13 अक्तू॰ 2015

साहित्य जगत में चारण और भाट आज भी हैं

साहित्य जगत में चारण और भाट आज भी हैं


-मनोहर चमोली ‘मनु’


जब से साहित्य पढ़ना आरंभ किया है, तब से तो नहीं, लेकिन जब से साहित्य जगत के भीतर गुटों और साहित्य में राजनीति का अहसास होने लगा, कुछ बड़ों ने कराया तो कुछ मित्रों ने कानों में कहा, तब से गौर फरमाया तो कई बातें पता चली। ये बातें कुछ नई नहीं हैं। लेकिन कोई इन बातों पर गौर नहीं करना चाहता। गौर नहीं कराना चाहता। खुद से किसी को नाराज न करने का डर भी हो सकता है। दूसरा डर खुद को अलग-थलग ने पड़ने का डर भी है। तीसरा जो हो रहा है उस पर किसी छिपे ऐजेंडे का भान भी नहीं होता होगा, अधिकतर लोगों को। 

मैं यहां एक बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूं। अक्सर मैंने इस बात को कहा भी है। साहित्यकारों ने माना भी है। लेकिन पता नहीं क्यों फिर भी उस धारा में सब शामिल हुए जाते हैं। अब आप कहेंगे कि वह है क्या। बताता हूं। स्वनाम धन्य, साहित्यकार, बुजुर्ग साहित्यकार, चर्चित-अचर्चित साहित्यकार के अवसान हो जाने पर उसके नाम पर एक से बढ़कर एक विशेषांक निकालना जैसे शगल हो गया है। उस अमुक साहित्यकार के जीवित रहने पर वो जो पीठ पीछे थाली में छेद करने की स्थिति में रहते हैं, वे देहावसान के बाद उसी की शान में कसीदे गढ़ते लेख लिखते हैं। 

दुःख होता है, जिस साहित्यकार के अंतिम दिनों में, महीनों में ही नही ंसाल दो साल से जो मिला ही नहीं, वह उसके साथ के रसभरे संस्मरण लिखता है। वह संपादक जो उस साहित्यकार की रचनाएं नहीं छापता रहा है, वह अब उन पर एक से बढ़कर एक कथित नायाब विशेषांक निकालने लगता है। वह साहित्यकार जो देह छोड़ चुके साहित्यकार से छत्तीस का आंकड़ा रखता था, वह भावपूर्ण श्रृद्धा के लेख श्रृंखलाएं लिखता है। एक से बढ़कर एक आयोजन किये जाते हैं। दिवंगत के नाम पर कई पुरस्कार और सम्मान आरंभ कर दिये जाते हैं। उसी के नाम पर जिसे जीते जी कुछ न दे पाए। उसका साथ न कर पाए। नामचीन पुरस्कार-सम्मान की कमेटी में रहते हुए उसी की रचनाओं को थोथा,उथला और कूड़ा तक कह गए। वे ही कालांतर में उसे लेखन का मसीहा घोषित करते घूमते हैं।  

आखिर क्यों? चर्चा की तो बड़ी दिलचस्प बातें सामने आईं। एक तो यह कि मरना तो हर किसी को है। जो जीते जी अपने बारे में इतना कुछ नहीं जान पाया, उसका तर्पण करने के नाम पर ही सही, कुछ कर लिया जाए। क्यों? क्योंकि जीते जी तो लड़े भी,उससे भिड़े भी। यहां-वहां कानाफूसी भी की। बुराईयां भी दी और धन-मान-सम्मान के रास्ते धकियाया भी, तो अपना लोक सुधारने के लिए कुछ अच्छी बात कर लेने में क्या जाता है। दूसरा इस बहाने दो चार लेख और लिख लिए जाएं। वैसे नही ंतो विशेषांकों में उपस्थिति दर्ज हो जाए। तीसरा साहित्य जगत में और इस दुनिया से जाने वाले के कट्टर समर्थकों, शुभचिंतकों की निगाह में संवेदनशील बन लिया जावे। चैथा अब वो तो चला गया, कुछ भी लिख लो, लिखा हुआ छपने पर भला तसदीक कौन करेगा। 

मुझे यह जानकर अटपटा लगा। कुछ इस तरह के आयोजनों में भी गया और कुछ विशेषांकों को उलटा और पलटा भी। पढ़ा भी। कई मामलों में उपरोक्त बातें सही भी साबित हुई। दुनिया से चले गए साहित्यकार के साथ बिताए दिनों,पलों का वर्णन एक से बढ़कर एक। लेकिन उस साहित्यकार की रचना पर कोई बात नहीं। दस फीसद पन्नों तक में भी उस साहित्यकार की रचनाओं को स्थान नहीं। उस साहित्यकार की रचनाओं की कोई समीक्षा नहीं। हां उस रचनाकार के बारे में एक से बढ़कर एक जीवंत संस्मरण। उसका इतना गहन रेखाचित्र खींच दिए जाते हैं कि यदि दिवंगत जिंदा हो जाए तो चरण पकड़ ले। मानों साहित्यकार इंसान नहीं था, देवता था। 

एक बात तो है मित्रों। साहित्यकारों में ही क्यों, राजा-रजवाड़ों में भी तो आत्ममुग्धता के साथ-साथ समाज में ख्याति चाहने की आकांक्षा रही है। इसी के चलते महत्वाकांक्षी क्या-क्या नहीं कर डालता। अपनों को बेगाना कर लेता है। बेगानों को अपना कर लेता है। सही-गलत की राह से जुदा दूसरी ही राह बना लेता है। गुट बना लेता है। गुट बनवा देता है। अपने को महत्वपूर्ण बनाने के लिए ऐसा रास्ता पकड़ लेता है कि लोग जब देखे तो उन्हें झुककर देखना पड़े। कुछ कहना पड़े तो विनम्रता से कहना पड़े। आलोचना करने की गुंजाइश वहां नहीं बचती। 

कितना अच्छा हो कि इस झूठ के प्रपंच को बंद कर दिया जाए। हम क्यों इतना ढोंग पालते हैं। चाटुकारिता और झूठ का मुलम्मा इतना सूक्ष्म है कि किसी को दिखाई नहीं देता! दिखाई देता है। सब इन सब झूठे विशेषांकों-सम्मानों-समारोहों में उपस्थित तो होते हैं लेकिन मौका मिलते ही सच्चाई उगल देते हैं। वह संबंधों,सिद्वांतों,रवायत और अपनी उपस्थिति की दुहाई देने लगते हैं। लेकिन इससे क्या हासिल। आज जब हम प्रेमचंद,निराला, सूर, तुलसी,मीरा प्रसाद,जायसी आदि के बारे में पढ़ते हैं तो उनका जीवन चित्र कम रचना चित्र ही अधिक सामने आता है। आज स्थिति उलट है। इस सदी की शुरूआत उलट परंपरा से हो रही है क्या? रचनाकारों की रचनाओं के चित्र कम उसके जीवन चित्र अधिक पढ़ने को मिलता है। 

मित्रों मैं यह नहीं कहता कि जीवन परिचय पाठकों के सामने नहीं आना चाहिए। आना चाहिए। लेकिन क्या पाठक रचनाओं का आस्वाद अधिक लेना चाहता होगा या रचनाकार के जीवन के बारे में अधिक जानना चाहता होगा? इस संसार से शरीर छोड़कर जाने वाले रचनाकार के साथ उन दूसरे रचनाकारों के अप्रमाणिक संस्मरण-किस्से जो किस्सा गढ़ने में अधिक माहिर हैं। ज़रा सोचिए। सोचकर मुझे भी बताइएगा। और अंत में एक बात आपसे भी, कोशिश करें कि ऐसा कुछ आप कतई न लिखें जो झूठ और काल्पनिकता के ताने-बाने में बुना जाए। हमें याद रखना होगा कि किसी के चले जाने के बाद उसके साथ बिताए गए असल जीवन को कहानी-सा गढ़ना उसे गाली देना ही होगा। 

पढ़ने के बाद विमर्श की गुंजाइश हो तो दूसरों से चर्चा कीजिएगा। यदि अपच्य हो तो मुझसे चर्चा कीजिएगा। सादर,
-मनोहर चमोली ‘मनु’
chamoli123456789@gmail.com