18 अक्तू॰ 2016

वैज्ञानिक नज़रिया और काल्पनिकता की सैर कराता प्लूटो : बाल पत्रिका

बच्चों में वैज्ञानिक नज़रिया और काल्पनिकता की सैर कराता प्लूटो
-मनोहर चमोली ‘मनु’
‘प्लूटो’ सिर्फ नाम ही काफी है। बाल साहित्य में एक नई दस्तक। जिसकी धमक पहले ही अंक से दिखाई देती है। शानदार, जबरदस्त, बेमिसाल,बेजोड़ और पठनीय। इससे बढ़कर बच्चों के लिए उनके क़रीब। मुफ़ीद। अप्रैल-मई 2016 का में पहला अंक पाठकों को समर्पित हो चुका है। वर्गाकार आकार। यानि नौ इंच चैड़ी और नौ इंच ही लंबी।

प्लूटो यानि बौना ग्रह। प्लूटो जिसे अभी तक ठीक से नहीं जाना गया। पहले नौ ग्रह में शामिल किया फिर कुछ तथ्यों-परीक्षणों और मान्यताओं के चलते ग्रहों से बाहर कर दिया गया। संभवतः बच्चों के साथ भी हम बड़े ऐसा ही करते हैं। बच्चों को बौना ही तो समझा जाता है। अक्.ल से भी और तन-मन से भी। शायद यही मंशा रही होगी, नन्हें-मुन्नों के लिए प्यारी-सी, अल्हड़-सी चुलबुली दुमाही पत्रिका प्रकाशित करने की।
आरंभिक तीन अंक के अतिथि संपादक सुशील शुक्ल हैं। बाल साहित्य में बचकाने प्रयोग करने के तौर पर विख्यात चकमक की संपादकीय टीम के अग्रणी साथी। निश्चित रूप से इस सोच के पीछे सुशील शुक्ल उन तमाम वैज्ञानिक नज़रिए को बच्चों के बीच में पहुंचाने वाली टीम के अगुवाओं में हैं जो इस महान सोच को लेकर बाल साहित्य की सैकड़ों मुश्किलों के बावजूद नए कलेवर, अंदाज और तेवर के साथ ‘प्लूटो’ को लेकर आए हैं। 
आवरण समेत 32 वर्गाकार बहुरंगीय पेजों का एक-एक पेज बच्चों को भा जाने वाला है। सम्पादक रीमा सिंह जी हैं।


मेरे जीवन के इतिहास में यह पहली पत्रिका है, जिसका प्रवेशांक ही बगैर संपादकीय लिए हुए है ! कहीं कोई संपादक के चेहरे-मोहरे का चित्र नहीं। लंबी सूची संपादकीय टीम की नहीं है। कहीं कोई सीख-संदेश-निर्देश-उलाहना नहीं। वरना, बाल साहित्य के नाम पर निकलने वाली कई पत्रिकाएं हैं जिनके संपादक अपने रंगीन चेहरे के साथ, पत्रिका में बारम्बार अपने नाम की आत्ममुग्धता के साथ, अपने अब डिजीटल हस्ताक्षर के साथ, अपने नाम और व्यक्तित्व की ख़बरों के साथ हर बार आ धमकते हैं। लंबे चैड़े संपादकीय के साथ। जिसमें रोना-चिल्लाना, सीख-सन्देश-आदर्श, राम-सीता बनने के संस्कारों का मुलम्मा लिए लंबी-थकाऊ रचनाओं बेस्वादी आचार अधिक फैला रहता है।
ऐसे में प्लूटो उम्मीद की किरण बनकर आई है। मनोरमा ने पिछले बरस अक्कड़-बक्कड़ आरंभ की है। वह मज़ेदार है लेकिन उसमें बच्चों को स्कूूली शिक्षा देने की कोशिश अधिक दिखाई देती है। वर्क बुक पैटर्न पर वो चली जा रही है। एक ओर कोशिश फिरकी की है। लेकिन वह त्रैमासिक है और एनसीईआरटी और सरकारी व्यवस्था के ताम-झाम के चलते बच्चों की पहुंच से अभी भी दूर है। यह तीसरी पत्रिका है जिसे मैं नन्हे-मुन्नों के लिए कारगर और जरूरी पत्रिका मानता हूं। 
गुलज़ार जी के हाथों आमुख पर ही सुन्दर कविता प्लूटों के नाम को चरितार्थ करती हुई। 
आप भी पढ़िए-

सैंकड़ों बार गिने थे मैंने
जेब में नौ ही कंचे थे
एक जेब से दूसरी जेब में रखते-रखते
एक कंचा खो बैठा हूँ!
न हारा न गिरा कहीं पर
‘‘प्लूटो’’ मेरे आसमान से गायब है!
अन्तिम आवरण पर ही गुलज़ार जी ने समय पर केन्द्रित दूसरी कविता लिखी है।

आप भी पढ़िए-
छोटा-सा प्लेनेट समझा था, पैदा हुआ है
मेरे सोलर सिस्टम में
मेरा नवासा-मेरा समय!
दो ही साल का है और यूँ महसूस होता है
सूरज है वो ओर हम सब
उसके प्लेनेट हैं
उसके गिर्द ही घूमा करते हैं
मोह में कैसी ग्रेविटी जैसी ताकत होती है!

भीतर सुन्दर-सुन्दर ग्रहों-सी कविताएं हैं। प्रयाग शुक्ल की कविता गिलहरी है। सूफी तबस्सुम की एक थी मुर्गी कविता है।
सुशील शुक्ल की चित्रात्मक और चर्चात्मक कविता चींटी चलती है। प्रयाग शुक्ल की केरल के केले मजे़दार ढंग से चित्रित हुई है। फोंट संभवतः अठारह के आकार है। बच्चों को ध्यान में रखकर इसका आकार तय किया गया है। प्रभात की कहानी कुतुब मीनार का पेड़ है। पूरे एक पेज पर नाव चलाती बच्ची है। नाव में एक नन्हा जानवर है। यह चित्र मरहूूम जगदीश जोशी जी का है। इस पर रंग भरने की पूरी-पूरी छूट है। चित्र भी ऐसा जिसमें कई जीव-जन्तु छिपे हैं। यह कहीं नहीं लिखा है कि रंग भरो। यह जरूर लिखा है कि क्या तुम इस चित्र में रंग भरना चाहोगे?
नरेश सक्सेना की कविता टिल्लू जी स्कूल गए है। चित्र ऐसे कि वे बोल रहे हैं। एक सुन्दर नन्हा लेख ‘तुमने हाथी देखा है?’ प्रभात की ही एक चित्रात्मक कहानी है। मज़ेदार। ये पूरे पांच पेज पर गई है। भैंस पर एक कविता है लेकिन पता नहीं किसकी है !
आप भी पढ़िए-
भैंस अकल से बहुत बड़ी
अकल बड़ी कि भैंस बड़ी
एक नहीं दो तीन बजाए
भैंस के आगे बीन बजाए
अकल की आनाकानी में
भैंस निकल ली पानी में
देख के भैंसों की एक टोली
नाक पकड़ के मछली बोली
पानी में पाॅटी मत करना।

हाहाहाहा।
एक ओर कहानी है-‘मकड़ी और मछुआरा’ मछुआरा मकड़ी के जाल को देखकर कहता है कि क्या तुम मुझे अपने जैसा जाल बनाना सिखा सकती हो?
सही है! मनुष्य ने प्रकृति से प्रकृति के जीवों से ही तो अपने जीवन को सुधारा है!

निरंकार देव सेवक की चार लाईन की कविता को पूरे दो पेज में विस्तार दिया गया है। दस फीसदी कविता और नब्बे फीसद जगह चित्र के लिए। भई वाह!
मुर्गी माँ। 
आप भी पढ़िए-

मुर्गी माँ घर से निकली
बस्ता ले बाज़ार चली
बच्चे बोले चें चें चे
अम्मा हम भी साथ चलें।
एक और कविता अनवारे इस्लाम की है।
यह भी नब्बे फीसद चित्राधारित है। यानि दस फीसद ही टैक्सट है और नब्बे फीसद चित्र से यह कविता और पुष्ट होती है। आप भी पढ़िए-
गली-गली में ठेले
केले ले लो केले
पैसे है न धेले
कैसे ले लूँ केले।

आप ई ट्रांसफर के माध्यम से HDFC बैंक के खाता संख्या-50100067091186 
IFSC :HDFC0000134 पर सदस्यता शुल्क भेज सकते हैं। एक साल की सदस्यता 300 रुपए है। दो साल की 540 और तीन साल की 720 रुपए है। बैंक ड्राफ्ट या चेक तक्षशिला पब्लिकेशन के नाम से नई दिल्ली में देय होना चाहिए। तक्षशिला पब्लिकेशन सोसाइटी के लिए सुशील शुक्ल जी का साथ तापोशी घोषाल ने दिया है। पचास रुपए इसका मूल्य रखा गया है। भीतर कुछ चित्र शशि शेटये, जगदीश जोशी, शुद्धसत्व बसु और शोभा घारे ने बनाए हैं।

फिर से आपकी नज़र कि सम्पादक रीमा सिंह हैं। अतिथि सम्पादक के तौर पर सुशील शुक्ल हैं। पत्रिका का पता है- नाॅलेज सेण्टर, सी 404 बेसमेण्ट, डिफेंस काॅलोनी, नई दिल्ली 110024. फोन नंबर है-011-41555418/428
मेल - Pluto@takshila.net 
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मनोहर चमोली ‘मनु’
मोबाइल -09412158688
मेल: chamoli123456789@gmail.com

1 टिप्पणी:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।