23 नव॰ 2012

बाल भारती, नवम्बर, 2012. बाल कहानी : 'दाना दो गौरेया को.' -मनोहर चमोली ‘मनु’

दाना दो गौरेया को  

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    ‘‘दादाजी। आप आंगन में क्यों चावल के दानें बिखेर रहे हो? आंगन गंदा हो जाएगा। इन चावल के दानों को खाने के लिए  चिड़िया आएंगी और जगह-जगह बीट कर दंेगी। जरा सोचिए।  अगर आप रोज दस दाने ही आंगन में बिखेरोगे, तो एक महीने में तीन सौ दाने। इस तरह एक साल में तीन हजार छह सौ दाने बरबाद कर दोगे।’’ अखिल ने कहा। यह सुनकर दादा जी चैंक पड़े। फिर उन्हें हंसी भी आ गई। उन्होंने अखिल का कान प्यार से उमेठते हुए कहा-‘‘वाह! मेरे गुदड़ी के लाल। तुम्हारा दिमाग तो वाकई किसी वित्तमंत्राी की तरह चल़ रहा है। पर मेरे प्यारे बच्चे। जरा आप भी तो सोचिए। इस धरती पर सिर्फ इंसान ही इंसान रह जाएं और पशु-पक्षी समाप्त हो जाएं तो ?’’

    अखिल समझ नहीं पाया। दादाजी की ओर देखकर बोला-‘‘मैं समझा नहीं। चावल के दानों से पशु-पक्षी के समाप्त होने का क्या मतलब है?’’

    दादाजी ने हंसते हुए कहा-‘‘खा गए न गच्चा। मैं बताता हूं। अखिल। समूची प्रकृति में एक खाद्य श्रंखला है। एक जीव दूसरे जीव का भोजन है। यहां तक की घास-पात भी कई जीवों का भोजन है। जो जीव घास-पात खाते हैं। उन्हंे दूसरे जीव खाते हैं। उन दूसरे जीवों को तीसरे जीव खाते हैं।’’

    ‘‘ये तो मैंने भी पढ़ा है। मगर दादाजी। पक्षी नहीं भी रहे तो हमें क्या फर्क पड़ता है?’’ अखिल ने पूछा।

    दादाजी ने जवाब दिया-‘‘ये तुमने अच्छा सवाल पूछा। देखो। मैं आंगन में चावल के जो दाने डालता हूं। वो गौरेया पक्षी के लिए हैं। जब वे चावल के दाने खाती है, तो चहचहाती है। पक्षियों का चहचहाना किसे अच्छा नहीं लगता। अब तुम कहोगे, कि अगर हम चावल न भी दें तो भी पक्षी अपना दाना-पानी कहीं न कहीं से चुग ही लेंगी। फिर हम ऐसा क्यों करें? सुनो। गौरेया पक्षी हमारे  आस-पास रहने वाली चिड़िया है। हमारे घर-आंगन की चिड़िया है। लेकिन हम मनुष्य उसे खत्म करने पर तुले हुए हैं। बेटा। इसे बचाना जरूरी है। नहीं तो आने वाले समय में तुम गौरेया के बारे में सिर्फ किताबों में ही पढ़ पाओगे।’’

    ‘‘गौरेया को बचाना है! गौरेया को क्या होने जा रहा है?’’ अखिल झुंझला गया।

    ‘‘बेटा। अब हम बेहद आधुनिक हो गए हैं न। हमने अपने घरों के आस-पास के पेड़ ही काट दिये हैं। अब चिड़िया अपना घोंसला कहां बनाएंगी?  पहले घरों में छप्पर हुआ करते थे। छज्जे और रोशनदान हुआ करते थे। गौरेया  उनमें अपना घर बना लेती थी। उनका घोंसला हमारे आस-पास ही हुआ करता था। अब हमारे घरों में रोशनदान ही नहीं हैं। अब तो दो-तीन मंजिल वाले मकान बन रहे हैं। अब तुम ही बताओ। बेचारी गौरेया अपना नीड़ कहां बनाए?’’ दादाजी ने पूछा।

    अखिल ने बिना विचार किए जवाब दिया-‘‘ जंगल में बनाए और कहां।’’

    दादाजी झट से बोल पड़े-‘‘बेटा। अब जंगल ही कहां बचे हैं।  सुदूर के जंगल भी सिमटते जा रहे हैं। वैसे भी गौरया बेहद संवेदनशील होती है। उसे हम मनुष्यों के आस-पास रहना अच्छा लगता है।’’

    अखिल ने सोचते हुए पूछा-‘‘पर दादाजी अब तो मुझे गौरेया कभी-कभी ही दिखाई देती है। वे कहां चली गईं हैं?’’

    दादाजी ने गहरी सांस लेते हुए बताया-‘‘बेटा गौरेया ही नहीं, कई पक्षी धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। हमारे देश में पक्षियों की लगभग बारह सौ प्रजातियां हैं। लेकिन कई प्रजातियों के पक्षी सालों से नहीं दिखाई दिए। गौरेया को शोरगुल और कोलाहल पसंद नहीं। दिन-प्रतिदिन ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। हमने कीटनाशकों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। उससे भी गौरेया का जीवन खतरे में पड़ गया है।’’

    ‘‘कीटनाशक तो कीटों को मारने वाली दवाएं हैं न?’’ अखिल ने पूछा।

    ‘‘हां। तुम ठीक समझे। इन कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा उपयोग हो रहा है। यह कीटनाशक दवाएं कई  जीव-जंतुओं के जीवन को नष्ट कर देती हैं। गौरेया जब अंडे देती है, तब उसे प्रोटीन की आवश्यकता होती है। गौरेया के बच्चों को जिंदा रहने के लिए भी  प्रोटीन चाहिए। पक्षियों को प्रोटीन कीटों को खाने से मिलता है। मगर अब वे कीट तो हमने दवा छिड़क कर पहले ही समाप्त कर दिए हैं। जो कीट बचे भी हैं, उन पर कीटनाशक दवाओं का इतना असर होता है कि गौरेया उन्हें खाकर अपनी औसत आयु से बेहद कम जी पा रही है। पर्यावरण संतुलन में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मगर तुम तो मुझे उनके लिए चावल के कुछ दानें डालने से भी मना कर रहे हो। तो बताओ फिर ये चिड़िया कहां जाएगी? कैसे जिंदा रहंेगी। क्या खाएंगी?’’ दादा जी अखिल से पूछा।

    दादाजी को उदास देखकर अखिल ने  एक पल की देरी नहीं की। वह मायूसी से बोला-‘‘साॅरी दादाजी। मुझे नहीं पता था कि हमारे दो-चार चावल के दानों से  गौरेया का जीवन बच सकता है।  अब ये काम आप मुझ पर छोड़ दो। आज से ही नहीं, अभी से मैं गौरेया को दाना दूंगा। ’’

    ‘‘लेकिन अखिल आंगन गंदा भी तो हो जाता है न। तब।’’ दादाजी ने अखिल को घूरते हुए पूछा।

    ‘‘ओह दादाजी। इसके लिए हम आंगन का एक कोना तय कर लेते हैं। सुबह का समय पक्षियों को दाना देने का सबसे अच्छा समय होगा। फिर मम्मी बाद में आंगन तो साफ करती ही है।’’ अखिल ने उपाय भी सुझा दिया।

    ‘‘यह ठीक रहेगा।’’ यह कहकर दादाजी ने अखिल का हाथ पकड़ लिया। अखिल दादाजी से लिपट गया।


- मनोहर चमोली ‘मनु’., भितांईं, पो0बाॅ0-23.जिला-पौड़ी गढ़वाल.पिन-246001. मोबा0-9412158688.

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