29 सित॰ 2012

नंदन, अक्तूबर 2012. बाल कहानी : 'बीस रुपए के लिए'

बीस रुपए के लिए

-मनोहर चमोली ‘मनु’

 

स कंडक्टर चिल्लाया-‘‘टिकट ले लो भई। और कोई बगैर टिकट?’’
‘‘हां इधर पीछे। दो टिकट।’’ रोहित के पापा ने कहा।
कंडक्टर ने पीछे घूमकर देखा। बुरा-सा मुंह बनाते हुए वह अपनी सीट से उठा और धक्का-मुक्की करता हुआ बस के पीछे की सीटों तक जा पहुंचा। चिढ़ते हुए बोला-‘‘टिकट नहीं लिया? मैं कब से चिल्ला रहा हूं।’’
रोहित के पिताजी ने कहा-‘‘ढाई टिकट दे दो। एक तो बस में सवारी ठूंस कर भरी हैं। बीच में सवारियों का सामान भी है। कैसे लेता। वैसे भी सवारियों तक आपको आना चाहिए। सवारियां अपनी सीट छोड़कर आपकी सीट पर कैसे आए।’’
कंडक्टर भन्ना गया। घूरते हुए बोला-‘‘ढाई टिकट क्यों। इस बच्चे का पूरा टिकट नहीं लोगे? अरे बच्चे! तेरी उम्र क्या है?’’
रोहित के पिता ने झट से जवाब दिया-‘‘इसका नाम रोहित है। इसकी उम्र सात साल है।’’
कंडक्टर ने रोहित को गौर से देखा। फिर बोला-‘‘इस बच्चे के मुंह में जबान नहीं है क्या? कम से कम बच्चे के लिए झूठ तो मत बोलो। इस बच्चे की उम्र तो ग्यारह साल के आस-पास लग रही है। क्यों बच्चे। कितने साल का है तू?’’
अब रोहित की मम्मी बोल पड़ी-‘‘भाई साहब। कहा न आपसे। हमारे रोहित की उम्र सात साल है। हम भला क्यों झूठ बोलेंगे। हमारे ढाई टिकट ही बनते हैं। ये लो । ढाई टिकट के सौ रुपये।’’
कंडक्टर ने गरदन झटकते हुए कहा-‘‘क्या जमाना आ गया है। आधे टिकट का किराया बचाने के लिए झूठ पर झूठ बोला जा रहा है। चाहो तो ये सौ रुपये भी रहने दो।’’
रोहित के पिताजी को गुस्सा आ गया। बोले-‘‘क्यों रहने दो। बच्चे का आधा टिकट लगता है। फिर हम क्यों पूरा टिकट लें?’’
कंडक्टर तो जैसे बहस ही करना चाहता था-‘‘कोई बात नहीं भाई साहब। तीन टिकट नहीं आप ढाई ही लीजिए। लेकिन बीस रुपए के लिए कम से कम इस बच्चे को इतना छोटा तो न बनाइए। किसी से भी पूछ लीजिए। ये दस साल से अधिक का बच्चा है। आप भी क्या। उसे घर से सिखा कर ले आये कि चुप ही रहना। जबान न खोलना। देखो तो कैसा चुप्पी साधे बैठा है। इसे बताना चाहिए कि इसकी उम्र क्या है।’’
रोहित ने अपनी जेब से स्कूल का पहचान पत्र निकालते हुए अपनी मम्मी को दे दिया। रोहित की मम्मी ने कहा-‘‘एक मिनट भाई साहब। ये लो। हमारे रोहित का पहचान पत्र। इसमें इसकी क्लास भी लिखी है और इसकी जन्म तिथि भी है।’’
कंडक्टर ने रोहित का पहचान पत्र देखा और उस पर रोहित की चस्पा फोटो को भी गौर से देखा। फिर हिचकते हुए बोला-‘‘इस कार्ड के हिसाब से तो रोहित सात साल का ही है। लेकिन कद-काठी से ये काफी बड़ा दिखाई दे रहा है।’’
तभी रोहित दोनों हाथों के इशारे से और अपने चेहरे के हाव-भाव से अपनी मम्मी को कुछ जताने की कोशिश करने लगा। रोहित की मम्मी ने कंडक्टर से कहा-‘‘भाई साहब। रोहित आप से पूछ रहा कि आपके कितने बच्चे हैं।’’
रोहित ने हाथों के इशारे से फिर कुछ कहने की कोशिश की। अब रोहित के पापा ने कंडक्टर से कहा-‘‘ रोहित पूछ रहा है कि यदि कंडक्टर अंकल के बच्चों के सामने कंडक्टर अंकल को कोई झूठा कहे तो आपको कैसा लगेगा।’’
कंडक्टर बुरी तरह झेंप गया। रोहित के पापा बोले-‘‘भाई साहब। रोहित हमारा इकलौता बच्चा है। ये मूक-बधिर है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ये बोल नहीं सकता तो कुछ समझता भी नहीं होगा। और हां। हम दोनों अच्छा कमा लेते हैं। कम से कम बीस रुपये के लिए हम अपने बच्चे के सामने झूठ नहीं बोलना चाहेंगे।’’
पास की सीट पर बैठी एक नन्ही बच्ची बोल पड़ी-‘‘कंडक्टर अंकल। आपने गलत बात की है। हम सब सुन रहे थे। आपको रोहित से भी और रोहित के मम्मी-पापा से भी माफी मांगनी चाहिए।‘’
कंडक्टर बगले झांकने लगा। उसने एक पल की देरी भी नहीं की और माफी मांगकर अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।

14 सित॰ 2012

‘आधा अधनंगा देश शर्मिन्दा है’ ...कविता


‘आधा अधनंगा देश शर्मिन्दा है’

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अहा! मेरा देश!
कबीर के करघे का देश
गांधी के चरखे का देश
ये अगुवा थे मेरे देश के तब
हाय ! मेरा देश
तीन-चैथाई अधनंगा था जब!
कबीर-गांधी शर्मिन्दा थे

यकीनन तभी वे भी अंधनंगे थे
ओह ! आज मेरा देश !
नेताओं का देश
ठेकदारों का देश
कमीशन का देश
रिश्वत का देश
बन्दरबाँटों का देश
छि ! देश अब भी आधा अधनंगा है
और अन्य आधों के अगुवा
बेशकीमती कपड़े ऐसे उतारते हैं
जैसे भूखा बार-बार थूक घूँटता है
इन अगड़ों की आँखों में
बँधी है पट्टी बेशर्मी की
लेकिन आधा अधनंगा देश
इन्हें देख कर शर्मिन्दा है।
मैं भी।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’

13 सित॰ 2012

'एक खेत सास बहू का' -मनोहर चमोली ‘मनु’. बालहंस, अगस्त, पार्ट- 2. 2012

एक खेत सास बहू का
-मनोहर चमोली ‘मनु’

बहुत पुरानी बात है। किसी गांव के एक परिवार में दो ही प्राणी थे। सास और बहू। अधिकतर परिवार खेती-किसानी पर ही निर्भर थे। सास-बहू के पास खेती करने के लिए एक ही खेत था। दोनों ने मिलकर किसी तरह धान तो बो दिये थे। अब खेतों में खरपतवार हटाने का समय आ गया था। गांव में सपरिवार सभी गुड़ाई में जुटे हुए थे। सास खेत का मुआयना कर आई थी। उसने बहू से कहा-‘‘बहू। शाम ढलने को है। जल्दी से खाना बना ले। खा-पीकर दो घड़ी नींद ले लेते हैं। हम दोनों भोर होने से पहले ही उठ जायेंगे और अंधेरे में ही खेत की गुड़ाई शुरू कर देंगे।’’
बहू ने कहा-‘‘ठीक है। कलेवा लेकर ही खेत में जायेंगे। कलेवा तभी करेंगे, जब खेत की गुड़ाई पूरी कर लेंगे।’’ सास मुस्कराई-‘‘मैं भी यही सोच रही थी। ऐसा करेंगे, सुबह का कलेवा खेत के बीचांे-बीच रख देंगे। तू खेत के एक छोर से और मैं दूसरे छोर से गुड़ाई शुरू कर दूंगी। गुड़ाई करते-करते ही हम कलेवे की टोकरी तक आ ही जायेंगे। एक तो काम भी निपट जायेगा और भूख लगने के बाद कलेवा भी अच्छा लगेगा।’’
बहू खुश होते हुए बोली-‘‘ठीक है। कलेवे की पोटली देख-देख कर गुड़ाई में भी मन लगा रहेगा।’’ दोनों ने झट-पट खाना बनाया। आधा पेट खाया। काम निपटाया और सो गये। थकी-मांदी बहू की तो आंख लग गई। लेकिन सास ने कुछ पल आंखों ही आंखों में काट दिये। उसे खेत की गुड़ाई की चिंता लगी हुई थी। गुड़ाई में बेहद समय लगता है। सास यही सोच रही थी। वह रात के अंधेरे में ही उठी। सुबह के लिए नाश्ता बनाया। उसे कपड़े की एक पोटली में बांधा और बहू को भी जगा दिया। दोनों रात के अंधेरे में ही छोटी-छोटी कुदाल लेकर खेत पर जा पहुंचे।
चांदनी रात ने उनका काम सरल कर दिया। नाश्ते की पोटली खेत के बीचों-बीच रख दी गई। खेत के एक छोर से सास और दूसरे छोर से बहू ने गुड़ाई शुरू कर दी। दोनों का मुंह आमने-सामने था। बिना रुके-थके और भूखे-प्यासे वे कभी एक-दूसरे को देखते तो कभी नाश्ते की पोटली को देखते। पोटली अभी उन दोनों से काफी दूर थी।
बहू ने गुड़ाई करते-करते ही जोर से आवाज लगाते हुए पूछा-‘‘पता नहीं भोर कब होगी। क्या बजा होगा?’’ सास ने प्यार से डपटते हुए जवाब दिया-‘‘भोर तो अपने समय में ही होगी। बातें करेंगे तो काम न होगा। चुपचाप गुड़ाई करते हैं।’’ दोनों के हाथ तेजी से चलने लगे। कभी बांये हाथ से तो कभी दांये हाथ से वे कुदाल बदलते और गुड़ाई करते जाते। कई घंटों बाद भोर होने का आभास हुआ। पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी। क्षितिज की लालिमा से खेत सुनहरा-सा दिखाई दे रहा था। लेकिन दोनों थीं कि दम साधे गुड़ाई में व्यस्त थीं।
कभी सास तो कभी बहू खेत के बीचों-बीच रखे नाश्ते की पोटली को एक नजर देख लेती और फिर फुर्ती से हाथ चलाने लगती। धान की नन्हीं फसल के साथ उग आये खरपतवार को हटाते-हटाते उनकी अंगुलियों के जोड़ों में अजीब सा दर्द होने लगा था।
सुबह के सूर्य की पहली किरण सुनहरी थी। नन्हें पौधों में ठहरी हुई ओस अब सोने के मोती की तरह उन्हें दिखाई दे रही थी। लेकिन यह समय तो खेत की गुड़ाई पूरी करने का था। भूख को शांत करने के लिए रखी गई पोटली तक पहुंचना भी एक लक्ष्य था। दोनों एक-दूसरे को देखती और मन ही मन अपने पीछे की गई गुड़ाई की तुलना भी करती। फिर तेजी से गुड़ाई में तल्लीन हो जाती।
रात बहुत पहले ढल चुकी थी। भोर हुए काफी समय बीत चुका था। बहू ने हिचकते हुए पूछा-‘‘कलेवा कब करेंगे?’’ सास ने लंबी सांस लेते हुए जवाब दिया-‘‘भूख मुझे भी लग रही है। लेकिन कलेवा करेंगे तो फिर काम न होगा।’’ बहू ने माथे का पसीना पोछा और काम पर जुट गई।
दोपहर होने को थी। सास-बहू थक कर चूर हो गई। भूख के मारे उनकी आंतें घूमने लगी थीं। होंठ सूख चुके थे। बहू का धैर्य जवाब दे गया। उसकी अंगुलियां सूज गईं। उसने एक बार सास की ओर देखा। सास ने ढाढस बंधाया-‘‘मेरी बच्ची। मैं भी थक गई हूं। बस थोड़ा ओर सब्र कर। देख। कलेवा सामने ही तो रखा है। हम कलेवे की पोटली के काफी नजदीक हैं।’’
बहू के साथ-साथ सास का गला सूख गया था। वहीं माथे का पसीना लगातार टपक रहा था। सूरज सिर पर चढ़ा जा रहा था। तेज धूप से दोनों की पीठ जल रही थी। हाथों से कुदाल बार-बार छूट रही थी। खेत की गुड़ाई पूरी करनी है। नाश्ता गुड़ाई के बाद ही होगा। दोनों इसी संकल्प को बार-बार याद कर रहे थे। गुड़ाई के लिए उनके हाथ बार-बार मंद पड़ने लगे थे।
दोपहर बीत गई। लेकिन खेत की गुड़ाई का काम था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब सास थकान के मारे निढाल हुई जा रही थी। बहू ने देखा तो हौसला दिया। वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई-‘‘बस थोड़ी सी कसर ओर बाकी है। हम कलेवे की पोटली छूने ही वाले हैं।’’
सास-बहू फिर से गुड़ाई में जुट गये। सांझ ढलने को थी। दोनों कलेवे की पोटली के बेहद नजदीक आ पहुंची। उन्होंने पोटली को छू ही लिया। पोटली को हाथ लगाते ही सास-बहू अपने स्थान पर ही लुढक गई। बेहद भूख-प्यास और थकान के चलते दोनों की सांस उखड़ गई।
सास-बहू का खेत आज भी उसी गांव में मौजूद है। 000 ..........................................................................
कुमाऊं की लोक कथा.............................................उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में जनपद बागेश्वर के गांव बिनौलासेरा में एक खेत ‘सास-बहू का खेत‘ के नाम से प्रसिद्ध है। खेत के बीच में एक छोटा सा टीला है। कहते हैं कि उसी जगह पर सास-बहू ने कलेवा (नाश्ता) रख कर गुड़ाई शुरू की थी और गुड़ाई खत्म करते-करते वह चल बसी थीं।
-मनोहर चमोली ‘मनु’, भितांई, पोस्ट बाॅक्स-23, पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल.246001. उत्तराखण्ड. मोबाइल-09412158688.

बाल कहानी-'इन्द्रधनुष'. चंपक, सितंबर- प्रथम अंक, 2012.



 बाल कहानी----
'इन्द्रधनुष'-मनोहर चमोली ‘मनु’
जंबो हाथी ने आवाज लगाई-‘‘अरे चूंचूं बाहर तो निकल। देख इंद्रधनुष निकल आया है ! कितना सुंदर कितना प्यारा!’’
चूंचूं चूहा पलक झपकते ही बाहर निकल आया। आसमान में सतरंगी इन्द्रधनुष को देखकर चूंचूं खुशी से चिल्ला उठा-‘‘वाह ! हाथी दादा। क्या बात है ! काश! मैं भी तुम्हारी तरह लंबी-चैड़ी काठी वाला होता तो एकझटके में तुम्हारे गाल चूम लेता।’’

जंबो हाथी ने हवा में सूंड हिलाते हुए कहा-‘‘इसमें कौन सी मुश्किल है। ये लो। अपनी इच्छा पूरी करो। मेरी ये बीस फुट की सूंड कब काम आएगी।’’ जंबो हाथी ने दूसरे ही क्षण चूंचूं को सूंड से उठा कर अपने गाल पर रख दिया। दोनों हंसने लगे।
चूंचूं ने इंद्रधनुष की ओर देखते हुए पूछा-‘‘दादा। एक बात तो बताओ। ये इंद्रधनुष हर रोज क्यों नहीं निकलता?’’
जंबों ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया-‘‘चूंचूं तुम्हारे सवाल में जान है। दरअसल इंद्रधनुष बारिश के बाद ही निकलता है। कारण साफ है। बारिश होने के बाद हवा में पानी के नन्हें कण रह जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उनमें से होकर गुजरती है तो वे सार रंग के इंद्रधनुष का आकार ले लेती हैं।’’
‘‘ओह ! समझ गया। तो ये बात है। लेकिन इनमें सात रंग कौन-कौन से होते हैं? मुझे तो सात नहीं दिखाई दे रहे हैं।’’
‘‘तुम पिद्दी भर के तो हो। अरे! सात रंग तो मुझे भी अपनी आंख से नहीं दिखाई दे रहे हैं। इंद्रधनुष के सातों रंगों को देखने के लिए दूरबीन लानी पड़ती है। समझे। लेकिन मुझे इसके रंग पता हैं। पहला लाल फिर दूसरा नारंगी फिर पीला, हरा,नीला,आसमानी और बैंगनी रंग होता है। आया समझ में। इन्हें याद कर लेना।’’
चूंचूं सिर हिलाते हुए कहने लगा-‘‘समझ गया। लेकिन जंबों दादा। ये पश्चिम दिशा में ही क्यों निकला हुआ है?’’
जंबो हाथी ने हंसते हुए कहा-‘‘आज तो तेरा दिमाग खूब चल रहा है। सही बात तो ये है कि ये सूर्य के ठीक विपरीत दिशा में ही दिखाई देता है। सूरज की रोशनी बूंदों पर पड़ने से सूरज की ओर खड़े होने से ही हमकों ये इंद्रधनुष दिखाई देता है। सुबह पश्चिम में और शाम को पूरब में। समझे। ’’
‘‘समझ गया।’’
जंबो ने कहा-‘‘आसमान में दिखाई देने वाला इंद्रधनुष प्राकृतिक है। तुम चाहो तो कृत्रिम इंद्रधनुष भी देख सकते हो।’’
चूहा बोला-‘‘वो कैसे भला?’’
जंबो ने बताया-‘‘किसी फव्वारे के पास जाओ। सूरज की ओर पीठ करो। यदि फव्वारे के पानी में फैलाव होगा। तो तुम्हें सूरज की विपरीत दिशा की ओर यानि पश्चिम में छोटा सा इंद्रधनुष दिखाई देगा। बहुत ऊंचाई से गिरने वाले झरने के पास भी हम इंद्रधनुष को देख सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें सूरज और पानी की बूंदों के बीच खुद को सही जगह पर खड़ा करना होगा।’’
‘‘समझ गया। ये कृत्रिम इंद्रधनुष को देखने के लिए थोड़ा मेहनत करनी होगी न दादा।’’
तभी जंबो हाथी ने घात लगाती हुई पूसी बिल्ली को देख लिया। पूसी चंचंू पर झपटने ही वाली थी कि जंबो हाथी ने चूंचूं को इशारा कर दिया।
चूंचूं बोला-‘‘समझ गया। मैं चला बिल में।’’ यह कहकर चूंचूं बिल में जा घुस गया। बेचारी पूसी बिल्ली हाथ मलती रह गई।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’. पोस्ट बाॅक्स-23, भितांईं, पौड़ी , पौड़ी गढ़वाल.246001 मोबाइल-09412158688. उत्तराखण्ड।