूबर- प्रथम, 2012. : 'देनहार कोई ओर है.'


देनहार कोई ओर है

-कथा: मनोहर चमोली ‘मनु’

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     बहुत पुरानी बात है। एक राजा था। विजय प्रताप सिंह। विजय प्रताप सिंह दानवीर था। उसके दरबार में कोई याचक आता तो खाली हाथ न लौटता। धीरे-धीरे याचकों की संख्या बढ़ती गई।
एक दिन की बात है। राजा ने अपने विश्वासपात्र सेवक बनवीर को बुलाया। राजा ने कहा-‘‘बनवीर। राजमहल में कोई भी आए। वह खाली हाथ न लौटे। रोटी,वस्त्र और कुछ मुद्राएं तुम स्वयं अपने हाथ से प्रत्येक याचक के हाथ में सौंपोगे। ध्यान रहे कोई मायूस होकर न दरबार से न लौटे।’’
बनवीर आज्ञाकारी और अपने काम के प्रति निष्ठावान था। उसने राजा के कहे अनुसार दान देने का कार्य संभाल लिया।
अब तो हर रोज याचकों की भीड़ सुबह-सवेरे ही राजमहल के द्वार पर लग जाती। बनवीर एक-एक याचक को तय दान सामग्री देता। याचक हाथ जोड़कर बनवीर को ढेर सारा आशीर्वाद देते। राज कर्मचारी जहां भी जाते, प्रजा के मध्य बनवीर की ख्याति सुनते। यह बात सेनापति और मंत्री को अच्छी नहीं लगी। दोनों ने मिलकर राजा से बनवीर की शिकायत कर दी। राजा ने बनवीर को बुलाते हुए पूछा-‘‘बनवीर। यह मैं क्या सुन रहा हूं। सुना है तुम याचकों के चेहरा तक नहीं देखते। तुम्हें दान सामग्री निपटाने की जल्दी रहती है। क्या यह सच है?’’
बनवीर ने हाथ जोड़ते हुए जवाब दिया-‘‘महाराज। यह सच है कि मैं दान करते समय किसी याचक का चेहरा तक नहीं देखता।’’
‘‘सुना महाराज। बनवीर ने स्वयं स्वीकार कर लिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि कई याचक कई बार राजमहल से दान सामग्री ले जाते होंगे।’’ मंत्री ने जोर देकर कहा।
‘‘हो सकता है महाराज। कुछ याचक दोबारा दान सामग्री ले जाते होंगे। लेकिन मैं याचकों से नज़रें नहीं मिला सकता।’’ बनवीर ने सिर झुकाते हुए कहा।
राजा ने पूछा-‘‘क्यों? तुम याचकों के चेहरे पर नजर क्यों नहीं डालना चाहते?’’
बनवीर का सिर झुका ही रहा। उसने धीरे से कहा-‘‘महाराज। देनहार कोई और है देत रहत दिन रैन। लोग भरम हम पर धरैं याते नीचे नैन।’’
    सेनापति बीच में ही बोल पड़ा-‘‘बनवीर इस समय विद्वता मत बघारो। सीधे जवाब दो।’’
    बनवीर ने मुस्कराते हुए जवाब दिया-‘‘राजन्। यह सही है कि दान मेरे हाथों से होता है। जिस कारण याचक मुझे ही दाता समझते हैं। वे दान लेते समय मुझे हाथ जोड़ते हैं। मगर मैं तो मात्र आपकी आज्ञा का ही पालन कर रहा हूं। वास्तव में दान तो आप कर रहे होते हैं। सच तो यह है कि दान देने वाले तो आप हैं। यही कारण है कि मेरा सिर नीचा रहता है। मैं शर्म के मारे याचकों से आंखें नहीं मिला पाता।’’
    राजा सारा माजरा समझ गए। वे मुस्कराते हुए बोले-‘‘हमारा आदेश है कि बनवीर की सहायता के लिए आज से ही मंत्री और सेनापति स्वयं याचकों पर कड़ी नज़र रखेंगे। मंत्री और सेनापति की ही ये जिम्मेदारी होगी कि कोई जरूरतमंद दान से वंचित न हो और कोई अपात्र अनावश्यक दान प्राप्त न कर ले। हम बनवीर की निष्ठा से प्रसन्न हैं। आज से ही बनवीर का वेतन बीस फीसदी बढ़ाया जाता है।’’
    राजा का आदेश सुनकर मंत्री और सेनापति बुरी तरह झेंप गए। 0000000
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-मनोहर चमोली ‘मनु’. पो0बाॅ0-23. भितांई,पौड़ी.जिला-पौड़ी गढ़वाल. उत्तराखंड.पिन-246001. सम्पर्कः09412158688.


29 सित॰ 2012

नंदन, अक्तूबर 2012. बाल कहानी : 'बीस रुपए के लिए'

बीस रुपए के लिए

-मनोहर चमोली ‘मनु’

 

स कंडक्टर चिल्लाया-‘‘टिकट ले लो भई। और कोई बगैर टिकट?’’
‘‘हां इधर पीछे। दो टिकट।’’ रोहित के पापा ने कहा।
कंडक्टर ने पीछे घूमकर देखा। बुरा-सा मुंह बनाते हुए वह अपनी सीट से उठा और धक्का-मुक्की करता हुआ बस के पीछे की सीटों तक जा पहुंचा। चिढ़ते हुए बोला-‘‘टिकट नहीं लिया? मैं कब से चिल्ला रहा हूं।’’
रोहित के पिताजी ने कहा-‘‘ढाई टिकट दे दो। एक तो बस में सवारी ठूंस कर भरी हैं। बीच में सवारियों का सामान भी है। कैसे लेता। वैसे भी सवारियों तक आपको आना चाहिए। सवारियां अपनी सीट छोड़कर आपकी सीट पर कैसे आए।’’
कंडक्टर भन्ना गया। घूरते हुए बोला-‘‘ढाई टिकट क्यों। इस बच्चे का पूरा टिकट नहीं लोगे? अरे बच्चे! तेरी उम्र क्या है?’’
रोहित के पिता ने झट से जवाब दिया-‘‘इसका नाम रोहित है। इसकी उम्र सात साल है।’’
कंडक्टर ने रोहित को गौर से देखा। फिर बोला-‘‘इस बच्चे के मुंह में जबान नहीं है क्या? कम से कम बच्चे के लिए झूठ तो मत बोलो। इस बच्चे की उम्र तो ग्यारह साल के आस-पास लग रही है। क्यों बच्चे। कितने साल का है तू?’’
अब रोहित की मम्मी बोल पड़ी-‘‘भाई साहब। कहा न आपसे। हमारे रोहित की उम्र सात साल है। हम भला क्यों झूठ बोलेंगे। हमारे ढाई टिकट ही बनते हैं। ये लो । ढाई टिकट के सौ रुपये।’’
कंडक्टर ने गरदन झटकते हुए कहा-‘‘क्या जमाना आ गया है। आधे टिकट का किराया बचाने के लिए झूठ पर झूठ बोला जा रहा है। चाहो तो ये सौ रुपये भी रहने दो।’’
रोहित के पिताजी को गुस्सा आ गया। बोले-‘‘क्यों रहने दो। बच्चे का आधा टिकट लगता है। फिर हम क्यों पूरा टिकट लें?’’
कंडक्टर तो जैसे बहस ही करना चाहता था-‘‘कोई बात नहीं भाई साहब। तीन टिकट नहीं आप ढाई ही लीजिए। लेकिन बीस रुपए के लिए कम से कम इस बच्चे को इतना छोटा तो न बनाइए। किसी से भी पूछ लीजिए। ये दस साल से अधिक का बच्चा है। आप भी क्या। उसे घर से सिखा कर ले आये कि चुप ही रहना। जबान न खोलना। देखो तो कैसा चुप्पी साधे बैठा है। इसे बताना चाहिए कि इसकी उम्र क्या है।’’
रोहित ने अपनी जेब से स्कूल का पहचान पत्र निकालते हुए अपनी मम्मी को दे दिया। रोहित की मम्मी ने कहा-‘‘एक मिनट भाई साहब। ये लो। हमारे रोहित का पहचान पत्र। इसमें इसकी क्लास भी लिखी है और इसकी जन्म तिथि भी है।’’
कंडक्टर ने रोहित का पहचान पत्र देखा और उस पर रोहित की चस्पा फोटो को भी गौर से देखा। फिर हिचकते हुए बोला-‘‘इस कार्ड के हिसाब से तो रोहित सात साल का ही है। लेकिन कद-काठी से ये काफी बड़ा दिखाई दे रहा है।’’
तभी रोहित दोनों हाथों के इशारे से और अपने चेहरे के हाव-भाव से अपनी मम्मी को कुछ जताने की कोशिश करने लगा। रोहित की मम्मी ने कंडक्टर से कहा-‘‘भाई साहब। रोहित आप से पूछ रहा कि आपके कितने बच्चे हैं।’’
रोहित ने हाथों के इशारे से फिर कुछ कहने की कोशिश की। अब रोहित के पापा ने कंडक्टर से कहा-‘‘ रोहित पूछ रहा है कि यदि कंडक्टर अंकल के बच्चों के सामने कंडक्टर अंकल को कोई झूठा कहे तो आपको कैसा लगेगा।’’
कंडक्टर बुरी तरह झेंप गया। रोहित के पापा बोले-‘‘भाई साहब। रोहित हमारा इकलौता बच्चा है। ये मूक-बधिर है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ये बोल नहीं सकता तो कुछ समझता भी नहीं होगा। और हां। हम दोनों अच्छा कमा लेते हैं। कम से कम बीस रुपये के लिए हम अपने बच्चे के सामने झूठ नहीं बोलना चाहेंगे।’’
पास की सीट पर बैठी एक नन्ही बच्ची बोल पड़ी-‘‘कंडक्टर अंकल। आपने गलत बात की है। हम सब सुन रहे थे। आपको रोहित से भी और रोहित के मम्मी-पापा से भी माफी मांगनी चाहिए।‘’
कंडक्टर बगले झांकने लगा। उसने एक पल की देरी भी नहीं की और माफी मांगकर अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।

14 सित॰ 2012

‘आधा अधनंगा देश शर्मिन्दा है’ ...कविता


‘आधा अधनंगा देश शर्मिन्दा है’

.......................
अहा! मेरा देश!
कबीर के करघे का देश
गांधी के चरखे का देश
ये अगुवा थे मेरे देश के तब
हाय ! मेरा देश
तीन-चैथाई अधनंगा था जब!
कबीर-गांधी शर्मिन्दा थे

यकीनन तभी वे भी अंधनंगे थे
ओह ! आज मेरा देश !
नेताओं का देश
ठेकदारों का देश
कमीशन का देश
रिश्वत का देश
बन्दरबाँटों का देश
छि ! देश अब भी आधा अधनंगा है
और अन्य आधों के अगुवा
बेशकीमती कपड़े ऐसे उतारते हैं
जैसे भूखा बार-बार थूक घूँटता है
इन अगड़ों की आँखों में
बँधी है पट्टी बेशर्मी की
लेकिन आधा अधनंगा देश
इन्हें देख कर शर्मिन्दा है।
मैं भी।
...........
-मनोहर चमोली ‘मनु’

13 सित॰ 2012

'एक खेत सास बहू का' -मनोहर चमोली ‘मनु’. बालहंस, अगस्त, पार्ट- 2. 2012

एक खेत सास बहू का
-मनोहर चमोली ‘मनु’

बहुत पुरानी बात है। किसी गांव के एक परिवार में दो ही प्राणी थे। सास और बहू। अधिकतर परिवार खेती-किसानी पर ही निर्भर थे। सास-बहू के पास खेती करने के लिए एक ही खेत था। दोनों ने मिलकर किसी तरह धान तो बो दिये थे। अब खेतों में खरपतवार हटाने का समय आ गया था। गांव में सपरिवार सभी गुड़ाई में जुटे हुए थे। सास खेत का मुआयना कर आई थी। उसने बहू से कहा-‘‘बहू। शाम ढलने को है। जल्दी से खाना बना ले। खा-पीकर दो घड़ी नींद ले लेते हैं। हम दोनों भोर होने से पहले ही उठ जायेंगे और अंधेरे में ही खेत की गुड़ाई शुरू कर देंगे।’’
बहू ने कहा-‘‘ठीक है। कलेवा लेकर ही खेत में जायेंगे। कलेवा तभी करेंगे, जब खेत की गुड़ाई पूरी कर लेंगे।’’ सास मुस्कराई-‘‘मैं भी यही सोच रही थी। ऐसा करेंगे, सुबह का कलेवा खेत के बीचांे-बीच रख देंगे। तू खेत के एक छोर से और मैं दूसरे छोर से गुड़ाई शुरू कर दूंगी। गुड़ाई करते-करते ही हम कलेवे की टोकरी तक आ ही जायेंगे। एक तो काम भी निपट जायेगा और भूख लगने के बाद कलेवा भी अच्छा लगेगा।’’
बहू खुश होते हुए बोली-‘‘ठीक है। कलेवे की पोटली देख-देख कर गुड़ाई में भी मन लगा रहेगा।’’ दोनों ने झट-पट खाना बनाया। आधा पेट खाया। काम निपटाया और सो गये। थकी-मांदी बहू की तो आंख लग गई। लेकिन सास ने कुछ पल आंखों ही आंखों में काट दिये। उसे खेत की गुड़ाई की चिंता लगी हुई थी। गुड़ाई में बेहद समय लगता है। सास यही सोच रही थी। वह रात के अंधेरे में ही उठी। सुबह के लिए नाश्ता बनाया। उसे कपड़े की एक पोटली में बांधा और बहू को भी जगा दिया। दोनों रात के अंधेरे में ही छोटी-छोटी कुदाल लेकर खेत पर जा पहुंचे।
चांदनी रात ने उनका काम सरल कर दिया। नाश्ते की पोटली खेत के बीचों-बीच रख दी गई। खेत के एक छोर से सास और दूसरे छोर से बहू ने गुड़ाई शुरू कर दी। दोनों का मुंह आमने-सामने था। बिना रुके-थके और भूखे-प्यासे वे कभी एक-दूसरे को देखते तो कभी नाश्ते की पोटली को देखते। पोटली अभी उन दोनों से काफी दूर थी।
बहू ने गुड़ाई करते-करते ही जोर से आवाज लगाते हुए पूछा-‘‘पता नहीं भोर कब होगी। क्या बजा होगा?’’ सास ने प्यार से डपटते हुए जवाब दिया-‘‘भोर तो अपने समय में ही होगी। बातें करेंगे तो काम न होगा। चुपचाप गुड़ाई करते हैं।’’ दोनों के हाथ तेजी से चलने लगे। कभी बांये हाथ से तो कभी दांये हाथ से वे कुदाल बदलते और गुड़ाई करते जाते। कई घंटों बाद भोर होने का आभास हुआ। पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी। क्षितिज की लालिमा से खेत सुनहरा-सा दिखाई दे रहा था। लेकिन दोनों थीं कि दम साधे गुड़ाई में व्यस्त थीं।
कभी सास तो कभी बहू खेत के बीचों-बीच रखे नाश्ते की पोटली को एक नजर देख लेती और फिर फुर्ती से हाथ चलाने लगती। धान की नन्हीं फसल के साथ उग आये खरपतवार को हटाते-हटाते उनकी अंगुलियों के जोड़ों में अजीब सा दर्द होने लगा था।
सुबह के सूर्य की पहली किरण सुनहरी थी। नन्हें पौधों में ठहरी हुई ओस अब सोने के मोती की तरह उन्हें दिखाई दे रही थी। लेकिन यह समय तो खेत की गुड़ाई पूरी करने का था। भूख को शांत करने के लिए रखी गई पोटली तक पहुंचना भी एक लक्ष्य था। दोनों एक-दूसरे को देखती और मन ही मन अपने पीछे की गई गुड़ाई की तुलना भी करती। फिर तेजी से गुड़ाई में तल्लीन हो जाती।
रात बहुत पहले ढल चुकी थी। भोर हुए काफी समय बीत चुका था। बहू ने हिचकते हुए पूछा-‘‘कलेवा कब करेंगे?’’ सास ने लंबी सांस लेते हुए जवाब दिया-‘‘भूख मुझे भी लग रही है। लेकिन कलेवा करेंगे तो फिर काम न होगा।’’ बहू ने माथे का पसीना पोछा और काम पर जुट गई।
दोपहर होने को थी। सास-बहू थक कर चूर हो गई। भूख के मारे उनकी आंतें घूमने लगी थीं। होंठ सूख चुके थे। बहू का धैर्य जवाब दे गया। उसकी अंगुलियां सूज गईं। उसने एक बार सास की ओर देखा। सास ने ढाढस बंधाया-‘‘मेरी बच्ची। मैं भी थक गई हूं। बस थोड़ा ओर सब्र कर। देख। कलेवा सामने ही तो रखा है। हम कलेवे की पोटली के काफी नजदीक हैं।’’
बहू के साथ-साथ सास का गला सूख गया था। वहीं माथे का पसीना लगातार टपक रहा था। सूरज सिर पर चढ़ा जा रहा था। तेज धूप से दोनों की पीठ जल रही थी। हाथों से कुदाल बार-बार छूट रही थी। खेत की गुड़ाई पूरी करनी है। नाश्ता गुड़ाई के बाद ही होगा। दोनों इसी संकल्प को बार-बार याद कर रहे थे। गुड़ाई के लिए उनके हाथ बार-बार मंद पड़ने लगे थे।
दोपहर बीत गई। लेकिन खेत की गुड़ाई का काम था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब सास थकान के मारे निढाल हुई जा रही थी। बहू ने देखा तो हौसला दिया। वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई-‘‘बस थोड़ी सी कसर ओर बाकी है। हम कलेवे की पोटली छूने ही वाले हैं।’’
सास-बहू फिर से गुड़ाई में जुट गये। सांझ ढलने को थी। दोनों कलेवे की पोटली के बेहद नजदीक आ पहुंची। उन्होंने पोटली को छू ही लिया। पोटली को हाथ लगाते ही सास-बहू अपने स्थान पर ही लुढक गई। बेहद भूख-प्यास और थकान के चलते दोनों की सांस उखड़ गई।
सास-बहू का खेत आज भी उसी गांव में मौजूद है। 000 ..........................................................................
कुमाऊं की लोक कथा.............................................उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में जनपद बागेश्वर के गांव बिनौलासेरा में एक खेत ‘सास-बहू का खेत‘ के नाम से प्रसिद्ध है। खेत के बीच में एक छोटा सा टीला है। कहते हैं कि उसी जगह पर सास-बहू ने कलेवा (नाश्ता) रख कर गुड़ाई शुरू की थी और गुड़ाई खत्म करते-करते वह चल बसी थीं।
-मनोहर चमोली ‘मनु’, भितांई, पोस्ट बाॅक्स-23, पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल.246001. उत्तराखण्ड. मोबाइल-09412158688.

बाल कहानी-'इन्द्रधनुष'. चंपक, सितंबर- प्रथम अंक, 2012.



 बाल कहानी----
'इन्द्रधनुष'-मनोहर चमोली ‘मनु’
जंबो हाथी ने आवाज लगाई-‘‘अरे चूंचूं बाहर तो निकल। देख इंद्रधनुष निकल आया है ! कितना सुंदर कितना प्यारा!’’
चूंचूं चूहा पलक झपकते ही बाहर निकल आया। आसमान में सतरंगी इन्द्रधनुष को देखकर चूंचूं खुशी से चिल्ला उठा-‘‘वाह ! हाथी दादा। क्या बात है ! काश! मैं भी तुम्हारी तरह लंबी-चैड़ी काठी वाला होता तो एकझटके में तुम्हारे गाल चूम लेता।’’

जंबो हाथी ने हवा में सूंड हिलाते हुए कहा-‘‘इसमें कौन सी मुश्किल है। ये लो। अपनी इच्छा पूरी करो। मेरी ये बीस फुट की सूंड कब काम आएगी।’’ जंबो हाथी ने दूसरे ही क्षण चूंचूं को सूंड से उठा कर अपने गाल पर रख दिया। दोनों हंसने लगे।
चूंचूं ने इंद्रधनुष की ओर देखते हुए पूछा-‘‘दादा। एक बात तो बताओ। ये इंद्रधनुष हर रोज क्यों नहीं निकलता?’’
जंबों ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया-‘‘चूंचूं तुम्हारे सवाल में जान है। दरअसल इंद्रधनुष बारिश के बाद ही निकलता है। कारण साफ है। बारिश होने के बाद हवा में पानी के नन्हें कण रह जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उनमें से होकर गुजरती है तो वे सार रंग के इंद्रधनुष का आकार ले लेती हैं।’’
‘‘ओह ! समझ गया। तो ये बात है। लेकिन इनमें सात रंग कौन-कौन से होते हैं? मुझे तो सात नहीं दिखाई दे रहे हैं।’’
‘‘तुम पिद्दी भर के तो हो। अरे! सात रंग तो मुझे भी अपनी आंख से नहीं दिखाई दे रहे हैं। इंद्रधनुष के सातों रंगों को देखने के लिए दूरबीन लानी पड़ती है। समझे। लेकिन मुझे इसके रंग पता हैं। पहला लाल फिर दूसरा नारंगी फिर पीला, हरा,नीला,आसमानी और बैंगनी रंग होता है। आया समझ में। इन्हें याद कर लेना।’’
चूंचूं सिर हिलाते हुए कहने लगा-‘‘समझ गया। लेकिन जंबों दादा। ये पश्चिम दिशा में ही क्यों निकला हुआ है?’’
जंबो हाथी ने हंसते हुए कहा-‘‘आज तो तेरा दिमाग खूब चल रहा है। सही बात तो ये है कि ये सूर्य के ठीक विपरीत दिशा में ही दिखाई देता है। सूरज की रोशनी बूंदों पर पड़ने से सूरज की ओर खड़े होने से ही हमकों ये इंद्रधनुष दिखाई देता है। सुबह पश्चिम में और शाम को पूरब में। समझे। ’’
‘‘समझ गया।’’
जंबो ने कहा-‘‘आसमान में दिखाई देने वाला इंद्रधनुष प्राकृतिक है। तुम चाहो तो कृत्रिम इंद्रधनुष भी देख सकते हो।’’
चूहा बोला-‘‘वो कैसे भला?’’
जंबो ने बताया-‘‘किसी फव्वारे के पास जाओ। सूरज की ओर पीठ करो। यदि फव्वारे के पानी में फैलाव होगा। तो तुम्हें सूरज की विपरीत दिशा की ओर यानि पश्चिम में छोटा सा इंद्रधनुष दिखाई देगा। बहुत ऊंचाई से गिरने वाले झरने के पास भी हम इंद्रधनुष को देख सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें सूरज और पानी की बूंदों के बीच खुद को सही जगह पर खड़ा करना होगा।’’
‘‘समझ गया। ये कृत्रिम इंद्रधनुष को देखने के लिए थोड़ा मेहनत करनी होगी न दादा।’’
तभी जंबो हाथी ने घात लगाती हुई पूसी बिल्ली को देख लिया। पूसी चंचंू पर झपटने ही वाली थी कि जंबो हाथी ने चूंचूं को इशारा कर दिया।
चूंचूं बोला-‘‘समझ गया। मैं चला बिल में।’’ यह कहकर चूंचूं बिल में जा घुस गया। बेचारी पूसी बिल्ली हाथ मलती रह गई।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’. पोस्ट बाॅक्स-23, भितांईं, पौड़ी , पौड़ी गढ़वाल.246001 मोबाइल-09412158688. उत्तराखण्ड।





11 अग॰ 2012

चम्पक, अगस्त प्रथम 2012,कहानी 'फिर नहीं ललकारा'.


'फिर नहीं ललकारा'

-मनोहर चमोली ‘मनु’

.................
बैडी सियार को इन दिनों पहलवानी का शौक चढ़ा था। उसने अच्छी-खासी रकम देकर जंबों
हाथी से पहलवान के गुर भी सीख लिए थे। जंबों हाथी ने एक दिन बैडी सियार से कहा-‘‘अब
तुम अच्छे पहलवान बन गए हो। मैंने तुम्हें खास और बड़े सभी दांवपेंच सीखा दिए हैं। मुझे नहीं
लगता कि कोई तुम्हंे आसानी से पटकनी दे सकता है।’’
बैडी खुश होते हुए बोला-‘‘तो उस्ताद इसका मतलब ये हुआ कि मैं चंपकवन का नामी पहलवान
बन गया हूं न?’’
जंबों हाथी बोला-‘‘तुमने लगन से कुश्ती के सभी गुर सीख लिए हैं। हां अभ्यास करना और विपक्षी को खुद पर हावी मत होने देना। यदि तुम ऐसा कर सके तो तुम्हें कोई नहीं हरा सकता। मैं भी नहीं।’’ बैडी मारे खुशी के उछल पड़ा। बोला-‘‘वाह उस्ताद वाह ! बस उस्ताद एक बार मैं ज़रा चंपकवन
के सभी तीसमारखांओं को पटक दूं। फिर आपको आपकी गुरु दक्षिणा भी दूंगा।’’
जंबो हाथी ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘अपने उस्ताद को भूलना नहीं। मिलते रहना।’’
बैडी चंपकवन की ओर चल पड़ा। बैडी को चंपकवन में कोई भी मिलता, वह उसे ललकारता। जो
भी उससे उलझता, वह उससे कुश्ती कर बैठता। पूरे जोश के साथ वह सामने वाले पर टूट पड़ता
और जंबो हाथी के सिखाए एक से बढ़कर एक दांवपेंच अमल में लाता। सामने वाला कुछ ही क्षण
में पस्त हो जाता और हार मान जाता। कुछ ही दिन में बैडी चंपकवन में पहलवानी के लिए
पहचाना जाने लगा। जंपी बंदर, ब्लैकी भालू, मटकू गधा, रीठू बैल तक को वह पहलवानी में पछाड़
चुका था। चंपकवन के वासी उसे पहलवानजी कहकर पुकारने लगे थे।
एक दिन की बात है। टाॅमी कुत्ता बोला-‘‘पहलवानजी। चंपकवन में कोई है जो आपको ललकार
सके। नहीं है कोई।’’
बैडी तैश में आते हुए बोला-‘‘किसी में इतनी हिम्मत कहां है, जो मुझे ललकार सके। अरे ! मेरे
उस्ताद तक ने कह दिया था कि अब मुझे वो यानि मेरा उस्ताद भी नहीं हरा सकता। समझे तुम।’’
आस-पास मौजूद कई जानवरों को बैडी सियार का ये बड़बोलापन अच्छा नहीं लगा। मगर सब
चुप रहे। पेड़ पर बैठी सैकी गिलहरी ने कह ही दिया-‘‘पहलवान जी। लगता है शेर को सवा शेर
नहीं मिला है अभी।’’ बैडी सियार की आंख पर तो पहलवानी की पट्टी बंधी थी। वह सैकी
गिलहरी का इशारा नहीं समझ पाया।
एक दिन की बात है। बैडी सियार सैकी गिलहरी को खोज रहा था। जंपी बंदर ने पूछ ही
लिया-‘‘पहलवान जी। क्या बात है बड़े गुस्से में हो? किसे खोज रहे हो?’’
बैडी सियार पैर पटकते हुए बोला-‘‘हां। मेरा पारा सातवें आसमान पर है। मैं सैकी को खोज रहा
हूं। कहां है वो। उसने मुझे ललकारा है। पिद्दी भर की है और उसने मुझे कुश्ती के लिए
ललकारा है। मैं उसका खून पी जाऊंगा।’’
देखते ही देखते चंपकवन के कई जानवर चैपाल पर इकट्ठा हो गए। तभी सैकी गिलहरी ने पेड़
से बैडी के शरीर पर छलांग लगाई। बैडी घबरा गया। इससे पहले वो कुछ समझ पाता। सैकी
गिलहरी ने बैडी के बदन पर कई जगह काट खाया। अपने नुकील पंजों से उसने बैड़ी की गरदन
पकड़ ली। बैडी जोर-जोर से खांसने लगा। दूसरे ही क्षण सैकी गिलहरी ने बैडी सियार की पूंछ
मरोड़ दी। बैडी सुबह से सैकी को खोजता हुआ यहां-वहां मारा-मारा घूम रहा था। वह
भूखा-प्यासा और थका हुआ था। अचानक सैकी को सामने देखकर उसे कुछ नहीं सूझा। जंबो
हाथी को सामने देखकर वह सारे दांव पेंच भूल गया।
कुछ ही देर में वह सैकी के दांव के सामने असहाय नजर आने लगा। जंबो हाथी ने ताली बजाते
हुए कहा-‘‘कुश्ती खत्म। सैकी ने बैडी को मात दे दी है। कुश्ती का नियम है कि जब विपक्षी
असहाय हो जाए तो कुश्ती रोक दी जाती है। सैकी छोड़ दो बैडी को, तुम जीत गई।’’
बैडी एक तरफ खड़ा हो गया। वहीं सैकी को दर्शकों ने कंधे पर बिठा लिया। वह सैकी का विजय
जुलूस चंपकवन की ओर चला गया। बैडी ने जंबो हाथी से कहा-‘‘उस्ताद जी। आपने तो कहा था
कि मैं सारे दांव-पेंच सीख गया हूं फिर सैकी ने कौन से दांव से मुझे हरा दिया?’’
जंबो हाथी ने बताया-‘‘बैडी। सैकी का दांव बड़ा ही साधारण था। तुम अपने घमण्ड के चलते हारे
हो। सैकी को तुमने हल्के ढंग से लिया था, और तुम उसे सुबह से खोज रहे थे। तुम अपना धैर्य
खो चुके थे। यही कारण था कि तुम कुश्ती शुरू होने से पहले ही हार गए। सामने वाले को तुमने
पहले ही बेहद कमजोर मान लिया। वह तुम पर हावी हो गई और तुम सैकी गिलहरी की एक ही
पटखनी में चित्त हो गए। याद रखो। सूरज के सामने दिये की रोशनी कुछ भी नहीं होती। लेकिन
रात के अंधेरे में वही रोशनी बेहद उपयोगी होती है।’’ बेचारा बैडी अपना सा मुंह लेकर रह गया।
फिर कभी उसने किसी को ललकारने की कोशिश नहीं की। 
 000
-मनोहर चमोली ‘मनु’
पोस्ट बाॅक्स-23, भितांईं, पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल 246001, दूरवाणी-09412158688











5 अग॰ 2012

'मेरी बातें'........... -मनोहर चमोली ‘मनु’

'मेरी बातें'

................................

दिखाई देता होगा तुम्हें
नदियों में उफान
पेड़ों में पतझड़
बारिश में काँपते पहाड़
भीषण गर्मी में झुलसाती हवा
मुझे तो नदियाँ सुनाती हैं संगीत
याद आ जाती हैं माँजी की लोरियाँ
 
पेड़ में दिखती हैं हरी-हरी कोंपलें
जैसे नन्हें शिशुओं के अभी उगे हों दाँत
झूमते हुए लगते हैं पहाड़ मुझे
नहाते हुए बच्चों की तरह
हवा का स्पर्श देता है ताज़गी
सुला रही हो जैसे माँ
थपकी देकर।
............
-मनोहर चमोली ‘मनु’.पोस्ट बाॅक्स-23.भितांईं, पौड़ी गढ़वाल.246001

28 जुल॰ 2012

'आंसू बन गए मोती '

___________
'आंसू बन गए मोती '



ब्याही गई बेटी

पहाड़ की
सुदूर पहाड़ पर
विदाई पर वो खूब रोई
ससुराल पहुंचने तक
गालों पर लुढ़कते रहे आंसू
बन गए मोती तब
जब देखा उसने ससुराल के पहाड़ से
अपना पहाड़ी गांव।
---
-मनोहर चमोली ‘मनु’

[25-july 2008]

‘तुम्हारा आना और जाना’

__________

‘तुम्हारा आना और जाना’

...............

तुम्हारा आना

जैसे महकती हवा
चमकती सुबह
फूल का खिलना
चिड़िया का चहकना

तुम्हारा जाना
पत्तों का गिरना
शाम का ढलना
मन उदास होना
नदी का मौन बहना

अब जब भी आना
जाने के लिए मत आना।

.......
-मनोहर चमोली ‘मनु’

‘वो चूम ले मुझे बार बार’

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‘वो चूम ले मुझे बार बार’
............
इस बरस भी बारिश खूब हुई
मैं चाहती थी तर-बतर भीगना
चिड़िया की तरह फुदकना
आँ कर के बूंदों को पीना


और बारिश में जी भर लोटना
देह से सावन का परिचय कराना
आसमान को अपने ऊपर उड़ेलना

  टप-टप पानी की लय की तरह
मैं चाहती थी गुनगुनाना


पहली पहली बूंदों की तरह उछलना
झूमती फुहारों की तरह नाचना
मैं चाहती थी हवा से प्यार करना
कि वो चूम ले मुझे बार-बार
हाँ इस बरस भी रोक लिया खुद को मैंने
अनायास, यूँ ही या जानबूझ कर?


जानती हूं कि कोई नहीं रोकता मुझे
कोई मुझे टोकता भी नहीं
खिड़कियों से झांक लो
हथेलियों से छू भर लो बस बूंदों को
खोज रही हूं कई बरसों से मैं
कि ये किस किताब में लिखा है?
अब तो पेड़ हो गई हूँ


सावन आ और जा रहे हैं
चाहती हूं अब बस ठूंठ हो जाना...।।

_ _ _ _ _ _ _
-मनोहर चमोली ‘मनु’
03 जुलाई 2011

24 जुल॰ 2012

_________ 'पहाड़'...-मनोहर चमोली ‘मनु’

पहाड़
विराट है
उसमें नैतिकता है
वो मानवता का संबल है
वह दंभी नहीं
अंहकारी भी नहीं
सिर उठाकर जीने की
ताकत देता है पहाड़।

11 जुल॰ 2012

शैक्षिक पलाश दिसंबर-जनवरी 2012 के अंक में प्रकाशित आलेख-

 पाठ्य पुस्तक से इतर भी हो सकता है भाषा शिक्षण

 

भाषा शिक्षण पर आसानी से विमर्श हो सकेए सो नीचे एक छोटा सा अंश दिया गया है। यह अंश नंदन बाल पत्रिका के जून 2011 में प्रकाशित कहानी अंगूर खट्टे हैं से लिया गया। इस अंश को ही लेने में कोई विशेष कारण नहीं है। बस भारतीय परिवेश में रची.बसी शुरुआती कहानी की प्रारंभिक पंक्तियां हैं। लाली लोमड़ी जंगल में घूम रही थीए तभी उसे एक जिराफ अंगूर तोड़ता दिखाई दिया। लाली उसके पास गई। जिराफ ने लाली को देखा। ष्ष्अंगूर खट्टे हैं।ष्ष्.कहकर वह मुसकराकर चला गया। ष्ष्हुंहए मेरा मजाक उड़ा रहा था!ष्ष् .लाली गुस्से में बड़बड़ाई।ष् उपरोक्त मात्र बयालीस शब्दों से हम भाषा के विस्तार मंे जा सकते हैं। यही नहीं व्याकरण की दृष्टि से भी कक्षा.कक्ष में इसी अंश से कई वादन चल सकते हैं। साथ ही इसी अंश से गणितए विज्ञानए पर्यावरणए सामाजिक विज्ञानए कला के साथ.साथ गृह विज्ञान विषयक छोटी.बड़ी बातें.चर्चा.गृह कार्यए बातचीत और लेखन भी किया जा सकता है।


इसी अंश से क्योघ् हम किसी भी किताब से.किसी भी अखबार से कोई अंश यूं ही चुन लेंए तो हम पाते हैं कि छोटे से अंश में.पांच.सात पंक्तियों में भाषा शिक्षण के कई रहस्य छिपे हुए हैं। यह कोई नया विमर्श भी नहीं है। बस इसे व्यावहारिकता में लाने की आवश्यकता है। उपरोक्त अंश को हम किसी कक्षा विशेष से बांधकर भी नहीं देखना चाहते। कक्षावार बातचीत.चर्चा और शिक्षण को व्यापक या सूक्ष्म किया जा सकता है। बहरहाल हम बुनियादी और उच्च प्राथमिक कक्षाओं के भाषा शिक्षण को केन्द्र में रखकर चर्चा को विस्तार देने की कोशिश करेंगे। 
हम सभी जानते हैं कि अध्यापक कक्षा.कक्ष की और शिक्षण व्यवस्था की धूरी है। वह चाहे तो सभी विषयों का शिक्षण भाषा की कक्षा में कर सकता है। दूसरे शब्दों में यहां हम भाषा ;हिन्दीए अंग्रेजी और संस्कृतद्ध को केन्द्र में रखते हुए अन्य विषयों के साथ भाषा का संबंध को जोड़ते हुए विस्तार में जाने का प्रयास करेंगे।
हम जानते ही हैं कि जब कोई भी औसत बच्चा पहले दिन स्कूल में आता है तो वह कोरा नहीं होता। उसके पास लगभग पांच हजार शब्दों की स्मृति अपने नजरिए से उनके अर्थों के साथ होती है। वह मोटे तौर पर उनके रूपएगुण स्वभाव से भी परिचित होता है। मसलन वो गरम तवे को जानता है। एक बार छूने से मिले उसके स्वभाव से परिचित है। वह चायए दूध और दवाई की गंध को स्वादानुसार पहचानता है। भले ही आप उसका रंग एक कर दें या एक जैसे पात्र में दे दें। वह कटोरीए गिलासए चम्मच और थाली को उनके आकार के हिसाब से पहचानता भी है और जानता भी है कि किस पात्र को किस काम में लाया जाता है। मसलन अगर आप चाय के लिए बरतन मांगेगे तो वह गिलास या कप ही लाएगाए थाली नहीं। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि बच्चे के लिए भाषा शिक्षण कक्षा का हिस्सा बाद में बनता हैए पहले वह घर में ही दुधबोलीे से अपनी भाषा का नजरिया बनाने लगता है।
अब शिक्षक पर है कि वो कोर्स की किताबी दुनिया से बाहर हट कर भी भाषा शिक्षण के तकनीकी पक्ष को छोड़ते हुए बच्चे की भाषाई योग्यता में विकास कैसे करे। मसलन हम कहानी के उसी छोटे से अंश के पहले वाक्य से शुरू करते हैं। ष्लाली लोमड़ी जंगल में घूम रही थीए तभी उसे एक जिराफ अंगूर तोड़ता दिखाई दिया।ष् हम चर्चा कर सकते हैं। विस्तार के लिए सवाल बना सकते हैं। मसलनए जानवरों के क्या.क्या नाम रखे जा सकते हैं। बच्चे जो भी नाम बताएंगेएसबको सही माना जाना चाहिए। वे संज्ञा भी बता रहे हैं। लोमड़ी मांसाहारी जीव है। मांसाहारी जीव और कौन.कौन से हो सकते हैं। यह चर्चा थोड़ी सी जटिल हो सकती है। सभी बच्चे मांसाहारी.शाकाहारी जंतुओं की पहचान नहीं कर पाते। इसे विस्तार में ले जाया सकता है। बच्चे जीव विज्ञान के साथ.साथ यहां पर्यावरण पर भी अपनी समझ बढ़ाते हैं। इसी वाक्य में नामएवस्तुएस्थान आदि से संज्ञा के दर्जनों उदाहरण देकर विस्तार किया जा सकता है। जंगल शब्द पर तो असीमित चर्चा और गतिविधियां कराई जा सकती है। जंगल पर चर्चा करते हुए हम बच्चों में संज्ञाए सर्वनामए विशेषण की समझ को पुख्ता बना सकते हैं। जिराफ की चर्चा कर बच्चों को कल्पना की दुनिया की सैर कराई जा सकती है। विज्ञान और पर्यावरण से जोड़ते हुए हम जीवों की शारीरिक बनावट पर भी असीमित चर्चा करा सकते हैं। इसी एक वाक्य के इर्द.गिर्द हम बच्चो को लोमड़ीए लाली से लाल और अन्य रंगों की पहचान के चित्रों का संकलनएजंगलएजिराफएअंगूर के साथ.साथ अन्य फलों के चित्रों का संकलन और उन्हें बनाने की दिशा में बच्चों को ले जा कसते हैं। सिर्फ एक ही वाक्य के शब्दों से कई वादनों तक भाषा शिक्षण कराया जा सकता है।
मेरा मानना है कि भाषा शिक्षण को व्याकरण ग्रहण.प्रयोग और उसकी परिभाषा के बंधन से तोड़ने की जरूरत है। उच्च प्राथमिक कक्षाओं तक तो उसे व्याकरण के तकनीकी पक्ष से मुक्त ही रखना चाहिए। उच्च कक्षाओं में वो भाषा के बंधनों को आसानी से खोल लेगा। पहले बच्चों को उसके प्रयोग की खुल कर आजादी देने की जरूरत है। वह बाद में जान ही लंेगे कि वे बहुधा बातचीत में.लेखन में व्याकरण का प्रयोग ही करते आए हैं। इसी पहले वाक्य से हम बच्चों को नए वाक्य लिखने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। जैसे जंगलए अंगूरए दिखाई के सहारे बच्चों को कहा जा सकता है कि वे दो.दो वाक्य बनाएं। सामूहिक रूप से भी श्यामपट्ट पर इसे विस्तार दिया जा सकता है। यही नहीं अर्थों वाले शब्द भी छांटकर लिखवाएं जा सकते हैं। जैसेए मुसकराकरए मजाक। भाषाई विस्तार के लिए बच्चों को प्रेरित किया जा सकता है कि वे जंगलए जिराफए अंगूर पर चार.छह पंक्तियां लिखिए। ;ष्ष्ष्ष्द्ध अंश में विराम चिह्न भी आएं हैंए इसकी सहायता से विराम चिह्नों की जानकारी और अभ्यास कराया जा सकता है। स्वाद और भाव पर भी व्यापक चर्चा कराई जा सकती है।
इस छोटे से अंश में रचनात्मकता के भी खूब अवसर हैं। अंगूर को फलों के साथ जोड़ते हुए अन्य बच्चों के आस.पास पाये जाने वाले फलों की सूची बनवाई जा सकती है। उन्होंने जिन वृक्षों को देखा हैए वे उनके नाम लिख सकते हैं। वे जिन जानवरों को रोजमर्रा के जीवन में देखते हैं। उनके बारे में भी लिखवाया जा सकता है। रचनात्मकता की तो कोई सीमा ही नहीं है। लाली लोमड़ी और जिराफ को आधार बनाकर संवाद शैली में बच्चों से बहुत कुछ लिखवाया जा सकता है। अभिनय करवाया जा सकता है। कक्षा को कुछ समूह में बांटकर इसी अंश को आधार मानकर नई कहानी लिखवाई जा सकती है। समूह कक्षा के स्तर से छोटे.बड़े हो सकते हैं।
हमने यहां बातचीत को जो विस्तार दिया हैए वह सिर्फ साभार लिए गए कुल बयालीस शब्द के अंश भर से हो पाया है। संभावनाएं असीमित होती हैंए बस जरा सी रचनात्मकता भर से हम कुछ भी बेहतर करने की दिशा में पहला कदम तो बढ़ा ही सकते हैं।
भाषा शिक्षण के लिए केवल व्याकरण की पुस्तक ही हो हमारे पास या पाठ्य पुस्तक के प्रश्न.अभ्यास के सहारे ही भाषा शिक्षण होए यह जरूरी नहीं। कक्षा.कक्ष में टंगे पोस्टरए चित्रादिए सूक्तियों के सहारे ही नहींए मेजएकुर्सीए श्यामपट्टए चाॅकए बस्ताए काॅपीए किताबेंए छात्र.छात्राएं ;जो कुछ भी कक्षा.कक्ष के भीतर हैद्ध आदि से हम भाषा की समझ बना सकते हैं। मैं तो यहां तक समझता हूं कि यदि कक्षा में चालीस छात्र.छात्राएं हैंए तो संभवतः उनके नाम भिन्न होंगे। माता.पिता के नाम। उनके घर.गांव.मुहल्ले आदि। इन सभी का संकलन.लेखन कराते हुए हम भाषायी दक्षताएं भी हासिल कर सकते हैं। यही नहीं बच्चे समूह में प्रोजेक्ट कार्य भी कर सकेंगे। एक कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे एक.दूसरे के परिवार के बारे में भी जान सकेंगे। यह संभावना असीमित है कि शिक्षक क्या.क्या करा सकता है।
.मनोहर चमोली मनु

1 जून 2012

'तुम हो प्राण'......Kavita

'तुम हो प्राण'

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केश तुम्हारे बरगद की छाँह

देते मुझको छाया
जब भी झुलसा जीवन में
आराम यहीं तो पाया
धुंधलाता है जीवन जब भी
छाती है निराशा
आशाओं की भोर लाकर
तुमने मुझे जगाया
जब भी भूखा प्यासा तड़फा
आया मुझको रोना
तुमने पुकारा बाँह फैलाईं
मुझको गले लगाया
जब भी उधड़ा मन का कोना
और फट जाता मैं
प्यार की तुलपन कर कर के
तुमने मुझे सजाया
मानव हूँ तो मन में आते
बारम्बार विकार
मानस हो भलमानस बनना
तुमने मुझे चेताया
जब भी मुझको तुमने पुकारा
दौड़ के मैं हूँ आया
मेरे प्राण बसे हैं तुम पर
मुझको बोध कराया।
__________
-मनोहर चमोली ‘मनु
_________

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23 मई 2012

कुछ निशानियाँ दे जा।


 ______________________

जाना है तो जा पर कुछ निशानियाँ दे जा।
अब बची ज़िंदगी के लिए उदासियाँ दे जा।।

दिल भी, धड़कन भी ले जा मगर।

ग़ज़लें लिखने को बस कुछ अँगुलियाँ दे जा।।

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
सुबह सवेरे,18 मई 2012.
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'पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी'.....

'पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी'


....................
ओह ! मेरे पिता !
ठीक कहा था आपने कई बार मुझे
बच्चे हो नहीं समझोगे
वाकई मैं नहीं समझ पाया वक्त रहते
जो आपने कई बार मुझे समझाया था
यह विडम्बना ही है कि मैं आज समझा
जब बरसों बीत गए आपको भूले हुए
मानो आप थे पिछले बरसों का कलेण्डर 

  आज जब बरसों हो गए मुझे पिता हुए
मेरा ही बेटा मुझसे कहता है कई बार
पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी
लगता है कि इतिहास खुद को बदल रहा है
ओह! मेरे पिता!
काश ! मैं भी पलट कर जवाब देता आपको
आपको अक्सर कहता कि तुम आउट डेटेड हो गए हो
कहता आपको कि मेरे कमरे मंे पूछ कर आया करो
मेरी भी अपनी लाइफ है,
डिस्टर्ब न करो, टेंशन न दो
ओह ! मेरे पिता!
मैं तो कभी देर शाम नहीं लौटा
कही भी गया तो रात घर ही लौटा
मैं हमेशा बच्चा ही रहा आपके लिए
हाँ मेरे पिता । मैं आज समझा हूँ
लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है
बहरहाल। आपके इस बेटे का बेटा बहुत समझदार है
वह सब कुछ समझता है
इतना समझदार है कि रात को तब लौटता है
जब रात भी सो चुकी होती है
वह कहीं जाता है तो कुछ नहीं बताता
शायद इसलिए कि मैं परेशान न हो जाऊँ
ओह ! मेरे पिता।
मैं आपको कभी नहीं समझ पाया
और ये पिता अपने बच्चे को कुछ समझा नहीं पाया
शायद तभी तो इस पिता का बेटा कहता है
पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी।

..........
-मनोहर चमोली ‘मनु’
गोधूलि की बेला में...19 मई 2012.

नमक साथ रखती है ये दुनिया.....


यूँ नज़रें फिराकर मिलेगा क्या
अपनों को गिराकर मिलेगा क्या

जो झूठ खरीदें बेचें उनको
कसमें भी दिलाकर मिलेगा क्या

जो बात बात पे रूठे उसको
यूँ सर पे बिठाकर मिलेगा क्या

जो फकीरों का फकीर हो उसे
सपने भी दिखाकर मिलेगा क्या

मैं कहीं भी गया लौटा तो, अब
भूलों को गिनाकर मिलेगा क्या

नमक साथ रखती है ये दुनिया
खुद के जख़्म दिखाकर मिलेगा क्या.
----------------------------

-मनोहर चमोली ‘मनु’
11 मई 2012, सुबह-सवेरे 
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11 मई 2012

दबे पाँव तब आना भी

______________

चुप रहकर पछताना भी

ख़ुद से फिर टकराना भी

पैर पटक कर जाओगे

दबे पाँव तब आना भी

अगर,मगर,लेकिन ये सब

लगते हैं बचकाना भी

जैसे जिया सर उठाकर
ऐसे ही मर जाना भी

जीवन की रेल पेल में
कभी याद तो आना भी
___________________
-मनोहर चमोली ‘मनु’
डायरी से- 10.10.2010

9 मई 2012

कैसे रात गुजारी है....


 तुझसे कैसी यारी है
सबको लगती भारी है

दाना पानी बस हुआ
अब अपनी तैयारी है

कैसे अब बतलाऊँ मैं
कैसे रात गुजारी है

पीछे से है वार किया
ये कैसी दिलदारी है

मेरा है तो आ भी जा
फिर क्यों परदादारी है

वो भी रूठ गया अब तो
कैसी दुनियादारी है

क्या पछताना अब मैंने
जीती बाज़ी हारी है

न जाऊँगा बिन बुलाए
मेरी भी खुद्दारी है

-मनोहर चमोली ‘मनु’
  डायरी से...13 मई 2010


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6 मई 2012

'औरत की भाषा'______

____________

'औरत की भाषा'

औरत की अपनी भाषा होती है
जो गाती है संगीत के साथ
चुपचाप मौन और उदास
वो राग अलापती है जिंदगी के
उसके गीतों में लय है माटी की
जो सने और गढ़े जाते हैं
सुबह सवेरे से देर रात तलक के कामों के साथ
वो रात को सोते हुए भी बुनती है नये गीत
जो होते हैं हमारे और तुम्हारे लिए,
आने वाली पीढ़ी के लिए
उसके सीने में बजती है वीणा
जिसके तारों की झनकार आनंदित करती है
औरत सबके लिए गाती है गीत
अमन के,खुशहाली के
उम्मीद और आशाओं के
औरत गाती है गीत सबके लिए
मगर कभी नहीं देखा उसे
गीत गाते हुए अपने लिए।
___________
डायरी से: सितंबर, 2006 विश्व साक्षरता दिवस पर

-मनोहर चमोली ‘मनु’
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मां सगी या पत्नी


मां सगी या पत्नी
अखिल और अमन दो भाई हैं। अखिल तो सालों से शहर में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहता है। अमन माता-पिता के साथ छोटे से कस्बे में। माता-पिता का जब मन करता तो वे अखिल के साथ रहने चले जाते हैं। लेकिन अमन की शादी के बाद परिस्थितियां बदल गईं। अमन की पत्नी अलका पढ़ी-लिखी है। महानगर में पली-बढ़ी अल्का ने जल्दी ही घर की स्थितियों-परिस्थितियों को जान लिया। वह उनमें आवश्यक सुधार भी करने लगी। अलका की सास को लगा कि अब उसका महत्व खत्म होता जा रहा है और बहू अनावश्यक घर के तौर-तरीकों,मान्यताओं-परंपराओं में बदलाव कर रही है। सास नाराज होकर कुछ दिनों के लिए बड़े बेटे अखिल के पास शहर चली गई। जब लौटी तो देखा कि घर की काया ही बदल बदल गई है।
अब तक अस्त-व्यस्त रहे कमरों की मरम्मत हो चुकी थी। पानी की टंकी के साथ-साथ रसोई में कुछ नया सामान आ चुका था। परदों के साथ-साथ चटाईयांे ने पुराने मकान की दीवारों को छिपा-सा लिया था। रंग-रोगन से मानो जैसे बीमार मकान सेहतमंद हो गया था। अलका की सास ने महसूस किया कि अब अमन और उसके पिता हर छोटी-मोटी चीजों-इच्छाओं पर अलका को ही पुकारते। यह सब देखकर अलका की सास बिफर पड़ी और अमन से दो-टूक शब्दों में कह डाला-‘‘आज तू फैसला कर ही दे। तेरे लिए तेरी मां सगी है या पत्नी?’’
अमन की स्थिति काटो तो खून नहीं जैसी हो गई। वह सन्न रह गया। उसकी समझ में ही नहीं आया कि मां के सवाल का वो क्या जवाब दे। घर का हर कोई सदस्य इस मुद्दे पर अपने-अपने ढंग से सोच रहा था। हर कोई मां और पत्नी के रिश्तों के महत्व को खगाल रहा था।
यह पहली बार नहीं हुआ है कि किसी मां ने अपने बेटे से ये सवाल किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी में ये प्रश्न बहुधा परिवारों में तेजी से उठ रहा है। कहीं पर सास-बहू के आपसी मतभेदों के कारण तो कहीं शादी होते ही बेटे का अलग से चूल्हा करने की मांग पर। इसके अलावा भी कई कारण हैं जब ये प्रश्न विभिन्न दृष्टिकोण से और परिस्थितियों के कारण समसामयिक-सा बन पड़ा है। आइए देखते हैं कि विभिन्न वर्गों और व्यवसायों में काम कर रहे महिला पुरुष इस मुद्दे पर क्या कहते हैं। 
मां ही सगी है
व्यावसायिक संस्थान की प्रमुख रीता दहिया इस मुद्दे पर सवाल उठाते हुए कहती हैं,‘‘माॅ में बुराईयां खोजने वाले बेटे को सोचना होगा कि मां तो मां है और उसकी कोख से ही उसने जन्म लिया है। यदि मां ही जन्म न दे तो पत्नी की वकालत करने वाले पति का अस्तित्व ही कहां होगा। क्या ये एक बेटे को शोभा देता है कि वो मां को छोड़कर पत्नी को सगी कहे?’’ वहीं एक शिक्षण संस्थान में कला शिक्षा के अनुदेशक रामनिवास इस बहस को ही खारिज करते हुए कहते हैं,‘‘ये मूर्खतापूर्ण बहस है। मां का दर्जा कोई ले ही नहीं सकता। मां की तुलना सिर्फ मां से ही हो सकती है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही इस तरह की बचकाना बहस पर विराम लग सकता है। बहू-सास के बीच सगेपन खोजने की वजह और कुछ नहीं पुरुष मानसिकता का ही परिचायक है। स्पष्ट है कि महिलाएं रिश्तों में उलझ जाए,बस और कुछ नहीं।’’ वहीं कंप्यूटर के क्षेत्र में निजी संस्थान चलाने वाली युवा गुल्मी कहती है,-‘‘आज सास हो या बहू। अधिकतरर कामकाजी हैं। गृहिणियां भी समझ चुकी हैं कि ये अर्थहीन बातें हैं और इनमें उलझने से रिश्तों में खटास ही आएगी। आज किसके पास समय है कि वे इस बात को मुद्दा मानें और रिश्तों में बेवजह खटास लाएं। हां लेकिन मां इस दुनिया के सभी रिश्तों में सबसे मजबूत कड़ी है।’’
नवविवाहिता सुरजी विज्ञान में परास्नातक है। वे कहती हैं-‘‘पारिवारिक ताने-बाने बेहद विस्तार लिए हुए होते हैं। लेकिन संकीर्णता से देखेंगे तो हर रिश्ता स्वार्थ से भरा नजर आएगा। मुझे लगता है कि ये एक ही छत के नीचे दो रिश्तों को नहीं दो महिलाओं को स्वामित्व के लिए लड़ाना भर है। मैं खुद अपनी मां को छोड़कर ससुराल आई हूं। मेरे पति की मां है। मैं कल स्वयं मां बनूंगी। फिर मैं कैसे कह दूं कि पत्नी सगी है और मां नहीं। समाज को दिशा देनी हो तो बहस ये हो सकती है कि एक ही छत के नीचे रहने वाली सास बहू में सामंजस्य कैसे हो कि परिवार,पड़ोस और समाज का विकास हो।’’
पत्नी है सगी
होम्योपैथ चिकित्सक श्रीधर शर्मा मानते हैं कि मां धात्री है। मां अपने पुत्र का विवाह कर उसके अंश को तीसरी पीढ़ी में देखना चाहती है। पत्नी ही उसके अंश को धारण करेगी। सो पत्नी सगी है। मां का स्थान पावन है और रहेगा। लेकिन एक उम्र के बाद मां की भूमिका से बड़ी पत्नी की भूमिका हो जाती है। पुत्र की शादी के बाद मां वो सब नहीं कर पाती जो पत्नी करती है। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा हो जाता है, वैसे वैसे मां से दूरिया बढ़ने लगती हैं। एक पत्नी ही है जिससे पुरुष सब कुछ साझा कर सकता है। डाॅ0 शर्मा की राय में एक शादीशुदा पुरुष के लिए उसकी पत्नी से सगा कोई नहीं होता। वहीं सामाजिक संस्था से जुड़े और बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय गणेश खुकसाल कहते हैं,‘‘पत्नी के रूप में पराई लड़की अपने सगे-सम्बंधियों को छोड़कर पति के लिए जिंदगी भर का साथ निभाने के लिए आती है। पूरे परिवार की जरूरत बन जाती है। उसका अधिकार सास से ज्यादा हो जाता है और वह ज्यादा सगी बन जाती है। शादी के बाद बेटे का अपना परिवार भी तो है। उसकी पत्नी भी तो मां के रूप में नए रिश्ते को जन्म देने वाली है। मेरे विचार से पत्नी का अधिकार मां से अधिक हो जाता है।’’
वयोवृद्ध सेवानिवृत्त शिक्षिका कुसुम नेगी मानती है,‘‘अब वो समय गया जब सास का वर्चस्व रसोई से लेकर घर के सारे छोटे-बड़े कामों में हुआ करता था। आज तो पत्नी ही सगी है। इसके कई कारण है। एक तो देर से विवाह हो रहे हैं। तब तक मां प्रौढ़ हो जा रही है। बहू आते ही रसोई भी संभाल रही है और बाहर के काम भी देख रही है। समझदार मां इस सच्चाई को स्वीकार कर रही हैं कि उससे ज्यादा घर-परिवार में बहू सबकी सगी है। मां यह भी समझ रही है कि शेष जिंदगी बहू ही परिवार को उससे बेहतर संभालेगी। आज के भागदौड़ के जीवन के जीवन में तो पति भी पत्नी को अपने से अधिक महत्व परिवार में दे रहा है।’’ होटल मेनेजमेंट की छात्रा किरन संकोच में जवाब देती है। वह कहती है-‘‘ये सवाल दन्द्ध से भरा है। विसंगति के संसार में हर बात स्पष्ट कहना जोखिम भरा भी है। लेकिन पत्नी ही सगी है। एक तो मां भी पत्नी के रूप में अपना जीवन जी चुकी है। सो उसे अपने सगे होने का प्रमाण पत्र क्यों चाहिए। दूसरा पत्नी को कल मां बनना है। उससे ज्यादा सगी उसके बच्चों की बहूएं भी तो हो जाएंगी तो दुविधा किस बात की। घर-रसोई की सत्ता जिसके पास है वही ज्यादा सगी हुई। कुल मिलाकर बहू को ज्यादा तरजीह मिलनी ही चाहिए।’’
ब्यूटी पार्लर चला रही नीतू पहले तो इस प्रश्न पर चैंकती है। विचार करती हुई मुस्कराते हुए कहती है,‘‘भावनाओं को एक तरफ रखें तो पत्नी का पलड़ा भारी लगता है मुझे। हम औरतों के लिए कई रिश्ते उलझनों भरे होते हैं। फिर भी कैसी ही परिस्थितियां क्यों न हो। पत्नी का पक्ष ही लेना मुझे ठीक लगता है। मां है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि जीवन के सच से मुंह मोड़ ले। यदि पत्नी के रिश्ते की अहमियत न थी तो क्यों ब्याह कर लाते है एक पराई लड़की को? यही वजह है कि ब्याह कर लाने वाली लड़की सबसे सगी होने वाली है अपने पति की।’’
दोनों हैं सगे
मां सगी है या पत्नी? इस प्रश्न के जवाब में कुछ ने मां को सगी बताया तो कुछ ने पत्नी को। लेकिन कुछ अपने अनुभवों के आधार पर इस प्रश्न को ही आधारहीन और मूर्खतापूर्ण मानते हैं। कुछ को यह प्रश्न ही निराशा से भरा हुआ लगता है। कुछ सकारात्मक जवाब भी मिले।
भारत इलेक्ट्राॅनिक्स लिमिटेड में कार्यालय अधीक्षक माधुरी रावत कहती हैं-‘‘मां और पत्नी दोनों ही अहम् हैं। मां ही है जो संतान का जीवन संवारने में तभी से जुट जाती है, जब उसे दुनियादारी का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। उसी संतान के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कोई युवती पत्नी बनकर संतान के जीवन में आती है। मां ही है जो अपने बेटों को निखारती है। वहीं पत्नी की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों में पत्नी ही है जो पति के साथ होती है। पति का संबंल बनाए रखती है। परंतु कई बार पति पर पूर्ण अधिकार की आकांक्षा मां-बेटे के रिश्ते में कड़वाहट भी घोल सकती है। कई बार मां भी अपने पुत्र को अपने हिस्से में पहले से कम पाकर परेशान हो जाती है। पत्नी यदि थोड़ी सी समझदारी से काम ले और सामंजस्य बनाये तो कभी यह सवाल घर में उठता ही नहीं कि कौन सगी है कौन परायी। हर रिश्ते का जीवन में स्थान नियत है। कोई रिश्ता किसी दूसरे रिश्ते की जगह ले ही नहीं सकता। मेरा वैवाहिक जीवन तो यही आभास कराता है कि आज मेरी सासजी के लिए मैं उनकी सगी बेटियों से भी बढ़कर हूॅं।‘’
विद्युत विभाग में लेखाधिकारी सुनीता मोहन बताती हैं-‘‘एक मां होने के नाते, मेरे दृष्टिकोण से माँ के रिष्ते की तुलना किसी भी रिश्ते के साथ नहीं की जा सकती। सन्तान के साथ उसका सम्बन्ध नैसर्गिक, अतुलनीय और जन्मजात होता है। एक मां अपनी संतान के सभी गुण-दोष को कमोबेश स्वीकार कर लेती है। किन्तु यह मैं कैसे भूल सकती हूं कि पत्नी बनने की प्रक्रिया भी स्त्री के त्याग से शुरु होती है। एक युवती जो सब कुछ छोड़कर पति के घर-संसार में न जाने कितनी ही बार स्वयं से द्वन्द करती है। अपवादों को छोड ़दें तो, उम्र के हर उस पड़ाव पर जहां व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक कारणों से सर्वाधिक मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है, तब वहां पत्नी ही उसका संबल बनती है। इसलिए कहना न होगा कि, जीवन चक्र में पहले माँ और फिर पत्नी दोनो ही समय के हिसाब से अपनी-अपनी जगह ‘सगे’ हैं, दोनों का घर-परिवार में आमरण महत्व होता है। मैंने तो हमेशा सासुजी को मान दिया। सम्मान दिया। बहुत हुआ तो मौन हो गई लेकिन कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि पति महत्वपूर्ण है,मां नहीं।’’
‘प्ले ग्रुप’ स्कूल की प्रधानाचार्या आनंदी रावत का मानना है कि रिश्तों का रसायन जटिल होता है। इनको मिलाने में समझदारी-सूझ-बूझ और धैर्य की आवश्यकता होती है। मां और पत्नी में किसी भी प्रकार की तनातनी, मनमुटाव, खिंचवा या दूरी न बनने पाए,इसके लिए पति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। रिश्ते बोझ न बनें इसके लिए पत्नी को भी सासुमां की बात को नसीहत के रूप में लेना चाहिए। मेरी सासु तो जानती है कि वे दो पीढ़ी पीछे है। लेकिन मैं हर समय इस बात का ख्याल रखती हूं कि उनकी सलाह और दिशा-निर्देश आज भी परिवार के लिए खास है। बस। एक बात और है कि मैं एक बात हमेशा याद रखती हूं कि मैं पहले बेटी थी, फिर पत्नी बनी और अब मां भी हूं। कल मुझे सास का दायित्व भी मिलेगा। फिर भी ये बात हजम नहीं होती कि मां के समक्ष पत्नी कुछ नहीं है। दोनों एक-दूसरे के सहायक हो सकते हैं।’’ 
एक मूक-बधिर संस्थान में सलाहकार रेणूका ध्यानी मयूर विहार दिल्ली निवासी है। वे बताती हैं कि मां स्वप्निल संसार है। पत्नी उस स्वप्निल संसार में अपने सपने पूरे करने को लालायित रहती है। दोनों ही मुख्य भूमिका निभाती हैं। दोनों के विचारों में भिन्नता होती है। पीढ़ी का अंतर भी दोनों का पलड़ा एक समान नहीं होने देता। मां जहां अतुलनीय है वहीं पत्नी अनमोल भी है। दोनों को सगे या पराये के पलड़े में नहीं रखा जा सकता। दोनों का कोई तोल हो ही नहीं सकता। हां कई बार अपवादस्वरूप अहम् का द्वन्द्व न हो तो पति के लिए मुश्किल हो जाता है कि खुद को किस प्रकार बांटे कि न पत्नी ही नाराज हो न मां।  वहीं कुछ पुरुष भी इस सवाल पर दोनों रिश्तों को महत्वपूर्ण बताते हैं।
व्हीं पत्रकार सुनील कुमार का भी कहना है कि मां और पत्नी दोनों ही सगी हैं। ये औरत को औरत के खिलाफ खड़ा करने वाला प्रश्न है। घर में दोनों की अपनी भूमिका है। सास भी कभी बहू थी और बहू भी कभी सास होगी। इसमें एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए गैरजरूरी बहस पर विराम लगना चाहिए। वकील सुनीता पाण्डे कहती हैं कि ये अधिकार का मामला नहीं है। न ही कोई अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रहा है। ये ओर बात है कि नारियों के रिश्तों की ही तुलना की जाती है। क्या प्रश्न ये नहीं उठाया जा सकता कि घर में कौन बड़ा है? ससुर या पुत्र? सुधार की गुंजाइश क्या परिवार में महिला विशेष के रिश्तों में ही होती है? दोनों अपनी अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। दोनों ही परिवार की मुख्य धुरी का हिस्सा हैं।
रंगकर्मी मनोज दुर्बी कहते हैं,‘‘इस प्रश्न को सगे-संबंधों में नहीं लिया जाना चाहिए। ये परिस्थितियों और देशकाल के स्तर पर अलग अलग हो सकता है। लेकिन मां हो या पत्नी। पुरुष को सामंजस्य तो बिठाना ही होगा। दोनों को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। हां यदि मां या पत्नी गलती पर है तो निष्पक्ष होकर सही की ओर से वकालत करना पुरुष का दायित्व बन जाता है। प्रतिष्ठा से जोड़कर देखना ठीक न होगा। मां और पत्नी के संबंधों पर विवादास्पद प्रश्न उठाकर पुरुष मानसिकता की बू आना स्वाभाविक है। पुरुष आज भी पितृात्मक सत्ता को बनाये और बचाये रखने के प्रयास में लगा है।’’
सार संक्षेप में कहा जाना उचित होगा कि हर परिवार में मां की और पत्नी की स्थिति जुदा-जुदा हो सकती है। सूचना तकनीक के इस युग में जब दुनिया एक गांव हो गई है तो पत्नी और मां के संबंध भी वैश्विक हो गए हैं। हमें बिना किसी अहंकार के इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि परिवार के विकास में दोनों की अपनी महत्ता है। दोनों रिश्ते परिवार को सशक्त और स्वस्थ बनाने में साझी भूमिका निभा सकते हैं। मां को चाहिए कि बहू को बेटी का दर्जा दे और अपने सारे अनुभवों को उसके साथ मित्रवत साझा करे। बहू को चाहिए कि वो अपनी सास को मां के समान समझे और यह महसूस करे कि उसका पति पहले उसकी सास का पुत्र है। सम्मान देते हुए और हौले से सास को मार्गदर्शक के रूप में देखे तो ये प्रश्न कभी उठेगा ही नहीं कि बोलिए मां सगी है या पत्नी? आपकी क्या राय है? 
- मनोहर चमोली  ‘मनु’. पोस्ट बाॅ0-23 पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल 246001. मोबाइल-09412158688

4 मई 2012

औरत में औरत का होना.......


ताकि........
___________
आसान नहीं होता
औरत में औरत का होना
औरत होना एक लैंगिक पहचान नहीं
एक वृहद अनुभव है
ग्रन्थ है जीवन का
औरत में औरत का होना
आसान नहीं होता
औरत का खुद से लड़ना
औरत के अस्तित्व के लिए,
अस्मिता के लिए
आसान नहीं होता
औरत का लड़ना परिवार से,
पड़ोस से और इस समाज से
आसान नहीं होता
लड़ने की आदत को बनाए रखना
जूझते रहने की कुव्वत को बचाए रखना
खुद से लड़ना और लड़कर जीतना
परिवार से,पड़ोस से, इस समाज से
ऐसी लड़ाई जो उसने लड़ी है अनवरत्
वह सदियों से लड़ती आई है
अपने लिए,अपनो के लिए,
पड़ोस के लिए और समाज के लिए
औरत को औरत होना ही होगा
ताकि ये समूची सृष्टि बची रहे
आएगा वो दिन भी जब
औरत उठाएंगी मशाल
वे होंगी आगे और सबसे आगे
और ये दुनिया उसके पीछे चलेगी
खुद को बचाने के लिए।
_______________
-मनोहर चमोली ‘मनु’
(डायरी से- मार्च 2004)

3 मई 2012

जो कहते हो वो किया तो करो....

जो कहते हो वो किया तो करो
कड़वा ये मिजाज पिया तो करो

मुकाबला कल का कल ही करना
आज को बस ज़रा जिया तो करो

सुबह से शाम तक कहीं भी रहो
रात को कहीं पर ठिया तो करो

नदी के पत्थर ने नदी से कहा
कभी हमें निहार लिया तो करो

तन्हाई तुम्हें खा न जाए कहीं
बंद घड़ी का सेल नया तो करो
----------

मनोहर चमोली ‘मनु’.

वो अपना सा लगता है.....

____________

उसका आना खलता है
मुझको भी वो खटता है

बहार आने से पहले
पुराना पत्ता गिरता है

वो मेरा नहीं है मगर
मेरी चरचा करता है

मुझको कौन बुलाता है
जी क्यों मिरा मचलता है

दुनिया गैर सही यारों
वो अपना सा लगता है.

सोना तब निखरे है जब
भट्टी में वो तपता है

----------

मनोहर चमोली ‘मनु’.

3 मई 2012.गोधूलि की बेला में।

या दुनिया को छोड़ दो....

_______________________

अपने अहं को तोड़ दो

या फिर हमको छोड़ दो

अहंकार गुब्बारा है न

नहीं फुलाओ फोड़ दो

दुनियादारी संग रखो

या दुनिया को छोड़ दो

क्या हुआ जो रूठा वो
तुम ही नाता जोड़ दो.
___________

-मनोहर चमोली ‘मनु’
02 मई दोपहरोपरांत ़

29 अप्रैल 2012

कैसे जाना मेरा मन ..........

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देर रात तक जागा मन

क्यों कर भटका मेरा मन

तेरे दर पे जा पहुँचा

तनहाई से भागा मन

भीतर हौले से रखना

कोमल धागे जैसा मन

टिकता अब ये कहीं नहीं
जब से तुझसे लागा मन

याद किया तो हाज़िर तू
कैसे जाना मेरा मन

तुझसे मिलने की हसरत
कभी न चाहे नागा मन

--
-मनोहर चमोली ‘मनु’
30 अप्रैल 2012..सुबह-सवेरे।

कुछ तो नाम कमाया होता

--------
तू जो मेरा साया होता
मैंने भी कुछ पाया होता

वो शायर होता तो उसने

अपना शेर सुनाया होता

ख़ूब दुआएँ पाता गर मैं

किसी पेड़ का साया होता

मिलकर आता मैं गर उसने
अपना पता बताया होता

जो आया वो जाएगा पर
कुछ तो नाम कमाया होता

-----
-मनोहर चमोली ‘मनु’

29 अप्रैल 2012. गोधूलि की बेला में.

28 अप्रैल 2012

जीवन के हैं रंग अनेक.....



 खोया ही कम पाया जी
तब भी जीवन भाया जी

शाम ढले ही छिप जाए
मेरा अपना साया जी

आलस छोड़ो जग जाओ
सूरज भीतर आया जी

जीवन के हैं रंग अनेक
कहीं धूप तो छाया जी

तेरे इश्क का नगमा तो
खुलकर मैंने गाया जी

.............

-मनोहर चमोली ‘मनु’
-28 4. 2012. सुबह सवेरे में।

'एक नज़र में भा गए तुम'






       एक नज़र में भा गए तुम        
तन में आग लगा गए तुम

टिकट मिला संसद भी पहुँचे

पलक झपकते छा गए तुम

खुला रहा था दिल का द्वार

अंदर मेरे समा गए तुम

बने हुए थे हम तो ठूँठ
कोंपल लेकर आ गए तुम

‘मनु’ तो बेहद शरमीला है
उससे ही शरमा गए तुम

.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-27 4. 2012. सुबह सवेरे में।

'पसीना भी बहाया कर' ----

पसीना भी बहाया कर   
चार पैसे बचाया कर

ज़ख़्म गहरे भी हों चाहे

गीत ख़ुशी के गाया कर

नौकरी में ना नहीं पर

अपने घर भी आया कर

खा ले होटल में लेकिन
चूल्हा तो जलाया कर

दिन कड़वा बीता हो पर
मीठे ख़्वाब सजाया कर
.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-26 4. 2012. सुबह सवेरे में।

27 अप्रैल 2012

मुझको अगर कमाना होता


थोड़ा और सयाना होता
मुझको अगर कमाना होता

उसका कोई कद जो होता

उसके साथ ज़माना होता

मैं भी जे़ब में दरपन रखता

चेहरा जो सजाना होता

 
   मैं तो नदिया का पानी हूँ
सागर बनता ख़ारा होता

 
मैं फिर ग़ज़लें क्यों कहता जो
इश्क अगर छिपाना होता


.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-24. 4. 2012. गोधूलि की बेला में.


मैं ही उससे उलझूँ क्यों




खौले मेरा ही ख़ूँ क्यों
मैं ही उससे उलझूँ क्यों

नैया अपनी नाविक मैं
अपना भाड़ा मैं दूँ क्यों

मेरी जान का दुश्मन वो
फिर मैं उसको चाहूँ क्यों

वो आदत से रूखा है
इस पर इतना चाौकूँ क्यों

वो फासला रक्खे मुझसे
मैं  ही  हाथ  बढ़ाऊँ क्यों

.............

-मनोहर चमोली ‘मनु’
-24. 4. 2012. सुबह सवेरे.


घर का कोना-कोना रो गया


 
ऐसी बातें कह कर वो गया
घर का कोना-कोना रो गया

बीच हमारे अब नहीं है वो

बो के बीज वहम का वो गया

माँ च ौखट में खड़ी रही और

भूखा बिलख़ता बच्चा सो गया

दरपन भी रोया साथ मेरे
बाद उसके चूर वह हो गया

मैं तो सूखा पेड़ था अब तक
छुआ तूने तो हरा हो गया

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
-23. 4. 2012. सुबह सवेरे.
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