10 मई 2014

जब मैंने अन्तिम मतदाता के रूप में वोट दिया.

लोक सभा चुनाव 2014 में मुझे मतदान अधिकारी प्रथम की जिम्मेदारी मिली। पहला प्रशिक्षण नितांत व्यक्तिगत होता है। चुनाव की सामान्य जानकारी और ई0वी0एम0 की तकनीकी जानकारी हर किसी मतदान अधिकारी प्रथम को स्वयं लेनी होती है। दूसरे प्रशिक्षण में पूरी टोली से परिचय होता है।
मोटर मार्ग से एक घण्टा पैदल चलने के बाद हमें खेड़ा गाँव यूँ दिखाई दिया। यहाँ पहुँचने में एक घण्टा और लगना था.
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  पीठासीन अधिकारी सुमित्रानन्दन यादव के साथ-साथ द्वितीय, तृतीय मतदान अधिकारी भी प्रशिक्षण लेते हैं। पीठासीन अधिकारी बावन की उम्र से अधिक के थे। मशीन को लेकर वे कुछ आशंकित लगे। 

दूसरे मतदान अधिकारी मुकेश जुयाल ने बताया कि वो चार-पांच चुनाव कर चुके हैं।

तृतीय मतदान अधिकारी आर0 मुंशी ऐसे थे कि वे रिटायर होने वाले हैं और उनकी पहली बार किसी चुनाव में ड्यूटी लगी थी।

  रवानगी के दौरान हमें दो सुरक्षाकर्मी मिले। पहला दसवीं पास कर चुका सौरभ बेरोजगार अब प्रांतीय रक्षक दल का सदस्य था। वह भी पहली बार ड्यूटी कर रहा था। दूसरे वन विभाग के वन आरक्षी जगमोहन थे। वह दो-तीन बार चुनाव करा चुके थे। ये ओर बात है कि सुरक्षा के नाम पर इन दोनों के पास डण्डा तक न था।

यात्रा के दौरान पता चल गया था कि मैं,पीठासीन अधिकारी और जगमोहन जी पेयव्यसनी  नहीं हैं।

यानि पचास फीसदी टीम सामान्य है। भोजनमाता का आवास मतदेय स्थल से बेहद दूर था, सो पटवारी जी ने खच्चर वाले सुशील को हमारे भोजन को बनाने की जिम्मेदारी दी। सुशील जी अपने साथ चाचा-भतीजा सहायक के रूप में लेकर हमारे सामने था। साठ रुपए एक डाइट-एक व्यक्ति का तय हुआ। कुल मिलाकर हम तीन रात और चार सुबह के लिए नौ लोग बेहद बीहड़, वीरान और आम सड़क से लगभग सात कि0मी0 दूर 1951 को स्थापित बुनियादी स्कूल में रहने को चल पड़े।

पता चला कि वे तीनों भी अपने पेय पदार्थ के साथ मोमबत्ती, माचिस, ढिबरी के साथ तैयार हैं। लगभग ढाई घण्टा पैदल चलकर हम शाम साढ़े छह बजे बुनियादी स्कूल खेड़ा पहुँच गए। मजे़दार बात यह थी कि खेड़ा गाँव ऊँचाई पर बसा है। यहाँ बाँज,बुराँश और काफल हैं। लेकिन बुनियादी स्कूल बेहद नीचे है। यहाँ अमरूद, आम के पेड़ हैं। खैर....इस पूरी टीम में भाँति-भाँति के हम लोग इकट्ठा हुए थे। खेड़ा के सुशील और उनके चाचा-भतीजा ग्रामीण परिवेश के सज्जन व्यक्ति थे। सुबह से शाम तक वे हमारे खाने-पीने की व्यवस्था में लगे रहे। लेकिन रात हुई और उनके स्वर बदल जाते। सुर भी सप्तम हो जाता। हम लोगों से उनका खूब बात करने का मन करता। 

खेड़ा गांव से बुनियादी स्कूल का खींचा फोटो यहां मतदेय स्थल हैं.
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मुंशी जी रिटायर होने वाले थे। दो शादी किए हुए थे। उनके पास किस्सों का भण्डार था। लेकिन सामने के चार दाँत न होने की वजह से वह देहाती में बोल क्या रहे हैं, पता ही नहीं चल पाता। उन्होंने खूब हँसाया। वे बुरी तरह डरे हुए थे कि चुनाव कैसे निपटेगा। उन्हें इस बात का बहुत दुख था कि वे घर से 2000 एम0एल0 की व्यवस्था कर चुके थे। लेकिन रवानगी से ठीक पहले उनके साथियों ने चुनाव में पेय पदार्थों के साथ ले जाने-सेवन करने पर रहने वाली रोक के सम्बन्ध में उन्हें इतना डरा क्यों दिया?

सौरभ अभी लड़का है। लेकिन वह जहाँ रहता है। वहाँ नयार बहती है। मछली पकड़ने का बढि़या धंधा वहाँ चलता है। यातायात भी बेहद रहता है। वह भविष्य में एक अच्छा व्यवसायी बन सकता है। बस उसे भी दुःख इस बात का है कि वह हाई स्कूल से आगे क्यों नहीं पढ़ सका। उसे भी हमारे साथ अच्छा लगा।

 मुकेश जुयाल 2005 से सरकारी सेवा में हैं। अति दुर्गम में कार्यरत हैं। हँसी-मजाक में सिद्धहस्त हैं। हर काम को आसानी से लेते हैं। किसी काम के प्रति गंभीरता उन्हें खलती है। वह हो जाएगा पर यकीन करते हैं। कैसे होगा? इस पर तनाव लेने से वे बचते हैं।

 पीठासीन अधिकारी बेहद अंतर्मुखी हैं। कम बोलते हैं। नित्य नहाने वाले, पूजा पाठ करने वाले और अल्पाहारी हैं। हाँ मेरी तरह चाय के शौकीन है। बस काम को करने में जल्दीबाजी नहीं दिखाते। हर काम में आवश्यकता से अधिक समय लेते हैं। बात में पता चला कि उत्तर प्रदेश का दैनिक ई पेपर जनमोर्चा में वे निरन्तर लिखते हैं।      

जगमोहन जी वन विभाग से हैं। कई जगह रहे हैं। जीव-जन्तुओं की उन्हें अच्छी जानकारी है। बहुत जल्दी बोलते हैं। समाज की अत्याधुनिकता से खिन्न हैं। लेकिन गौर से देखना और सबसे बाद में टिप्पणी करना उनकी विशेषता है। यह बात ओर है कि पहले दिन वे दिन भर सोते रहे। हालांकि वह दिन हमारे आराम का ही दिन था।

इस खेड़ा गाँव में हमें आर0पी0जुयाल मिले। वह बीएलओ भी थे। पिछले दस सालों से इस बुनियादी स्कूल में पढ़ा रहे हैं। खेड़ा गाँव में रहते हैं। 47 के हो चुके हैं। लेकिन पूरी तरह से चुस्त दुरुस्त। कारण। रोज़ाना गांव से इस बुनियादी स्कूल में पढ़ाने आना और फिर नन्हें-मुन्नों को वापिस गाँव ले जाना। हमारी टीम विविधताओं से भरी थी।

मतदान के दिन हम पाँच बजे उठ गए थे। साढ़े छह बजे तक हमने सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली थीं। सात बजे से छह बजे तक की ड्यूटी बड़े आराम से कटी। मतदान बावन फीसदी रहा। एक भी अवसर ऐसा नहीं आया, जब कहीं किसी प्रकार की कोई दिक्कत आई हो। बस एक मतदाता ऐसा आया था, जिसका नाम मतदाता सूची में तो था, लेकिन बीएलओ द्वारा जारी पर्ची भी उसने कहीं खो दी थी। वह अपनी पहचान के लिए उल्लिखित 11 दस्तवेजों में कोई भी दस्तावेज नहीं लाया।

हाँ ! मैंने भी इस बार मतदान किया। ईडीसी के माध्यम से। वह भी शाम को ठीक छह बजे।

बतौर अन्तिम मतदाता के रूप में। अच्छा लगा।
ये Post मुलाकात के सन्दर्भ में था। खेड़ा से जुड़ी बातें-यादें फिर कभी।    



2 टिप्‍पणियां:

  1. मनोहर जी , मतदान विषयक यह संस्मरण अच्छा लगा । मैं भी इस महायज्ञ में पीठासीन के तौर पर शामिल थी ।और शाम छह बजे के बाद जब तक ईवीएम को क्लोज नही कर दिया मन में एक उथल-पुथल सी बनी रही और हाँ सामान जमा करना किसी कठिन संघर्ष ,से कम न था । छायाचित्रों से पता चलता है कि आपके लिये आसान नही होगा कुछ भी फिर भी मुझे पहाडों का जीवन बहुत आकर्षित करता है ।

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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।