28 दिस॰ 2013

लौट आई किताबें...बाल कहानी

लौट आईं किताबें

----------Manohar Chamoli 'manu'
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अभिध स्कूल से घर लौटी तो दंग रह गई। सुबह आलमारियों में किताबें थीं।
‘‘किताबें कहां गईं? कल रात को तो मैंने कलर बुक में सपफेद परी देखी थी।’’ अभिध यही सोच रही थी।

अभिध की दादी ने उसे बताया था कि आलमारियों में रखी कुछ पत्रिकाएं बहुत पुरानी हैं। उसके पापा की उम्र से भी बहुत पुरानी। अभिध अक्सर दादी से आलमारियों में रखी कोई न कोई पत्रिका जरूर निकलवाती। दादी उन किताबों के पन्ने उलटती-पलटती। चित्रों को देर तक देखती। मुस्कराती और पिफर अभिध को कहानी सुनाने लग जाती।
अभिध खाली आलमारियों को देखकर रोने लगी। दादी और उसकी मम्मी ने समझाया। लेकिन अभिध थी कि रोती ही जा रही थी। उसने स्कूल बैग भी कंध्े से नहीं उतारा। उसने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया।
अभिध की दादी ने मोबाइल पर बात की-‘‘अनिल बेटा। तुरंत घर आ जाओ। ये लड़की मेरी और कमला की तो एक भी नहीं सुन रही है। शायद तुम आकर इसे कुछ समझा सको।’’
कुछ ही देर में अभिधा के पिता घर आ पहुंचे। उन्होंने हापफते हुए पूछा-‘‘क्या हुआ? मुझे तुरंत क्यों बुलाया।’’
अभिध सुबकते हुए बोली-‘‘पापा। दादी और मम्मी ने सारी किताबें कबाड़ी को दे दी। उन किताबों में कितनी सारी कहानियां थीं। प्यारे-प्यारे रंग-बिरंगे चित्रा थे। मुझे वो सारी किताबें चाहिए। अभी के अभी।’’
यह सुनकर अभिध के पिता के जान में जान आई। लंबी सांस लेकर वे मुस्कराते हुए अभिधा से बोले-‘‘बस! इतनी सी बात! मैं तो डर ही गया था। वो पुराने जमाने की किताबें थीं। हमारी अभिध तो नये जमाने की है न। हम आपके लिए नई-नई किताबें लेकर आएंगे। ढेर सारी।’’
‘‘नहीं! मुझे वो सब किताबें भी चाहिए। मैंने अभी वो सब किताबें ठीक से देखी भी नहीं थी।’’ अभिध ने आंखें मलते हुए कहा।
अभिध की मम्मी पुचकारते हुए बोली-‘‘अभिध। जिद नहीं करते। पापा ने कह तो दिया कि वो तुम्हारे लिए अच्छी और नईं किताबें ले आयेंगे। चलो। ये बैग उतारो और कुछ खा लो।’’
‘‘नहीं। मुझे कुछ नहीं खाना। मुझे सारी किताबें अभी के अभी चाहिए। वही वाली। जो इन आलमारियों में थी।’’ अभिध ने पैर पटकते हुए कहा।
अभिध के पिता को गुस्सा आ गया। उन्होंने अभिध के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया। वे बौखला गए। अभिध से बोले-‘‘कबाड़ को कबाड़ी ही ले जाता है। वो किताबें पुरानी थीं। आज वो बेकार हो गईं थी। समझीं तुम।’’
झन्नाटेदार थप्पड़ के निशान अभिध के गाल पर उभर आए। अभिध ने अपना नन्हा हाथ गाल पर रख लिया। उसका गला रूंध् गया। वह सिसकते हुए बोली-‘‘जो चीज पुरानी होती है, क्या वो बेकार हो जाती है? दादी भी तो पुरानी है। क्या उन्हें भी कबाड़ी को दे दोगे।’’
अभिध के पिता ने दूसरा हाथ उठाया ही था कि अभिध सहम गई। पीछे हटते हुए बोली-‘‘पापा। पिफर तो कल मैं भी पुरानी हो जाऊंगी। तो क्या मुझे भी कबाड़ी को दे दोगे?’’
यह सुनते ही अभिध के पिता का हाथ हवा में ही थम गया। वह सन्न रह गये। अभिध पफूट-पफूट कर रोने लगी। दौड़कर दादी से चिपकते हुए बोली-‘‘मैं कबाड़ी अंकल से सारी किताबें मांग लूंगी।’’ अभिध की दादी की आंखें भीग गईं। उन्होंने धेती का पल्लू अपने मुंह ठूंस लिया और हां में सिर हिलाया। अभिध की मम्मी रसोई में चली गई।
अभिध की दादी ने भर्राते हुई आवाज में कहा-‘‘अनिल बेटा। सांझ होने में अभी देर है। कबाड़ी मुहल्ले की रद्दी पलटन बाजार के कबाड़ी जरदारी को बेच देते हैं। जरदारी का पलटन बाजार में बहुत बड़ा स्टोर है। रद्दी वाला वहीं गया होगा। जा बेटा, किताबें वापिस ले आ।’’
अभिध के पिता तेज कदमों से बाहर निकल गए। शाम के बाद रात हो आई। अभिध कुर्सी पर बैठे-बैठे भूखी-प्यासी ही सो गई। देर रात दरवाजे की घंटी बजी। अभिध जाग गई। दरवाजा खुला। अभिध के पिता के साथ तीन मजदूर भी थे। उन्होंने किताबों के ढेर को अंदर रखा और मजदूरी लेकर चले गए। अभिध खुशाी से चहक उठी। कहने लगी-‘‘पापा। सारी किताबें मिल गईं न?’’
अभिध के पिता ने पसीना पोंछते हुए जवाब दिया-‘‘साॅरी अभिध। मुझे जरदारी का स्टोर ढूंढने में कापफी समय लग गया। मुझसे पहले वहां कुछ बच्चे चले गए होंगे। उन बच्चों ने दाम देकर हमारी कुछ पुरानी किताबें खरीद लीं। मुझे तो आज ही पता चला कि कईं बच्चे ऐसे भी हैं जो पुरानी पत्रिकाएं सस्ते दामों में कबाड़ियों से खरीदते हैं। वाकई। हमारी ये किताबें रद्दी के लिए नहीं हैं। ये तो अनमोल हैं। शुक्र है तुम्हारी दादी ने मुझे शाम को ही भेज दिया। कल तक तो ये किताबें आध्ी ही रह जातीं।’’
अभिध के पिता हांफ रहे थे। उनके माथे पर पसीना सापफ झलक रहा था।
अभिध ने कहा-‘‘चलो। पापा। इन्हें दोबारा आलमारियों में रख देते हैं। कहीं मम्मी और दादी दोबारा इन्हें कबाड़ी को न दे दें।’’
सब अभिध के चेहरे की चमक देखकर हैरान थे। दोपहर से भूखी-प्यासी नन्ही अभिध के नन्हें हाथ किताबों को उठाने में जो जुट गए थे।

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