23 अक्तू॰ 2016

बाल साहित्य बच्चों को समझना होगा child literature

समझ रहा है साहित्य बालमन को !


-मनोहर चमोली ‘मनु’


एक अध्यापक मित्र हैं। वे बरसों से कक्षा छह से बारह के छात्रों को पढ़ा रहे हैं। हाल ही में उन्होंने फेसबुक में एक वक्तव्य दिया। वक्तव्य के साथ उस बालक को फोटों भी दी गई थी। यहां उस बालक का नाम और पहचान छिपाने के लिए बच्चे, उनके पिता और गांव का नाम बदल दिया गया है, बाकी एक-एक शब्द ज्यों का त्यों मंतव्य समझने के लिए दिया जा रहा है-
‘ये है दुरवा के मोस्ट वांटेड हीरो......... रायसन पुत्र श्री दयासन। बड़ी मुश्किल से मनाकर स्कूल लाया गया है। एक महीने की मेहनत के बाद मिला है ये जब संपर्क करने हम तीन शिक्षक इसके घर गये तब इसे गिरफ्तार कर सके। ये कक्षा 6 का हमारा विद्यार्थी बन गया है। अभी एक और गिरफ्त से बाहर है। नरेन्द्र पुत्र श्री केवल। अब उस पर फोकस किया जाएगा। वह कक्षा 9 का गत वर्ष का ड्राॅप आउट है। ये तो दाऊद के भी दादा हो गए।’
मैंने मित्र के इस कथन को औरों की तरह पढ़ा। मित्रों ने बधाई पर बधाई दी हुई थी। लेकिन मैंने बधाई देने से पहले एतराज जताया। अध्यापक जी मुझे गिरफ्तार ओर गिरफ्त का अर्थ समझाने लगे। मैंने कहा कि बच्चे के प्रति आपके प्रयास अतुलनीय हैं। लेकिन आप जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वे बच्चे को आपसे और भी दूर कर रहा है। वह चोर नहीं है। आप ने ‘मोस्ट वांटेड‘, ‘दाऊद‘ ‘गिरफ्तार‘ और ‘गिरफ्त‘ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। इनका प्रयोग किए बिना भी आप अपने प्रयासों को बेहद सरलता से जाहिर कर सकते थे। 
बहस चल पड़ी। मैंने शालीनता से जवाब दिया। बाद में वे मान गए और उन्होंने अपने वक्तव्य को बदल दिया।

अब उनका वक्तव्य यह था- ‘ये है दुरवा का मोस्ट वांटेड हीरो......... रायसन पुत्र श्री दयासन। बड़ी मुश्किल से मनाकर स्कूल लाया गया है। एक महीने की मेहनत के बाद मिला है ये जब संपर्क करने हम तीन शिक्षक इसके घर गये तब इसे स्कूल ला सके। ये कक्षा 6 का हमारा विद्यार्थी बन गया है। अभी एक और स्कूल से बाहर है। नरेन्द्र पुत्र श्री केवल। अब उस पर फोकस किया जाएगा। वह कक्षा 9 का गत वर्ष का ड्राॅप आउट है।’

अध्यापक मित्र ने फिर भी मोस्ट वांटेड का मोह नहीं छोड़ा। मैं चाहता तो कहता कि मोस्ट वांटेड का उपयोग देश-काल-परिस्थिति और संदर्भ के साथ फिर भी अखर रहा है। मैं चाहता तो उन्हें बताता कि जल,पानी,नीर और अश्रु का उपयोग करते समय हम सन्दर्भ और परिस्थिति के हिसाब से ही इनका उपयोग करते हैं। लेकिन यहां संदर्भ भाषा का नहीं था न ही व्याकरण का। यहां तो बालमन को समझने और बालक की अस्मिता का सवाल था। मैं तो बस इतना चाहता था कि हम बड़ों की दुनिया में जब भी बच्चों की बातें हों तो हम बच्चों के लिहाज़ से भी सोचे। हम यह जरूर समझने का प्रयास करें कि हमें बच्चों में जो शैतान नज़र आता है वह शैतान नहीं है। उस उम्र के स्तर पर वही उसका व्यक्तित्व है। अमूमन हर बच्चा अपनी उम्र और अनुभव के हिसाब से संपूर्ण मनुष्य है। उम्र के हिसाब से जैसे हम खुद को पूर्ण मानते हैं उसी स्तर पर बच्चे अपनी समझ और अनुभव से पूर्ण होते हैं। बशर्ते पूर्ण को सम्पूर्ण होते-होते तो हम बड़ों की उम्र ही बीत जाती है।

बाल साहित्य की भी यही स्थिति है। हम जो बड़े अपना बचपन याद करते हुए जो रच रहे हैं वो बाल साहित्य है ही नहीं। वह तो हम बड़ों का वह साहित्य है जिसे हम बीस-तीस साल बाद याद कर एक काल्पनिक दुनिया के लिए रच रहे हैं। कोई भी सजग पाठक इन दिनों छप रहे बाल साहित्य को इस लिहाज से पढ़ेगा तो माथा पीट लेगा। कारण? एक नहीं कई हैं। एक तो आज भी छप रहे अधिकतर बाल साहित्य में बच्चों की आवाजें ही नहीं हैं। आज के बच्चों की दुनिया भी उसमें शामिल नहीं हैं। हर दूसरी रचना बालमन का अपमान करती नजर आती है। बच्चों को बोदा समझना, बेवकूफ समझना, लल्लू समझना आज भी बदस्तूर चला आ रहा है।

ऐसा नहीं लगता कि बाल साहित्यकार बच्चों की दुनिया से वाकिफ हैं। बड़ों का बाल साहित्य पढ़कर लगता ही नहीं कि ये बच्चों के साथ दो पल भी बिताते हैं। अन्यथा उनके साहित्य में आदर्शवाद पढ़ने को नहीं मिलता। इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य की मुश्किलें और भी बड़ी हैं। सूचना और ज्ञान ठूंसने वाली सामग्री को भी बाल साहित्य माना जा रहा है। 

सूचनात्मक जानकारी देने के लिए कविताओं और कहानियों की मोटी-मोटी किताबें छप रही हैं। सब पढ़ेंगे पर बच्चे नहीं पढ़ेंगे। कारण ! बच्चों के मन का, बच्चों के मतलब का ही तो उसमें नहीं हैं। आदर्श की घुट्टी भी इतनी कड़वी है कि बच्चा जो जिद्दी, अड़ियल, चोर, शैतान, आलसी, झूठा, हिंसक बताया जा रहा है, एक-दो पंक्ति में दी गई छोटी सी घटना से वह सुधर जाता है। अबोध समझा जाने वाला दूसरे ही पल बदलकर होशियार हो जाता है। एक ही घर में दो भाई हैं। एक आलसी है दूसरा समझदार। बहन बुद्धिमान है और भाई बेवकूफ। फिर अचानक बेवकूफ भाई में बदलाव आ जाता है ओर वह बहन की तरह बुद्धिमान हो जाता है। बाल साहित्यकार समझते हैं कि बच्चों के लिए बेसिर-पैर का कुछ भी लिख दो, चलेगा। कल्पना के नाम पर सब कुछ संभव है। बाल साहित्य में असंभव सी बात दो पल में संभव हो जाती है।


बाल साहित्य के जानकार बताते हैं कि हर बच्चा अपने आप में अनोखा है। अदुभुत है। ऊर्जा से भरपूर है। खोजी है। जिज्ञासु है। किसी न किसी नज़रिए से उसमें मेधा है। वह अपने अनुभव से इस दुनिया को देखना चाहता है। समझना चाहता है। फिर ऐसे में क्या उपेदशात्मक, नैतिकता स्थापित करती रचनाएं से आदर्श नागरिकता का पाठ पढ़ाने की मशक्कत बाल साहित्य से ही क्यों? यदि ऐसा है तो क्यों स्वस्थ आचरण की सभ्यता अभी तक स्थापित नहीं हो सकी है। 

ऐसी स्थिति में बच्चे साहित्य से रिश्ता कैसे बना सकेंगे। अधिकतर शिक्षक भी और अभिभावकों का आज भी मानना है कि कक्षाओं में विषय की जो एक-एक किताबें हैं, वे ही बच्चे पढ़ ले गनीमत है। पढ़ने का रिवाज़ न स्कूलों में है न घर में। फिर पढ़ने के लिए जो सामग्री है भी वो बच्चों के स्तर पर ही बचकाना है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाल साहित्यकार यही समझते हैं कि बाल साहित्य यानि बचकाना साहित्य !


फिर वहीं लौटते हैं। एक अध्यापक जो हर साल, हर बार नए छात्रों के संपर्क में आता है। सालों शिक्षण करता है। लिखता है। पढ़ता है। छात्रों को आखर ज्ञान देता है। सीख-समझ और ज्ञान का विस्तार करता है। उनकी सोच और लहज़े पर मेरी तरह आप भी हैरान होते होंगे। यही हाल अधिकतर बाल साहित्यकारों का है। वे आज भी चालीस के दशक की सोच,परिस्थिति और वातावरण से अपने लेखन को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। कुछ ही बाल साहित्यकार हैं जो बच्चों में विज्ञान दृष्टि देने के लिए कलम उठाए हुए हैं। कुछ ही हैं जो बच्चों को उनकी दुनिया के आस-पास की रचनाएं उपलब्ध करा पा रहे हैं। गिनती के ही साहित्यकार हैं जो बच्चों को वह साहित्य उपलब्ध करा पा रहे हैं जिसमें उनकी आवाजें हैं। जिसमें बच्चों की भावनाएं हैं। ऐसा साहित्य बहुत कम है जो बच्चों को आगे की दुनिया की समझ को समझने की ताकत दे रहा है। ऐसा साहित्य बहुत ही कम हैं जो बच्चों में तर्क,विचार करने की ताकत देता है।

ठीक उलट आज भी बदस्तूर बेसिर-पैर की परी कथाएं, भूत-प्रेत-टोना-टोटका, अंधविश्वास, रूढ़ियों में जकड़े समाज की तसवीर पर आधारित बाल साहित्य ही देखने-पढ़ने को मिलता है। आदर्श अपनाने का आग्रह इतना तीव्र हैं कि बच्चे ऐसा बाल साहित्य क्यों पढ़ें? ऐसा साहित्य जिसमें उन्हें सीख, संदेश, आदेश, निर्देश देने पर ही जोर दिया जाता है। वीर बालक, सच्चा राष्ट्रभक्त बनने की पुरजोर वकालत करता साहित्य विपुल है। मजे़दार बात यह है कि अरबों रुपए कई अकादमियों पर हर साल खर्च हो रहे हैं। लेकिन एक राष्ट्रीय स्तर की बाल साहित्य अकादमी नहीं हैं। इससे बड़ी विडम्बना यह है कि बाल साहित्य के उन्ननयन के लिए अखिल भारतीय स्तर के सम्मान जिन्हें मिले हैं उनमें अधिकतर वे हैं जिन्हें बाल मनोविज्ञान और बालमन की समझ ही नहीं है। ऐसे सैकड़ों हैं जिनकी बाल साहित्य की एक नहीं, दो नहीं बीस-बीस पुस्तकें प्रकाशित हैं। लेकिन उनकी सभी रचनाओं को पढ़ते हुए बालमन की समझ रखने वाला कोई भी वयस्क ही अपना माथा पीट ले। फिर बालमन कैसे इनकी मोटी-मोटी पोथियां-ग्रन्थ पढ़ने को तैयार होगा !

कुछ ही बाल साहित्यकार हैं जो यह मानते और जानते हैं कि बच्चा भी अपनी उम्र के हिसाब से अपने अनुभव के स्तर पर हम बड़ों जैसा ही व्यक्तित्व है। हम बड़ों जैसा ही उसका स्तर है। वे ही बालमन को भाने वाली रचना लिख पाते हैं। इन दिनों बाल साहित्य की कई पत्रिकाएं बाजार में हैं। कई पत्र है, जो बाल साहित्य यदा-कदा प्रकाशित कर रहे हैं। इन सभी का औसत अनुपात निकाले तो मात्र तीन से दस फीसद सामग्री है जो बालमन के अनुरूप प्रकाश में आती है। ‘चकमक’ मासिक पत्रिका ही उम्मीद की एक किरण है, जो आस जगाती है कि भारत में, भारत के बच्चों के लिए कुछ मन-मस्तिष्क हैं जो सकारात्मकता के साथ उत्कृष्ट बाल साहित्य उपलब्ध करा रही है। रूम टू रीड, प्रथम बुक्स, एनसीईआरटी की बरखा सीरिज, तूलिका, भारत ज्ञान विज्ञान समिति ने कुछ किताबें पठनीय प्रकाशित की हैं।

भारत में बच्चे दोहरी मार झेल रहे हैं। अव्वल तो उनके मन को समझने वाले अधिकतर साहित्यकार ही नहीं हैं। दूसरा जो कुछ रहा-बचा छप रहा है तो वह बाजारवाद की चपेट में है। यानि यह बाजार तय कर रहा है कि कैसी सामग्री कैसे विज्ञापन और कैसी रचनाएं प्रकाशित हों। भारत में खासकर हिन्दी बाल साहित्य की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही है। अभी भारत के हिंदी भाषी राज्य अपने बच्चों को नागरिक के तौर पर देखने का मन ही नहीं पाए हैं। जब मन ही नहीं है तो उनके बारे में सोच कौन रहा है। जब उनके बारे में सोचा ही नहीं जा रहा है तो बालमन की नीतियां कैसे बनेंगी। जब कोई नीति ही नहीं हैं तो बच्चे कैसे साहित्य का आस्वाद ले रहे होंगे? 
क्या आप सोच पा रहे हैं?
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regional reporter,October 2016

-मनोहर चमोली ‘मनु’, पोस्ट बाॅक्स-23 पौड़ी 246001

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