30 नव॰ 2012

___________ फुलबगिया, पहला अंक, अक्टूबर 2012...'प्यार की बातें' -मनोहर चमोली ‘मनु’

प्यार की बातें
-मनोहर चमोली ‘मनु’
‘‘मैडम जी, ये अमन बार-बार प्यार-प्यार की बातें सुना रहा है।‘‘ अमन की बगल में बैठी हुई तूलिका ने शिकायत करते हुए कहा। अध्यापिका बच्चों की हाजिरी ले रही थी। चैंक पड़ीं। गुस्से से बोली-‘‘अमन। क्या हो रहा है? खड़े हो जाओ। क्या प्यार-व्यार लगा रखा है। मैं भी तो सुनूं।’’
अमन ने अंगुलियां गिनते हुए बताया-‘‘ मैं तीन से प्यार करता हूं।।’’
‘‘तीन से! कौन तीन?’’ अध्यापिका ने सख्ती से पूछा।
अमन सहम गया। हिचकते हुए कहने लगा-‘‘एक तो गौरेया से। जिसका घोंसला बाहर आंगन में है। मैं उसके बच्चों को दाना देता हूं न। अब वो मुझे देखकर चीं-चीं करते हैं। उसके बच्चे भी मेरा आना सुन लेते हैं।’’
अध्यापिका को हंसी आ गई। वह अपनी हंसी छिपाते हुए मन ही मन मुस्कराने लगी। फिर कड़क आवाज में पूछने लगी-‘‘दूसरे के बारे में भी तो बताओ।’’
अमन ने बताया-‘‘दूसरी गिलहरी है। मैं हर रोज उसे रोटी के छोटे-छोटे टूकड़े देता हूं। मैंने उसका नाम पुच्ची रखा है। पुच्ची कभी-कभी मेरे बैग में आकर छिप जाती है। और न वो अपना खाना जगह-जगह पर छिपाती है।’’
अध्यापिका के अलावा कक्षा के सभी सहपाठी अमन की बात गौर से सुन रहे थे। अध्यापिका ने पूछा-‘‘अब जल्दी से तीसरे के बारे में भी बता दो।’’
‘‘तीसरी तितली रानी है। पहले वो मुझे देखकर उड़ जाती थी। अब नहीं उड़ती। मैं तो बस उसके रंग-बिरंगे पंखों को देखता रहता हूं। उसे छूता भी नहीं हूं। अब तो तितली रानी मुझे देखकर उड़ती भी नहीं। मैं उससे खूब बातें करता हूं।’’ यह कहकर अमन चुप हो गया।
अध्यापिका ने हाजिरी का रजिस्टर बंद कर दिया। सभी बच्चों से कहा-‘‘प्यारे बच्चों अमन का प्यार सच्चा है। सही बात तो यही है कि हम जिसे प्यार करेंगे वो भी हमें प्यार करेगा। ये पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी हमसे प्यार चाहते हैं। अमन के लिए हम सभी ताली बजाएंगे।’’
कक्षा नन्हें हाथों से बज रही तालियों से गूंज उठी। अमन तूलिका को देख रहा था। तूलिका भी जोर-जोर से ताली बजा रही थी। 000

-मनोहर चमोली ‘मनु’

23 नव॰ 2012

बाल भारती, नवम्बर, 2012. बाल कहानी : 'दाना दो गौरेया को.' -मनोहर चमोली ‘मनु’

दाना दो गौरेया को  

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    ‘‘दादाजी। आप आंगन में क्यों चावल के दानें बिखेर रहे हो? आंगन गंदा हो जाएगा। इन चावल के दानों को खाने के लिए  चिड़िया आएंगी और जगह-जगह बीट कर दंेगी। जरा सोचिए।  अगर आप रोज दस दाने ही आंगन में बिखेरोगे, तो एक महीने में तीन सौ दाने। इस तरह एक साल में तीन हजार छह सौ दाने बरबाद कर दोगे।’’ अखिल ने कहा। यह सुनकर दादा जी चैंक पड़े। फिर उन्हें हंसी भी आ गई। उन्होंने अखिल का कान प्यार से उमेठते हुए कहा-‘‘वाह! मेरे गुदड़ी के लाल। तुम्हारा दिमाग तो वाकई किसी वित्तमंत्राी की तरह चल़ रहा है। पर मेरे प्यारे बच्चे। जरा आप भी तो सोचिए। इस धरती पर सिर्फ इंसान ही इंसान रह जाएं और पशु-पक्षी समाप्त हो जाएं तो ?’’

    अखिल समझ नहीं पाया। दादाजी की ओर देखकर बोला-‘‘मैं समझा नहीं। चावल के दानों से पशु-पक्षी के समाप्त होने का क्या मतलब है?’’

    दादाजी ने हंसते हुए कहा-‘‘खा गए न गच्चा। मैं बताता हूं। अखिल। समूची प्रकृति में एक खाद्य श्रंखला है। एक जीव दूसरे जीव का भोजन है। यहां तक की घास-पात भी कई जीवों का भोजन है। जो जीव घास-पात खाते हैं। उन्हंे दूसरे जीव खाते हैं। उन दूसरे जीवों को तीसरे जीव खाते हैं।’’

    ‘‘ये तो मैंने भी पढ़ा है। मगर दादाजी। पक्षी नहीं भी रहे तो हमें क्या फर्क पड़ता है?’’ अखिल ने पूछा।

    दादाजी ने जवाब दिया-‘‘ये तुमने अच्छा सवाल पूछा। देखो। मैं आंगन में चावल के जो दाने डालता हूं। वो गौरेया पक्षी के लिए हैं। जब वे चावल के दाने खाती है, तो चहचहाती है। पक्षियों का चहचहाना किसे अच्छा नहीं लगता। अब तुम कहोगे, कि अगर हम चावल न भी दें तो भी पक्षी अपना दाना-पानी कहीं न कहीं से चुग ही लेंगी। फिर हम ऐसा क्यों करें? सुनो। गौरेया पक्षी हमारे  आस-पास रहने वाली चिड़िया है। हमारे घर-आंगन की चिड़िया है। लेकिन हम मनुष्य उसे खत्म करने पर तुले हुए हैं। बेटा। इसे बचाना जरूरी है। नहीं तो आने वाले समय में तुम गौरेया के बारे में सिर्फ किताबों में ही पढ़ पाओगे।’’

    ‘‘गौरेया को बचाना है! गौरेया को क्या होने जा रहा है?’’ अखिल झुंझला गया।

    ‘‘बेटा। अब हम बेहद आधुनिक हो गए हैं न। हमने अपने घरों के आस-पास के पेड़ ही काट दिये हैं। अब चिड़िया अपना घोंसला कहां बनाएंगी?  पहले घरों में छप्पर हुआ करते थे। छज्जे और रोशनदान हुआ करते थे। गौरेया  उनमें अपना घर बना लेती थी। उनका घोंसला हमारे आस-पास ही हुआ करता था। अब हमारे घरों में रोशनदान ही नहीं हैं। अब तो दो-तीन मंजिल वाले मकान बन रहे हैं। अब तुम ही बताओ। बेचारी गौरेया अपना नीड़ कहां बनाए?’’ दादाजी ने पूछा।

    अखिल ने बिना विचार किए जवाब दिया-‘‘ जंगल में बनाए और कहां।’’

    दादाजी झट से बोल पड़े-‘‘बेटा। अब जंगल ही कहां बचे हैं।  सुदूर के जंगल भी सिमटते जा रहे हैं। वैसे भी गौरया बेहद संवेदनशील होती है। उसे हम मनुष्यों के आस-पास रहना अच्छा लगता है।’’

    अखिल ने सोचते हुए पूछा-‘‘पर दादाजी अब तो मुझे गौरेया कभी-कभी ही दिखाई देती है। वे कहां चली गईं हैं?’’

    दादाजी ने गहरी सांस लेते हुए बताया-‘‘बेटा गौरेया ही नहीं, कई पक्षी धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। हमारे देश में पक्षियों की लगभग बारह सौ प्रजातियां हैं। लेकिन कई प्रजातियों के पक्षी सालों से नहीं दिखाई दिए। गौरेया को शोरगुल और कोलाहल पसंद नहीं। दिन-प्रतिदिन ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। हमने कीटनाशकों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। उससे भी गौरेया का जीवन खतरे में पड़ गया है।’’

    ‘‘कीटनाशक तो कीटों को मारने वाली दवाएं हैं न?’’ अखिल ने पूछा।

    ‘‘हां। तुम ठीक समझे। इन कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा उपयोग हो रहा है। यह कीटनाशक दवाएं कई  जीव-जंतुओं के जीवन को नष्ट कर देती हैं। गौरेया जब अंडे देती है, तब उसे प्रोटीन की आवश्यकता होती है। गौरेया के बच्चों को जिंदा रहने के लिए भी  प्रोटीन चाहिए। पक्षियों को प्रोटीन कीटों को खाने से मिलता है। मगर अब वे कीट तो हमने दवा छिड़क कर पहले ही समाप्त कर दिए हैं। जो कीट बचे भी हैं, उन पर कीटनाशक दवाओं का इतना असर होता है कि गौरेया उन्हें खाकर अपनी औसत आयु से बेहद कम जी पा रही है। पर्यावरण संतुलन में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मगर तुम तो मुझे उनके लिए चावल के कुछ दानें डालने से भी मना कर रहे हो। तो बताओ फिर ये चिड़िया कहां जाएगी? कैसे जिंदा रहंेगी। क्या खाएंगी?’’ दादा जी अखिल से पूछा।

    दादाजी को उदास देखकर अखिल ने  एक पल की देरी नहीं की। वह मायूसी से बोला-‘‘साॅरी दादाजी। मुझे नहीं पता था कि हमारे दो-चार चावल के दानों से  गौरेया का जीवन बच सकता है।  अब ये काम आप मुझ पर छोड़ दो। आज से ही नहीं, अभी से मैं गौरेया को दाना दूंगा। ’’

    ‘‘लेकिन अखिल आंगन गंदा भी तो हो जाता है न। तब।’’ दादाजी ने अखिल को घूरते हुए पूछा।

    ‘‘ओह दादाजी। इसके लिए हम आंगन का एक कोना तय कर लेते हैं। सुबह का समय पक्षियों को दाना देने का सबसे अच्छा समय होगा। फिर मम्मी बाद में आंगन तो साफ करती ही है।’’ अखिल ने उपाय भी सुझा दिया।

    ‘‘यह ठीक रहेगा।’’ यह कहकर दादाजी ने अखिल का हाथ पकड़ लिया। अखिल दादाजी से लिपट गया।


- मनोहर चमोली ‘मनु’., भितांईं, पो0बाॅ0-23.जिला-पौड़ी गढ़वाल.पिन-246001. मोबा0-9412158688.

18 नव॰ 2012

बाल कहानी-'सब हैं अव्वल'. साहित्य अमृत- नवंबर 2012


सब हैं अव्वल

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-मनोहर चमोली ‘मनु’
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काननवन में हँसी-खुशी और धमा-चैकड़ी का माहौल देखकर आस-पास के वनवासी हैरान हो जाते। सुबह से रात होने तक उल्लास और आनन्द की गूँज चारों और सुनाई देती। काननवन में खुशियों का स्कूल जो खुल गया था। स्कूल जाने वालों के व्यवहार में तेजी से बदलाव दिखाई देने लगे। हर माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे थे। यही कारण था कि भालू के स्कूल में पढ़ने वालों का तांता लगा रहता।
क्या छोटा और क्या बड़ा। क्या पशु और क्या पक्षी। क्या मांसाहारी और क्या शाकाहारी। मेढ़क, साँप, चूहा, बिल्ली, शेर, बकरी, हाथी, बंदर, तितली, लोमड़ी, सियार, खरगोश, कुत्ता, गिलहरी और हिरन भी एक ही मैदान में सुबह-सवेरे प्रातःकालीन सभा में हाथ जोड़े खड़े दिखाई देते।
भालू खूब मन लगाकर पढ़ाता। पढ़ने वाले भी मन लगाकर पढ़ाई कर रहे थे। एक-दूसरे की मदद करते। समूह में सीखते। अपनी बातें साझा करते। स्कूल की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते। सुनने की ललक बढ़ने लगी थी। बोलने की क्षमता में लगातार सुधार हो रहा था। अक्षरों को पढ़ने की गति बढ़ रही थी। हर कोई लिखना सीख रहा था।
सभी के दिन आनंद, मस्ती, उछल-कूद और भाग-दौड़ में गुजर रहे थे। फिर एक दिन अचानक भालू ने कहा-‘‘साल भर हो गया है। अब तुम्हारी परीक्षा होगी। तैयार रहिए।’’
कक्षा में सन्नाटा छा गया।
‘‘परीक्षा ! ये क्या है?’’ मेढक ने सिर खुजलाते हुए पूछा।
भालू को हँसी आ गई। चेहरे पर घबराहट लाते हुए बोला-‘‘परीक्षा ही तुम्हें पास-फेल करेगी। मतलब ये कि तुमने साल भर क्या सीखा। कितना सीखा।’’
अब खरगोश बोला-‘‘लेकिन हम सब तो समझ ही रहे हैं कि हम रोज कुछ न कुछ यहाँ नया सीख रहे हैं। तब भला ये परीक्षा की क्या जरूरत?’’
भालू ने डाँटते हुए कहा-‘‘चुप रहो। मैं पढ़ाता हूं और तुम पढ़ते हो। मैं सीखाता हूं और तुम सीखते हो। अब समय आ गया है कि सब जान लें कि तुम में से अव्वल कौन है?’’
‘‘अव्वल ! ये अव्वल कौन है?’’ छिपकली ने पूछा।
भालू ने बताया-‘‘परीक्षा ही तय करेगी कि तुम सभी में कौन सबसे अधिक होशियार है। साल भर स्कूल में पढ़ाया गया है। सिखाया गया है। समझाया गया है। परीक्षा से तय होगा कि तुम कितने बुद्धिमान बन सके हो। अब घर जाओ और परीक्षा की तैयारी करो। कल तुम्हारी परीक्षा होगी।’’
स्कूल से लौटते हुए सब सोच में पड़ गए। उनके चेहरे चिंता से भर गए। तनाव और भय के कारण वे हँसना-गाना भूल गए। वे एक-दूसरे से बेवजह तुलना करने लगे। निराशा और हताशा से भरा हर कोई एक-दूसरे से दूर-दूर चलने लगा। आज सुबह तक जो नाचते-कूदते स्कूल जा रहे थे, वे स्कूल से लौटते हुए एक-दूसरे को देखकर घबरा रहे थे। परीक्षा ने जैसे उनकी आजादी छीन ली हो। खुशियों की पाठशाला एक झटके में डर की पाठशाला बन गई। हर कोई रात भर सो नहीं सका।
सुबह हुई। सब बुझे मन से स्कूल पहुँच गए।
भालू ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘परीक्षा यहीं मैदान में होगी। सब तैयार रहें।’’ हर कोई सिर झुकाए बैठा हुआ था।
भालू ने स्कूल की ऊँची दीवार की ओर देखते हुए कहा-‘‘इस दीवार पर जो चढ़ेगा। वही अव्वल माना जाएगा। सब दीवार की ओर दौड़े। बंदर, गधा और सियार उछलते ही रह गए। छिपकली झट से दीवार पर चढ़ गई।’’
चूहा उदास हो गया। धीरे से बोला-‘‘मेरे जैसे इतनी ऊँची दीवार पर कभी नहीं चढ़ पाएंगे।़’’
भालू ने पीपल के पेड़ की ओर देखते हुए कहा-‘‘इस पेड़ पर चढ़ो।’’ उड़ने वाले पक्षी पलक झपकते ही पेड़ की शाखाओं पर पँख पसारकर बैठ गए। हिरन, मेढक जैसे जीव-जन्तु अपना सा मुंह लेकर खड़े रह गए।
भालू ने फिर कहा-‘‘मैदान के चार चक्कर लगाओ। मैं सौ तक गिनती बोलूंगा। गिनती पूरी होने से पहले चार चक्कर जो लगाएगा वही अव्वल माना जाएगा। दौड़ो।’’
सब दौड़ने लगे। खरगोश, कुत्ता सबसे आगे थे। बेचारा कछुआ सबसे पीछे रह गया।
भालू ने एक नई घोषणा करते हुए कहा-‘‘मैदान के किनारे बड़ा सा पत्थर पड़ा है। हटाओ उसे।’’
हर किसी ने कोशिश की। पत्थर टस से मस न हुआ। हाथी झूमता हुआ आया और उसने पत्थर को सूण्ड से धकेल दिया। एक के बाद एक नई परीक्षा से सब तंग आ गए। हर परीक्षा में एक अव्वल रहता और बाकी मायूस हो जाते।
मधुमक्खी के सब्र का बांध टूट गया। वह बोली-‘‘मैं इस परीक्षा का बहिष्कार करती हूँ। ऐसी पढ़ाई से तो अनपढ़ रह जाना ही अच्छा है। ऐसी पढ़ाई, ऐसा स्कूल और ऐसा शिक्षक मुझे स्वीकार नहीं, जो कक्षा में सहभागिता के बदले गैर बराबरी की भावना विकसित करे। इस पढ़ाई को धिक्कारना ही अच्छा है।’’
मधुमक्खी की बात सबने सुनी। मैदान में सन्नाटा छा गया।
तितली ने मधुमक्खी की बात का समर्थन करते हुए कहा-‘‘मैं भी इस परीक्षा का विरोध करती हूँ।’’
फिर किसी ओर ने भी कहा-‘‘मैं भी।’’
दूर से कोई चिल्लाया-‘‘मैं भी।’’
अब कुछ एक साथ बोले-‘‘हम भी।’’
     फिर क्या था। सब एक साथ चिल्लाए-‘‘हम सब भी।’’
सब भालू की ओर दौड़े। भालू घबरा गया। वह भागकर जंगल में जा छिपा। काननवन का स्कूल बंद हो गया। अब सब प्रकृति से सीखने लगे। अपने अनुभवों से सीखने लगे। तभी से आज तक किसी भी जंगल में कोई स्कूल नहीं लगता। 000
Manohar Chamoli 'manu'