10 मई 2014

जो देखा, उसे देखकर हैरानी होती है !

इक्कीसवीं सदी में शहरवासी शायद ही कल्पना कर पाएँ कि यदि उनके बच्चों को बुनियादी शिक्षा के लिए एक घण्टा ढलान पैदल चलना पड़े और छुट्टी का घण्टा बजने के बाद वापसी में दो घण्टा की चढ़ाई चढ़ना पड़े तो क्या होगा?

यही नहीं इस पैदल सफर में साँप बिच्छू ही नहीं भालू और जंगली सूअर दिखाई देना आम बात हो तो? कक्षा छह और उससे आगे की पढ़ाई के लिए छह कि0मी0 वो भी पैदल चलना अनिवार्य शर्त हो तो अभिभावक क्या करेंगे? यह यक्ष प्रश्न है।

 जी हाँ। मैं इक्कीसवीं सदी के भारत के कथित देवभूमि उत्तराखण्ड के एक गाँव की बात कर रहा हूँ। इस गाँव को नजदीक से देखने का मौका अभी सम्पन्न हुए लोक सभा निर्वाचन में चुनाव ड्यूट के दौरान मिला।  कोटद्वार तहसील के कानूनगो सर्किल पौखाल पट्टी डबरालस्यूँ का गाँव खेड़ा आज भी मूलभूत सुविधाओं की बाट जोह रहा है। इस गाँव के पोस्ट आॅफिस डबोलीखाल के लिए घण्टों पैदल का सफर करना पड़ता है।

लगभग साठ परिवारों के इस गाँव में आज भी एक बुनियादी स्कूल है। वह भी सन् 1951 में खुल गया था। तब से आज तक कक्षा छह में भर्ती होने वाले बच्चे मानों मीलों पैदल सफर करने को अभिशप्त हांे। हद तो इस बात की है कि गेहूं पिसवाने के लिए इन बाशिंदों को पूरे तीन घण्टे का पैदल सफर करना पड़ता है। अलबत्ता 1986 में बिजली आ गई थी। आज जो अक्सर घण्टों गुल रहती है।

दस-बारह साल पहले गाँव का बाँज का निजी जंगल में बह रहा प्राकृतिक स्रोत से पाईप लाईन बिछाई गई है, जिसके कारण अब गाँव वाले गाड-गदनों से पानी भरकर लाना भूल चुके हैं। लेकिन बूढ़ी महिलाएँ कहना नहीं भूलती कि उन्होंने लोटे भर पानी से पूरे परिवार के बरतन तक माँजे हैं। गुमखाल से चैलूसैंण होते हुए एक पक्की सड़क ऋषिकेश जाती है। यहाँ से ऋषिकेश 80 किलोमीटर पड़ता है।

यमकेश्वर विधानसभा का यह क्षेत्र सड़क के आस-पास बेहद रमणीक जान पड़ता है। हर एक दो कि0मी0 पर एक-दो दुकाने मिल जाती हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियों की उत्पादित चीज़ें भी आसानी से दुकानों पर दीख जाती है। लेकिन सड़क के बांयी-दायीं और चढ़ाई या ढलान पर सुदूर दीखने वाले गाँवों की स्थिति आज भी विकास का रास्ता देख रही है। इन गाँव में पहुँचने के लिए पैदल मार्ग ही हैं। खच्चर हैं। आम सुविधाएँ आपको महीने भर के लिए घर पर जुटानी पड़ती है। एक माचिस के लिए नहीं तो तीन से चार घण्टे का सफर कीजिए।

मज़ेदार बात यह हैं कि डाण्डों और सुदूर पहाडि़यों पर मोबाइल टाॅवर ने गांव दर गांव सिगनल तो पहुँचा दिए। रिचार्ज कर लेने की सुविधा तो जुटा दी लेकिन नून तेल लकड़ी के लिए आज भी गांव वासी जद्दोजहद कर रहे हैं। एक खच्चर पर माल ढोने का एक चक्कर डेढ़ सौ रुपए से ढाई सौ रुपए है। पूरा दिन खपेगा वो भी अलग से। अब सोचिए तो ज़रा कि चार सौ पचास रुपए को सिलेण्डर घर तक कितने मूल्य का हो जाएगा। यही नहीं बीमार आदमी को पौखाल ले जाते और कोटद्वार ले जाते कांधों पर पालकी में ढोते चार आदमी रोगी की धड़कन दस बार टटोलते हैं कि थम तो नहीं गई। कारण यह नहीं कि वह भार से दुखी हो रहे हैं। कारण यह है कि रात-बिरात ले जाते समय सड़क तक पहुँचते-पहुँचते चार से पाँच घण्टे लग जाना आम समय है। बुरांशी, ढूंग्या, गड़कोट, माल्डू भी ऐसे ही नज़दीकी गांव हैं।

ऐसा भी नहीं है कि गाँव की भौगोलिक स्थिति अच्छी नहीं है। बांज,बुरांश का गांव है। ठण्डी-ठण्डी हवा बहती है। सर्दियों में चार-साढ़े चार बजे तक अच्छी और गुनगुनी धूप रहती है। सुबह ही सूरज पहाड़ों से झांकता हुआ जगाने आ जाता है। गांव के ठीक ऊपर बांज का घना जंगल है। काफल के अलावा बहुमूल्य लकड़ी देने वाले सैकड़ों प्रजाति वृक्षांे से लदा वन है। लगभग सौ परिवारों के मकान हैं। लेकिन आम सुविधाओं के न होने से पलायन का रोग इसे भी लगा है। घर-दर-घर टूटता जा रहा है। बच्चे आठवीं तक पढ़ते -पढ़ते टूट जाते हैं। लड़किया जल्दी ब्याही जाती हैं। बच्चे कुव्यसनी हो जाते हैं। रहे-बचे ग्रामीण दो-जून की रोटी के लिए जरूरत से ज्यादा मशक्कत करते रह जाते हैं। कुपोषण नई पौध पर हावी है।

गांव में बकरी पालन है। हर घर में गाय-भैंस बंधी है लेकिन अपने गुजारे भर के लिए ही। अन्यथा हम तीन दिन अमूल का पैकेट जो 90 दिन तक भी खराब नहीं होता कि चाय न पीते। रात,सुबह और दिन भर एक ही लौकी की सब्जी नहीं खाते। हमारे लिए आलू भी 12 किलोमीटर दूर देवीखेत के बाजार से मंगाए गए थे। वो भी दूसरे दिन की शाम को हमें दिखाई दिए।

 ये कैसा बाज़ारवाद है? यह कैसा विकास है? सड़के आ रही हैं, लेकिन तब जब आजाद हुए साठ साल हो चुके हैं। गांव आधा खाली हो चुका है। शिक्षा की कमर टूट गई है। बच्चे पढ़ना चाहते हैं तो उनकी पहुँच में स्कूल ही नहीं है। खच्चर पालन,मुर्गी पालन, भेड़-बकरी पालन और मनरेगा की मजदूरी कितना चलाएगी। समूचा गांव बूढ़ों से भरा पड़ा है। नई पीढ़ी दूर शहरों में खप रही है। जो हैं तो वे कच्ची शराब की लत में हैं।

नागरिक कहते हैं कि मन नहीं करता वोट देने का। लेकिन क्या करें? वोट देने पर यह हाल है। वोट नहीं देंगे तो सरकार एक मात्र सरकारी स्कूल भी छीन लेगी। पटवारी के पास छह-छह गांव है। इन गांवों की दूरी इतनी है कि पटवारी एक-एक कर सभी गांव मंे जाने की सोचे तो उसे पन्द्रह दिन चाहिए। यमकेश्वर विधान सभा से अब तक चुने विधायकों और गढ़वाल संसदीय सीट के सांसदों ने आजादी के बाद अपनी निधि से कुछ छींटे इस ओर फेंके होते तो यह बुजुर्गों का बसाया हुआ सुन्दर गांव उजाड़ न होता।

यहाँ की दूर-दूर तक फैली पहाडि़यों के सीने काट-काट कर बने लेकिन बंजड़ खेत साक्षी हैं कि कभी यहाँ मौसमी फसलंे लहलहाती थी। क्या इस गांव के और इस जैसे सैकड़ों गांवों के दिन बहुरेंगे?

काश!   

1 टिप्पणी:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।