23 मई 2012

कुछ निशानियाँ दे जा।


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जाना है तो जा पर कुछ निशानियाँ दे जा।
अब बची ज़िंदगी के लिए उदासियाँ दे जा।।

दिल भी, धड़कन भी ले जा मगर।

ग़ज़लें लिखने को बस कुछ अँगुलियाँ दे जा।।

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
सुबह सवेरे,18 मई 2012.
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'पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी'.....

'पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी'


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ओह ! मेरे पिता !
ठीक कहा था आपने कई बार मुझे
बच्चे हो नहीं समझोगे
वाकई मैं नहीं समझ पाया वक्त रहते
जो आपने कई बार मुझे समझाया था
यह विडम्बना ही है कि मैं आज समझा
जब बरसों बीत गए आपको भूले हुए
मानो आप थे पिछले बरसों का कलेण्डर 

  आज जब बरसों हो गए मुझे पिता हुए
मेरा ही बेटा मुझसे कहता है कई बार
पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी
लगता है कि इतिहास खुद को बदल रहा है
ओह! मेरे पिता!
काश ! मैं भी पलट कर जवाब देता आपको
आपको अक्सर कहता कि तुम आउट डेटेड हो गए हो
कहता आपको कि मेरे कमरे मंे पूछ कर आया करो
मेरी भी अपनी लाइफ है,
डिस्टर्ब न करो, टेंशन न दो
ओह ! मेरे पिता!
मैं तो कभी देर शाम नहीं लौटा
कही भी गया तो रात घर ही लौटा
मैं हमेशा बच्चा ही रहा आपके लिए
हाँ मेरे पिता । मैं आज समझा हूँ
लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है
बहरहाल। आपके इस बेटे का बेटा बहुत समझदार है
वह सब कुछ समझता है
इतना समझदार है कि रात को तब लौटता है
जब रात भी सो चुकी होती है
वह कहीं जाता है तो कुछ नहीं बताता
शायद इसलिए कि मैं परेशान न हो जाऊँ
ओह ! मेरे पिता।
मैं आपको कभी नहीं समझ पाया
और ये पिता अपने बच्चे को कुछ समझा नहीं पाया
शायद तभी तो इस पिता का बेटा कहता है
पापा रहने दो। तुम नहीं समझोगे कभी।

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
गोधूलि की बेला में...19 मई 2012.

नमक साथ रखती है ये दुनिया.....


यूँ नज़रें फिराकर मिलेगा क्या
अपनों को गिराकर मिलेगा क्या

जो झूठ खरीदें बेचें उनको
कसमें भी दिलाकर मिलेगा क्या

जो बात बात पे रूठे उसको
यूँ सर पे बिठाकर मिलेगा क्या

जो फकीरों का फकीर हो उसे
सपने भी दिखाकर मिलेगा क्या

मैं कहीं भी गया लौटा तो, अब
भूलों को गिनाकर मिलेगा क्या

नमक साथ रखती है ये दुनिया
खुद के जख़्म दिखाकर मिलेगा क्या.
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-मनोहर चमोली ‘मनु’
11 मई 2012, सुबह-सवेरे 
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11 मई 2012

दबे पाँव तब आना भी

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चुप रहकर पछताना भी

ख़ुद से फिर टकराना भी

पैर पटक कर जाओगे

दबे पाँव तब आना भी

अगर,मगर,लेकिन ये सब

लगते हैं बचकाना भी

जैसे जिया सर उठाकर
ऐसे ही मर जाना भी

जीवन की रेल पेल में
कभी याद तो आना भी
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-मनोहर चमोली ‘मनु’
डायरी से- 10.10.2010

9 मई 2012

कैसे रात गुजारी है....


 तुझसे कैसी यारी है
सबको लगती भारी है

दाना पानी बस हुआ
अब अपनी तैयारी है

कैसे अब बतलाऊँ मैं
कैसे रात गुजारी है

पीछे से है वार किया
ये कैसी दिलदारी है

मेरा है तो आ भी जा
फिर क्यों परदादारी है

वो भी रूठ गया अब तो
कैसी दुनियादारी है

क्या पछताना अब मैंने
जीती बाज़ी हारी है

न जाऊँगा बिन बुलाए
मेरी भी खुद्दारी है

-मनोहर चमोली ‘मनु’
  डायरी से...13 मई 2010


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6 मई 2012

'औरत की भाषा'______

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'औरत की भाषा'

औरत की अपनी भाषा होती है
जो गाती है संगीत के साथ
चुपचाप मौन और उदास
वो राग अलापती है जिंदगी के
उसके गीतों में लय है माटी की
जो सने और गढ़े जाते हैं
सुबह सवेरे से देर रात तलक के कामों के साथ
वो रात को सोते हुए भी बुनती है नये गीत
जो होते हैं हमारे और तुम्हारे लिए,
आने वाली पीढ़ी के लिए
उसके सीने में बजती है वीणा
जिसके तारों की झनकार आनंदित करती है
औरत सबके लिए गाती है गीत
अमन के,खुशहाली के
उम्मीद और आशाओं के
औरत गाती है गीत सबके लिए
मगर कभी नहीं देखा उसे
गीत गाते हुए अपने लिए।
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डायरी से: सितंबर, 2006 विश्व साक्षरता दिवस पर

-मनोहर चमोली ‘मनु’
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मां सगी या पत्नी


मां सगी या पत्नी
अखिल और अमन दो भाई हैं। अखिल तो सालों से शहर में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहता है। अमन माता-पिता के साथ छोटे से कस्बे में। माता-पिता का जब मन करता तो वे अखिल के साथ रहने चले जाते हैं। लेकिन अमन की शादी के बाद परिस्थितियां बदल गईं। अमन की पत्नी अलका पढ़ी-लिखी है। महानगर में पली-बढ़ी अल्का ने जल्दी ही घर की स्थितियों-परिस्थितियों को जान लिया। वह उनमें आवश्यक सुधार भी करने लगी। अलका की सास को लगा कि अब उसका महत्व खत्म होता जा रहा है और बहू अनावश्यक घर के तौर-तरीकों,मान्यताओं-परंपराओं में बदलाव कर रही है। सास नाराज होकर कुछ दिनों के लिए बड़े बेटे अखिल के पास शहर चली गई। जब लौटी तो देखा कि घर की काया ही बदल बदल गई है।
अब तक अस्त-व्यस्त रहे कमरों की मरम्मत हो चुकी थी। पानी की टंकी के साथ-साथ रसोई में कुछ नया सामान आ चुका था। परदों के साथ-साथ चटाईयांे ने पुराने मकान की दीवारों को छिपा-सा लिया था। रंग-रोगन से मानो जैसे बीमार मकान सेहतमंद हो गया था। अलका की सास ने महसूस किया कि अब अमन और उसके पिता हर छोटी-मोटी चीजों-इच्छाओं पर अलका को ही पुकारते। यह सब देखकर अलका की सास बिफर पड़ी और अमन से दो-टूक शब्दों में कह डाला-‘‘आज तू फैसला कर ही दे। तेरे लिए तेरी मां सगी है या पत्नी?’’
अमन की स्थिति काटो तो खून नहीं जैसी हो गई। वह सन्न रह गया। उसकी समझ में ही नहीं आया कि मां के सवाल का वो क्या जवाब दे। घर का हर कोई सदस्य इस मुद्दे पर अपने-अपने ढंग से सोच रहा था। हर कोई मां और पत्नी के रिश्तों के महत्व को खगाल रहा था।
यह पहली बार नहीं हुआ है कि किसी मां ने अपने बेटे से ये सवाल किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी में ये प्रश्न बहुधा परिवारों में तेजी से उठ रहा है। कहीं पर सास-बहू के आपसी मतभेदों के कारण तो कहीं शादी होते ही बेटे का अलग से चूल्हा करने की मांग पर। इसके अलावा भी कई कारण हैं जब ये प्रश्न विभिन्न दृष्टिकोण से और परिस्थितियों के कारण समसामयिक-सा बन पड़ा है। आइए देखते हैं कि विभिन्न वर्गों और व्यवसायों में काम कर रहे महिला पुरुष इस मुद्दे पर क्या कहते हैं। 
मां ही सगी है
व्यावसायिक संस्थान की प्रमुख रीता दहिया इस मुद्दे पर सवाल उठाते हुए कहती हैं,‘‘माॅ में बुराईयां खोजने वाले बेटे को सोचना होगा कि मां तो मां है और उसकी कोख से ही उसने जन्म लिया है। यदि मां ही जन्म न दे तो पत्नी की वकालत करने वाले पति का अस्तित्व ही कहां होगा। क्या ये एक बेटे को शोभा देता है कि वो मां को छोड़कर पत्नी को सगी कहे?’’ वहीं एक शिक्षण संस्थान में कला शिक्षा के अनुदेशक रामनिवास इस बहस को ही खारिज करते हुए कहते हैं,‘‘ये मूर्खतापूर्ण बहस है। मां का दर्जा कोई ले ही नहीं सकता। मां की तुलना सिर्फ मां से ही हो सकती है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही इस तरह की बचकाना बहस पर विराम लग सकता है। बहू-सास के बीच सगेपन खोजने की वजह और कुछ नहीं पुरुष मानसिकता का ही परिचायक है। स्पष्ट है कि महिलाएं रिश्तों में उलझ जाए,बस और कुछ नहीं।’’ वहीं कंप्यूटर के क्षेत्र में निजी संस्थान चलाने वाली युवा गुल्मी कहती है,-‘‘आज सास हो या बहू। अधिकतरर कामकाजी हैं। गृहिणियां भी समझ चुकी हैं कि ये अर्थहीन बातें हैं और इनमें उलझने से रिश्तों में खटास ही आएगी। आज किसके पास समय है कि वे इस बात को मुद्दा मानें और रिश्तों में बेवजह खटास लाएं। हां लेकिन मां इस दुनिया के सभी रिश्तों में सबसे मजबूत कड़ी है।’’
नवविवाहिता सुरजी विज्ञान में परास्नातक है। वे कहती हैं-‘‘पारिवारिक ताने-बाने बेहद विस्तार लिए हुए होते हैं। लेकिन संकीर्णता से देखेंगे तो हर रिश्ता स्वार्थ से भरा नजर आएगा। मुझे लगता है कि ये एक ही छत के नीचे दो रिश्तों को नहीं दो महिलाओं को स्वामित्व के लिए लड़ाना भर है। मैं खुद अपनी मां को छोड़कर ससुराल आई हूं। मेरे पति की मां है। मैं कल स्वयं मां बनूंगी। फिर मैं कैसे कह दूं कि पत्नी सगी है और मां नहीं। समाज को दिशा देनी हो तो बहस ये हो सकती है कि एक ही छत के नीचे रहने वाली सास बहू में सामंजस्य कैसे हो कि परिवार,पड़ोस और समाज का विकास हो।’’
पत्नी है सगी
होम्योपैथ चिकित्सक श्रीधर शर्मा मानते हैं कि मां धात्री है। मां अपने पुत्र का विवाह कर उसके अंश को तीसरी पीढ़ी में देखना चाहती है। पत्नी ही उसके अंश को धारण करेगी। सो पत्नी सगी है। मां का स्थान पावन है और रहेगा। लेकिन एक उम्र के बाद मां की भूमिका से बड़ी पत्नी की भूमिका हो जाती है। पुत्र की शादी के बाद मां वो सब नहीं कर पाती जो पत्नी करती है। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा हो जाता है, वैसे वैसे मां से दूरिया बढ़ने लगती हैं। एक पत्नी ही है जिससे पुरुष सब कुछ साझा कर सकता है। डाॅ0 शर्मा की राय में एक शादीशुदा पुरुष के लिए उसकी पत्नी से सगा कोई नहीं होता। वहीं सामाजिक संस्था से जुड़े और बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय गणेश खुकसाल कहते हैं,‘‘पत्नी के रूप में पराई लड़की अपने सगे-सम्बंधियों को छोड़कर पति के लिए जिंदगी भर का साथ निभाने के लिए आती है। पूरे परिवार की जरूरत बन जाती है। उसका अधिकार सास से ज्यादा हो जाता है और वह ज्यादा सगी बन जाती है। शादी के बाद बेटे का अपना परिवार भी तो है। उसकी पत्नी भी तो मां के रूप में नए रिश्ते को जन्म देने वाली है। मेरे विचार से पत्नी का अधिकार मां से अधिक हो जाता है।’’
वयोवृद्ध सेवानिवृत्त शिक्षिका कुसुम नेगी मानती है,‘‘अब वो समय गया जब सास का वर्चस्व रसोई से लेकर घर के सारे छोटे-बड़े कामों में हुआ करता था। आज तो पत्नी ही सगी है। इसके कई कारण है। एक तो देर से विवाह हो रहे हैं। तब तक मां प्रौढ़ हो जा रही है। बहू आते ही रसोई भी संभाल रही है और बाहर के काम भी देख रही है। समझदार मां इस सच्चाई को स्वीकार कर रही हैं कि उससे ज्यादा घर-परिवार में बहू सबकी सगी है। मां यह भी समझ रही है कि शेष जिंदगी बहू ही परिवार को उससे बेहतर संभालेगी। आज के भागदौड़ के जीवन के जीवन में तो पति भी पत्नी को अपने से अधिक महत्व परिवार में दे रहा है।’’ होटल मेनेजमेंट की छात्रा किरन संकोच में जवाब देती है। वह कहती है-‘‘ये सवाल दन्द्ध से भरा है। विसंगति के संसार में हर बात स्पष्ट कहना जोखिम भरा भी है। लेकिन पत्नी ही सगी है। एक तो मां भी पत्नी के रूप में अपना जीवन जी चुकी है। सो उसे अपने सगे होने का प्रमाण पत्र क्यों चाहिए। दूसरा पत्नी को कल मां बनना है। उससे ज्यादा सगी उसके बच्चों की बहूएं भी तो हो जाएंगी तो दुविधा किस बात की। घर-रसोई की सत्ता जिसके पास है वही ज्यादा सगी हुई। कुल मिलाकर बहू को ज्यादा तरजीह मिलनी ही चाहिए।’’
ब्यूटी पार्लर चला रही नीतू पहले तो इस प्रश्न पर चैंकती है। विचार करती हुई मुस्कराते हुए कहती है,‘‘भावनाओं को एक तरफ रखें तो पत्नी का पलड़ा भारी लगता है मुझे। हम औरतों के लिए कई रिश्ते उलझनों भरे होते हैं। फिर भी कैसी ही परिस्थितियां क्यों न हो। पत्नी का पक्ष ही लेना मुझे ठीक लगता है। मां है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि जीवन के सच से मुंह मोड़ ले। यदि पत्नी के रिश्ते की अहमियत न थी तो क्यों ब्याह कर लाते है एक पराई लड़की को? यही वजह है कि ब्याह कर लाने वाली लड़की सबसे सगी होने वाली है अपने पति की।’’
दोनों हैं सगे
मां सगी है या पत्नी? इस प्रश्न के जवाब में कुछ ने मां को सगी बताया तो कुछ ने पत्नी को। लेकिन कुछ अपने अनुभवों के आधार पर इस प्रश्न को ही आधारहीन और मूर्खतापूर्ण मानते हैं। कुछ को यह प्रश्न ही निराशा से भरा हुआ लगता है। कुछ सकारात्मक जवाब भी मिले।
भारत इलेक्ट्राॅनिक्स लिमिटेड में कार्यालय अधीक्षक माधुरी रावत कहती हैं-‘‘मां और पत्नी दोनों ही अहम् हैं। मां ही है जो संतान का जीवन संवारने में तभी से जुट जाती है, जब उसे दुनियादारी का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। उसी संतान के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कोई युवती पत्नी बनकर संतान के जीवन में आती है। मां ही है जो अपने बेटों को निखारती है। वहीं पत्नी की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों में पत्नी ही है जो पति के साथ होती है। पति का संबंल बनाए रखती है। परंतु कई बार पति पर पूर्ण अधिकार की आकांक्षा मां-बेटे के रिश्ते में कड़वाहट भी घोल सकती है। कई बार मां भी अपने पुत्र को अपने हिस्से में पहले से कम पाकर परेशान हो जाती है। पत्नी यदि थोड़ी सी समझदारी से काम ले और सामंजस्य बनाये तो कभी यह सवाल घर में उठता ही नहीं कि कौन सगी है कौन परायी। हर रिश्ते का जीवन में स्थान नियत है। कोई रिश्ता किसी दूसरे रिश्ते की जगह ले ही नहीं सकता। मेरा वैवाहिक जीवन तो यही आभास कराता है कि आज मेरी सासजी के लिए मैं उनकी सगी बेटियों से भी बढ़कर हूॅं।‘’
विद्युत विभाग में लेखाधिकारी सुनीता मोहन बताती हैं-‘‘एक मां होने के नाते, मेरे दृष्टिकोण से माँ के रिष्ते की तुलना किसी भी रिश्ते के साथ नहीं की जा सकती। सन्तान के साथ उसका सम्बन्ध नैसर्गिक, अतुलनीय और जन्मजात होता है। एक मां अपनी संतान के सभी गुण-दोष को कमोबेश स्वीकार कर लेती है। किन्तु यह मैं कैसे भूल सकती हूं कि पत्नी बनने की प्रक्रिया भी स्त्री के त्याग से शुरु होती है। एक युवती जो सब कुछ छोड़कर पति के घर-संसार में न जाने कितनी ही बार स्वयं से द्वन्द करती है। अपवादों को छोड ़दें तो, उम्र के हर उस पड़ाव पर जहां व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक कारणों से सर्वाधिक मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है, तब वहां पत्नी ही उसका संबल बनती है। इसलिए कहना न होगा कि, जीवन चक्र में पहले माँ और फिर पत्नी दोनो ही समय के हिसाब से अपनी-अपनी जगह ‘सगे’ हैं, दोनों का घर-परिवार में आमरण महत्व होता है। मैंने तो हमेशा सासुजी को मान दिया। सम्मान दिया। बहुत हुआ तो मौन हो गई लेकिन कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि पति महत्वपूर्ण है,मां नहीं।’’
‘प्ले ग्रुप’ स्कूल की प्रधानाचार्या आनंदी रावत का मानना है कि रिश्तों का रसायन जटिल होता है। इनको मिलाने में समझदारी-सूझ-बूझ और धैर्य की आवश्यकता होती है। मां और पत्नी में किसी भी प्रकार की तनातनी, मनमुटाव, खिंचवा या दूरी न बनने पाए,इसके लिए पति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। रिश्ते बोझ न बनें इसके लिए पत्नी को भी सासुमां की बात को नसीहत के रूप में लेना चाहिए। मेरी सासु तो जानती है कि वे दो पीढ़ी पीछे है। लेकिन मैं हर समय इस बात का ख्याल रखती हूं कि उनकी सलाह और दिशा-निर्देश आज भी परिवार के लिए खास है। बस। एक बात और है कि मैं एक बात हमेशा याद रखती हूं कि मैं पहले बेटी थी, फिर पत्नी बनी और अब मां भी हूं। कल मुझे सास का दायित्व भी मिलेगा। फिर भी ये बात हजम नहीं होती कि मां के समक्ष पत्नी कुछ नहीं है। दोनों एक-दूसरे के सहायक हो सकते हैं।’’ 
एक मूक-बधिर संस्थान में सलाहकार रेणूका ध्यानी मयूर विहार दिल्ली निवासी है। वे बताती हैं कि मां स्वप्निल संसार है। पत्नी उस स्वप्निल संसार में अपने सपने पूरे करने को लालायित रहती है। दोनों ही मुख्य भूमिका निभाती हैं। दोनों के विचारों में भिन्नता होती है। पीढ़ी का अंतर भी दोनों का पलड़ा एक समान नहीं होने देता। मां जहां अतुलनीय है वहीं पत्नी अनमोल भी है। दोनों को सगे या पराये के पलड़े में नहीं रखा जा सकता। दोनों का कोई तोल हो ही नहीं सकता। हां कई बार अपवादस्वरूप अहम् का द्वन्द्व न हो तो पति के लिए मुश्किल हो जाता है कि खुद को किस प्रकार बांटे कि न पत्नी ही नाराज हो न मां।  वहीं कुछ पुरुष भी इस सवाल पर दोनों रिश्तों को महत्वपूर्ण बताते हैं।
व्हीं पत्रकार सुनील कुमार का भी कहना है कि मां और पत्नी दोनों ही सगी हैं। ये औरत को औरत के खिलाफ खड़ा करने वाला प्रश्न है। घर में दोनों की अपनी भूमिका है। सास भी कभी बहू थी और बहू भी कभी सास होगी। इसमें एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए गैरजरूरी बहस पर विराम लगना चाहिए। वकील सुनीता पाण्डे कहती हैं कि ये अधिकार का मामला नहीं है। न ही कोई अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रहा है। ये ओर बात है कि नारियों के रिश्तों की ही तुलना की जाती है। क्या प्रश्न ये नहीं उठाया जा सकता कि घर में कौन बड़ा है? ससुर या पुत्र? सुधार की गुंजाइश क्या परिवार में महिला विशेष के रिश्तों में ही होती है? दोनों अपनी अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। दोनों ही परिवार की मुख्य धुरी का हिस्सा हैं।
रंगकर्मी मनोज दुर्बी कहते हैं,‘‘इस प्रश्न को सगे-संबंधों में नहीं लिया जाना चाहिए। ये परिस्थितियों और देशकाल के स्तर पर अलग अलग हो सकता है। लेकिन मां हो या पत्नी। पुरुष को सामंजस्य तो बिठाना ही होगा। दोनों को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। हां यदि मां या पत्नी गलती पर है तो निष्पक्ष होकर सही की ओर से वकालत करना पुरुष का दायित्व बन जाता है। प्रतिष्ठा से जोड़कर देखना ठीक न होगा। मां और पत्नी के संबंधों पर विवादास्पद प्रश्न उठाकर पुरुष मानसिकता की बू आना स्वाभाविक है। पुरुष आज भी पितृात्मक सत्ता को बनाये और बचाये रखने के प्रयास में लगा है।’’
सार संक्षेप में कहा जाना उचित होगा कि हर परिवार में मां की और पत्नी की स्थिति जुदा-जुदा हो सकती है। सूचना तकनीक के इस युग में जब दुनिया एक गांव हो गई है तो पत्नी और मां के संबंध भी वैश्विक हो गए हैं। हमें बिना किसी अहंकार के इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि परिवार के विकास में दोनों की अपनी महत्ता है। दोनों रिश्ते परिवार को सशक्त और स्वस्थ बनाने में साझी भूमिका निभा सकते हैं। मां को चाहिए कि बहू को बेटी का दर्जा दे और अपने सारे अनुभवों को उसके साथ मित्रवत साझा करे। बहू को चाहिए कि वो अपनी सास को मां के समान समझे और यह महसूस करे कि उसका पति पहले उसकी सास का पुत्र है। सम्मान देते हुए और हौले से सास को मार्गदर्शक के रूप में देखे तो ये प्रश्न कभी उठेगा ही नहीं कि बोलिए मां सगी है या पत्नी? आपकी क्या राय है? 
- मनोहर चमोली  ‘मनु’. पोस्ट बाॅ0-23 पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल 246001. मोबाइल-09412158688

4 मई 2012

औरत में औरत का होना.......


ताकि........
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आसान नहीं होता
औरत में औरत का होना
औरत होना एक लैंगिक पहचान नहीं
एक वृहद अनुभव है
ग्रन्थ है जीवन का
औरत में औरत का होना
आसान नहीं होता
औरत का खुद से लड़ना
औरत के अस्तित्व के लिए,
अस्मिता के लिए
आसान नहीं होता
औरत का लड़ना परिवार से,
पड़ोस से और इस समाज से
आसान नहीं होता
लड़ने की आदत को बनाए रखना
जूझते रहने की कुव्वत को बचाए रखना
खुद से लड़ना और लड़कर जीतना
परिवार से,पड़ोस से, इस समाज से
ऐसी लड़ाई जो उसने लड़ी है अनवरत्
वह सदियों से लड़ती आई है
अपने लिए,अपनो के लिए,
पड़ोस के लिए और समाज के लिए
औरत को औरत होना ही होगा
ताकि ये समूची सृष्टि बची रहे
आएगा वो दिन भी जब
औरत उठाएंगी मशाल
वे होंगी आगे और सबसे आगे
और ये दुनिया उसके पीछे चलेगी
खुद को बचाने के लिए।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’
(डायरी से- मार्च 2004)

3 मई 2012

जो कहते हो वो किया तो करो....

जो कहते हो वो किया तो करो
कड़वा ये मिजाज पिया तो करो

मुकाबला कल का कल ही करना
आज को बस ज़रा जिया तो करो

सुबह से शाम तक कहीं भी रहो
रात को कहीं पर ठिया तो करो

नदी के पत्थर ने नदी से कहा
कभी हमें निहार लिया तो करो

तन्हाई तुम्हें खा न जाए कहीं
बंद घड़ी का सेल नया तो करो
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मनोहर चमोली ‘मनु’.

वो अपना सा लगता है.....

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उसका आना खलता है
मुझको भी वो खटता है

बहार आने से पहले
पुराना पत्ता गिरता है

वो मेरा नहीं है मगर
मेरी चरचा करता है

मुझको कौन बुलाता है
जी क्यों मिरा मचलता है

दुनिया गैर सही यारों
वो अपना सा लगता है.

सोना तब निखरे है जब
भट्टी में वो तपता है

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मनोहर चमोली ‘मनु’.

3 मई 2012.गोधूलि की बेला में।

या दुनिया को छोड़ दो....

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अपने अहं को तोड़ दो

या फिर हमको छोड़ दो

अहंकार गुब्बारा है न

नहीं फुलाओ फोड़ दो

दुनियादारी संग रखो

या दुनिया को छोड़ दो

क्या हुआ जो रूठा वो
तुम ही नाता जोड़ दो.
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-मनोहर चमोली ‘मनु’
02 मई दोपहरोपरांत ़