13 सित॰ 2012

'एक खेत सास बहू का' -मनोहर चमोली ‘मनु’. बालहंस, अगस्त, पार्ट- 2. 2012

एक खेत सास बहू का
-मनोहर चमोली ‘मनु’

बहुत पुरानी बात है। किसी गांव के एक परिवार में दो ही प्राणी थे। सास और बहू। अधिकतर परिवार खेती-किसानी पर ही निर्भर थे। सास-बहू के पास खेती करने के लिए एक ही खेत था। दोनों ने मिलकर किसी तरह धान तो बो दिये थे। अब खेतों में खरपतवार हटाने का समय आ गया था। गांव में सपरिवार सभी गुड़ाई में जुटे हुए थे। सास खेत का मुआयना कर आई थी। उसने बहू से कहा-‘‘बहू। शाम ढलने को है। जल्दी से खाना बना ले। खा-पीकर दो घड़ी नींद ले लेते हैं। हम दोनों भोर होने से पहले ही उठ जायेंगे और अंधेरे में ही खेत की गुड़ाई शुरू कर देंगे।’’
बहू ने कहा-‘‘ठीक है। कलेवा लेकर ही खेत में जायेंगे। कलेवा तभी करेंगे, जब खेत की गुड़ाई पूरी कर लेंगे।’’ सास मुस्कराई-‘‘मैं भी यही सोच रही थी। ऐसा करेंगे, सुबह का कलेवा खेत के बीचांे-बीच रख देंगे। तू खेत के एक छोर से और मैं दूसरे छोर से गुड़ाई शुरू कर दूंगी। गुड़ाई करते-करते ही हम कलेवे की टोकरी तक आ ही जायेंगे। एक तो काम भी निपट जायेगा और भूख लगने के बाद कलेवा भी अच्छा लगेगा।’’
बहू खुश होते हुए बोली-‘‘ठीक है। कलेवे की पोटली देख-देख कर गुड़ाई में भी मन लगा रहेगा।’’ दोनों ने झट-पट खाना बनाया। आधा पेट खाया। काम निपटाया और सो गये। थकी-मांदी बहू की तो आंख लग गई। लेकिन सास ने कुछ पल आंखों ही आंखों में काट दिये। उसे खेत की गुड़ाई की चिंता लगी हुई थी। गुड़ाई में बेहद समय लगता है। सास यही सोच रही थी। वह रात के अंधेरे में ही उठी। सुबह के लिए नाश्ता बनाया। उसे कपड़े की एक पोटली में बांधा और बहू को भी जगा दिया। दोनों रात के अंधेरे में ही छोटी-छोटी कुदाल लेकर खेत पर जा पहुंचे।
चांदनी रात ने उनका काम सरल कर दिया। नाश्ते की पोटली खेत के बीचों-बीच रख दी गई। खेत के एक छोर से सास और दूसरे छोर से बहू ने गुड़ाई शुरू कर दी। दोनों का मुंह आमने-सामने था। बिना रुके-थके और भूखे-प्यासे वे कभी एक-दूसरे को देखते तो कभी नाश्ते की पोटली को देखते। पोटली अभी उन दोनों से काफी दूर थी।
बहू ने गुड़ाई करते-करते ही जोर से आवाज लगाते हुए पूछा-‘‘पता नहीं भोर कब होगी। क्या बजा होगा?’’ सास ने प्यार से डपटते हुए जवाब दिया-‘‘भोर तो अपने समय में ही होगी। बातें करेंगे तो काम न होगा। चुपचाप गुड़ाई करते हैं।’’ दोनों के हाथ तेजी से चलने लगे। कभी बांये हाथ से तो कभी दांये हाथ से वे कुदाल बदलते और गुड़ाई करते जाते। कई घंटों बाद भोर होने का आभास हुआ। पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी। क्षितिज की लालिमा से खेत सुनहरा-सा दिखाई दे रहा था। लेकिन दोनों थीं कि दम साधे गुड़ाई में व्यस्त थीं।
कभी सास तो कभी बहू खेत के बीचों-बीच रखे नाश्ते की पोटली को एक नजर देख लेती और फिर फुर्ती से हाथ चलाने लगती। धान की नन्हीं फसल के साथ उग आये खरपतवार को हटाते-हटाते उनकी अंगुलियों के जोड़ों में अजीब सा दर्द होने लगा था।
सुबह के सूर्य की पहली किरण सुनहरी थी। नन्हें पौधों में ठहरी हुई ओस अब सोने के मोती की तरह उन्हें दिखाई दे रही थी। लेकिन यह समय तो खेत की गुड़ाई पूरी करने का था। भूख को शांत करने के लिए रखी गई पोटली तक पहुंचना भी एक लक्ष्य था। दोनों एक-दूसरे को देखती और मन ही मन अपने पीछे की गई गुड़ाई की तुलना भी करती। फिर तेजी से गुड़ाई में तल्लीन हो जाती।
रात बहुत पहले ढल चुकी थी। भोर हुए काफी समय बीत चुका था। बहू ने हिचकते हुए पूछा-‘‘कलेवा कब करेंगे?’’ सास ने लंबी सांस लेते हुए जवाब दिया-‘‘भूख मुझे भी लग रही है। लेकिन कलेवा करेंगे तो फिर काम न होगा।’’ बहू ने माथे का पसीना पोछा और काम पर जुट गई।
दोपहर होने को थी। सास-बहू थक कर चूर हो गई। भूख के मारे उनकी आंतें घूमने लगी थीं। होंठ सूख चुके थे। बहू का धैर्य जवाब दे गया। उसकी अंगुलियां सूज गईं। उसने एक बार सास की ओर देखा। सास ने ढाढस बंधाया-‘‘मेरी बच्ची। मैं भी थक गई हूं। बस थोड़ा ओर सब्र कर। देख। कलेवा सामने ही तो रखा है। हम कलेवे की पोटली के काफी नजदीक हैं।’’
बहू के साथ-साथ सास का गला सूख गया था। वहीं माथे का पसीना लगातार टपक रहा था। सूरज सिर पर चढ़ा जा रहा था। तेज धूप से दोनों की पीठ जल रही थी। हाथों से कुदाल बार-बार छूट रही थी। खेत की गुड़ाई पूरी करनी है। नाश्ता गुड़ाई के बाद ही होगा। दोनों इसी संकल्प को बार-बार याद कर रहे थे। गुड़ाई के लिए उनके हाथ बार-बार मंद पड़ने लगे थे।
दोपहर बीत गई। लेकिन खेत की गुड़ाई का काम था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब सास थकान के मारे निढाल हुई जा रही थी। बहू ने देखा तो हौसला दिया। वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई-‘‘बस थोड़ी सी कसर ओर बाकी है। हम कलेवे की पोटली छूने ही वाले हैं।’’
सास-बहू फिर से गुड़ाई में जुट गये। सांझ ढलने को थी। दोनों कलेवे की पोटली के बेहद नजदीक आ पहुंची। उन्होंने पोटली को छू ही लिया। पोटली को हाथ लगाते ही सास-बहू अपने स्थान पर ही लुढक गई। बेहद भूख-प्यास और थकान के चलते दोनों की सांस उखड़ गई।
सास-बहू का खेत आज भी उसी गांव में मौजूद है। 000 ..........................................................................
कुमाऊं की लोक कथा.............................................उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में जनपद बागेश्वर के गांव बिनौलासेरा में एक खेत ‘सास-बहू का खेत‘ के नाम से प्रसिद्ध है। खेत के बीच में एक छोटा सा टीला है। कहते हैं कि उसी जगह पर सास-बहू ने कलेवा (नाश्ता) रख कर गुड़ाई शुरू की थी और गुड़ाई खत्म करते-करते वह चल बसी थीं।
-मनोहर चमोली ‘मनु’, भितांई, पोस्ट बाॅक्स-23, पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल.246001. उत्तराखण्ड. मोबाइल-09412158688.

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