28 जून 2017

चार दिवसीय शिक्षक समागम में ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति बढ़ाने की ओर....’ child literature

पूरा दिन एक-दूसरे के बारे में बताया

-मनोहर चमोली ‘मनु’

नैनीताल स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केन्द्र में राज्य भर के उत्साही,रचनाधर्मी एवं ऊर्जावान शिक्षक चार दिवसीय शिक्षक समागम में ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति बढ़ाने की ओर....’ विषय पर बातचीत करने के लिए जुट गए हैं।

समागम का आरंभ अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के साथी भास्कर उप्रेती ने किया। सुबह का सत्र बारह बजे से पूर्व आरंभ हुआ। उन्होंने कहा कि अक्सर सोचा जाता रहा है कि पढ़ने-लिखने वाले शिक्षक साथी एक साथ कहीं बैठें। पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर विषय पर बात करें। अपने अनुभव साझा करें। एक दूसरे को सुनेंगे। क्या पढ़ना चाहिए। पढ़ने की आदत बनी रहे, इस पर विचार करेंगे। भविष्य की दिशा तय करेंगे।
भास्कर उप्रेती ने कहा कि हम सब देखते हैं कि सूबे में शिक्षक पदों में बंटे हैं। उन्हें बुनियादी शिक्षक, माध्यमिक शिक्षक, प्रवक्ता उच्च शिक्षा का शिक्षक आदि नामों से जाना जाता है। बहुत बड़ी खाई दिखाई देती है। उस खाई को पाटने की आवश्यकता है। जैसा माहौल बना रहा है, इस दौर में अस्तित्व के संकट से गुजरना भी आज शिक्षक के लिए चुनौती है। उच्च शिक्षा से लेकर बुनियादी शिक्षा के मध्य एक-दूसरे से बहुत शिकायतें हैं। धारणाएं हैं। इन्हें समझने की जरूरत है।

कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्रदीप जोशी जी ने कहा कि इस संगोष्ठी का मक़सद और तरीका नायाब है। वातावरण और व्यक्तित्वों में आम संगोष्ठी से इतर की खुशबू साफ महसूस की जा सकती है। उन्होनंे कहा कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के रचनाशील शिक्षकों से संवाद करने का यह सुनहरा अवसर है। ज़ाहिर सी बात है कि बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। उन्होंने कहा कि आज जब छात्र की निर्भरता गूगल के भरोसे है, ऐसे में किताबों से दोस्ती की बात करना खास है। हर अपने चारों ओर देखते हैं तो पाते हैं कि विद्यालयों के पुस्तकालय वीरान हैं। छात्र उस ओर जाते ही नहीं। पाठ्य पुस्तकों की ओर भी छात्रों का रूझान नहीं है। हम आईपेड पर ही निर्भर हो रहे हैं। किताब का पढ़ना एक जीवंत अनुभव है। यह रिश्ता सूचना तकनीक के उपकरणों में बन ही नहीं सकता। आज छात्र कारपोरेट जगत की ओर बढ़ रहे हैं। पढ़ने की आदत खत्म हो गई है। उन्होंने उल्लेख किया कि नैनीताल में नारायण बुक केन्द्र हुआ करता था। आज वह बीते जमाने की बात हो गई है।

उत्तराखण्ड का इतिहास और वर्तमान भी पढ़ने-लिखने का केन्द्र के तौर पर विख्यात है। समूची दुनिया जानती है कि हमारे सूबे के लोगों में पढ़ने-लिखने की आदत है। लेकिन यह आदत अब नई पीढ़ी में तेजी से छूट रही है। इसे बनाए और बचाए रखना होगा। स्नातक ओर स्नातकोत्तर के छात्र भी नहीं पढ़ रहे हैं। फेसबुक और व्हाटस एप पर हम नई पीढ़ी को देख रहे हैं। हम कुछ मिलकर काम कर सकते हैं। आपस में बात करना, विचारों को बांटना और माथापच्ची करना बहुत जरूरी है।

प्रदीप जोशी ने कहा कि चाहे कुछ भी हो जाए विचार वह भी नया विचार ही हमारी पूंजी है। नया विचार ही तो समाज को लाभ देता है। विचार ही महत्वपूर्ण है। विचार से आगे और उससे बड़ा कुछ नहीं है। आज तो विचारों को उत्पाद के तौर पर देखा जा रहा है। युवाओं की क्षमताओं को हम विकसित नहीं कर पा रहे हैं। इस युवा शक्ति का उपयोग करना पहली चुनौती हो गया है। ज्ञान कौशल और व्यवहार। इनमें सामंजस्य नहीं दिखाई देता।

अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के खजान सिंह ने संस्था की स्थापना, मक़सद, काम करने के तरीकों पर विस्तार से बात की। उन्होंने कहा कि सूबे में हम एक दशक से काम कर रहे हैं। हम गैर लाभकारी संगठन है। हमारा मकसद है कि हम भारत के संविधान के मूलभूत सिद्वान्तों के आधार पर शिक्षक-शिक्षा को समझें। हम न्यायपूर्ण समताधारित समाज के निर्माण में संलग्न हैं। संवैधानिक मूल्यों के साथ काम करना ही हमारा तरीका है। खजान सिंह ने कहा कि हम शिक्षा के उद्देश्यों को देखें तो उसका एक बड़ा मक़सद विवेकशील नागरिक तैयार करना के तौर पर दिखाई देता है। हम क्या हर कोई भारतीय चाहता है कि हर भारतीय में भारतीयता हो। वह तर्क के साथ काम करे। वह अपने भीतर संवेदनशीलता को बनाये रखे। बचाए रखे। हम चाहते हैं कि हर नागरिक विवेकशील निर्णय लेने की क्षमता रखे। वह अपने रोजगार को आगे बढ़ाए। हम सब संवेदनशील हों। कोई भी पेशा अपनाएं पर उसके कर्म को संवेदनशीलता के साथ करें। कौशल के साथ अपना जीवन यापन कर सकें। हर कोई कल्याणकारी कार्य की ओर अग्रसर हो।

खजान सिंह ने कहा कि काम करते-करते यह भी समझ बनी कि सतत्,व्यापक और टिकाऊ काम करने से ही बेहतर परिणाम नज़र आएंगे। हम सभी को ऐसी टीम का हिस्सा बनना होगा जो शिक्षा में समाज के हित में बेहतर काम कर सके। शिक्षा, मनोविज्ञान, समझ के साथ काम करने का भाव जे़हन में रखने वाले समर्पित लोगों की टीम में शामिल होना ही चाहिए।

उन्होंने अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के प्रसार और काम करने के तरीकों पर विस्तार से बात रखी। सात राज्यों में काम के फैलाव पर भी चर्चा की। सूबे में हरिद्वार को छोड़कर सभी बारह जिलों में शिक्षकों के साथ काम करने के अनुभवों को भी उन्होंने साझा किया। उन्होंने शिक्षकों की भागीदारी, उनकी जरूरतें, उनके दुख-दर्द, उनकी समस्याओं पर भी बात करने की आवश्यकता बताई।

खजान सिंह ने कहा कि सार्वजनिक शिक्षा में काम करने वाले शिक्षक अपने-अपने क्षेत्र में काम कर रहे हैं। उन्हें एक मंच पर आना आवश्यक है। उनका एक साथ होना जरूरी है। ऐसे शिक्षक साथी जो पढ़ने-लिखने का काम करते हैं वह उत्तराखण्ड में अधिक हैं। लेकिन तब और संगठित तरीके से हमें एक-दूसरे के सहयोग की जरूरत है। अपने विचार को गहरे से साझा करने की जरूरत है। हमें एक दूसरे के सार्थक काम को आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह आयोजन पहला है। इसके आलोक में हम नए विचार के साथ आगे की योजना भी बनाएंगे।

खजान सिंह ने कहा कि हमें एक समूह के तौर पर दिखाई देना चाहिए। समूह की ताकत दिखाई भी देती है। हम परिवर्तन भी समूह के माध्यम से ही कर सकते हैं। इकाई से समूह अधिक कारगर होता है। विचारशील व्यक्तियों का समूह ही दुनिया बदल सकते हैं। समूह की ताकत हम सब जानते हैं। समूह के साथ पढ़ने-लिखने वाले आगे बढ़ेंगे तो सार्थक काम कर सकते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हमारे पास बैठने का मंच हो। विचार को आगे बढ़ाने के लिए केन्द्र हांे। बड़े बदलाव छोटे-छोटे समूहों से ही आरंभ होते हैं। पढ़ने-लिखने की संस्कृति कैसे आगे बढ़े। इस पर बात करेंगे। हम अपने व्यावसायिक मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे। हम अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को भी साझा करेंगे। हम अपने बारे में बताएंगे।
एक सहभागी शिक्षक ने सवाल भी किया। सवाल था कि सरकारी स्कूल हैं। वहां पैसा सरकार लगा रही है। हम क्यों सम्पूर्ण शिक्षा की बात नहीं करते हम क्यों शिक्षा को निजी और सार्वजनिक खांचों में बात करते हैं?

खजान सिंह ने सवाल का जवाब देते हुए कहा कि शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे दो मुद्दे हैं, जिनकी जिम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए। यह और सुदृढ़ होनी चाहिए। ये दो क्षेत्र हैं जिन्हें दुकान चलाना और मुनाफा कमाना से नहीं जोड़ा जा सकता है। निजी क्षेत्र तो मुनाफा कमाने के लिए हैं। हम सार्वजनिक शिक्षा को प्रमुख स्थान इसलिए भी देते हैं क्योंकि आज भी यहां से निकले छात्र ही पूरे समाज को संभाले हुए हैं। उन्होंने कहा कि यही सार्वजनिक शिक्षा है जहां एक स्थाई शिक्षक अपने सेवा काल में तीन से पांच हजार छात्रों को कक्षाओं में पढ़ाता है। उनके जीवन को गढ़ने में सहायक होता है। यही कारण है कि हम सार्वजनिक शिक्षकों के साथ काम करने को ही प्राथमिकता के साथ लेते हैं।

इसके बाद उपस्थित सहभागियों ने अपना परिचय दिया। स्यूएाी मल्ली,चमोली से आए घनश्याम ढौंढियाल ने अपना परिचय दिया। उन्होंने कहा कि मैं कक्षा कक्ष की शिक्षा को नए स्तर पर ले जाने के लिए प्रयास करता हूं। नवाचार पर भरोसा करता हूं। शिक्षा बहते पानी की तरह है। वह ठहरेगी तो ठहरे हुए पानी की तरह सड़ जाएगी। यही कारण है कि हम गतिविधि आधारित शिक्षण करते हैं। खेल-खेल के माध्यम से छात्रों के साथ पढ़ने-पढ़ाने का काम करते हैं।  
  
   डायट बागेश्वर से आए केवलानन्द काण्डपाल ने कहा कि बच्चों के साथ और बच्चों को पढ़ाने वाले बुनियादी शिक्षकों के साथ काम करता हूं। पढ़ने-पढ़ाने की गतिविधियों में शामिल रहता हूं। मुझे सरकारी शिक्षा पर भरोसा है। सरकारी शिक्षा ही कारगर है। वही समाज के लिए मुफीद है। अनुभवों को लिखकर प्रकाशनार्थ भेजता रहता हूं। पढ़ता रहता हूं।

द्वाराहाट से आईं अध्यापिका अनीता प्रकाश ने कहा कि आरंभ से ही लिखने-पढ़ने का शौक रहा है। दो किताबों के संग्रह आए हैं। एक कहानी संग्रह आया है। मेरे अध्यापन कार्य के बारे में ठीक से मेरी छात्राएं बताएंगी। पढ़ने-पढ़ाने का शौक है।

पौड़ी से आई अनीता ध्यानी ने कहा कि प्राथमिक से लेकर जूनियर में पढ़ाती रही हूं। साहित्य का शौक रहा है। इन दिनों संकुल समन्वय हूं। कोशिश करती हूं कि अपनी अभिव्यक्ति को शब्द दूं। पढ़ने के लिए समय निकालना चाहती हूं।  
ऊधमसिंह नगर से आए प्रियंवद ने कहा कि भाषा का विद्यार्थी हूं। पढ़ने का शौक है। घूमने के साथ-साथ सुनने का शौक है।  

गंगाणी,नौगांव,उत्तरकाशी से आए ध्यान सिंह रावत ने कहा कि विषम परिस्थितियों में पढ़ाई की है। पढ़ाया है। अपने अध्यापकों को याद करता हूं। दिल से मन से पढ़ाते थे। हर बच्चे को ध्यान में रखते थे। दूरस्थ काम किया तो लोक को करीब से जाना। एनसीएफ 2005 के काम का विस्तार अपने विद्यालय में किया। शैलेष मटियानी पुरस्कार प्राप्त शिक्षक ध्यान सिंह रावत ने कहा कि मेरे पढ़ाए हुए बच्चों ने मेरा सम्मान किया तो वह बड़े बड़े सम्मानों से बड़ा सम्मान है।

टिहरी से आए मोहन चैहान ने कहा कि उत्तकाशी का रहने वाला हूं। चैदह सालों से बच्चों के बीच काम कर रहा हूं। अक्सर सोचता हूं और इसी दिशा में काम करता हूं कि मैं बच्चों के लिए क्या कर सकता हूं। रचनात्मक अध्यापक जो भी काम करते हैं उनके लिए एक मंच हो। हम अपने क्षेत्र में महीने में एक बार बैठते हैं। अपने अनुभव साझा करते हैं। छात्रों के लिए क्या करें, यही सोचते हैं। सोचते ही नहीं उस दिशा में काम करते हैं।
पौड़ी से आए मनोहर चमोली ने कहा कि वह अक्सर असंतुष्ट रहते हैं। असहमति रखता हूं तो चाहता हूं कि छात्र भी सवाल करें। असहमति को प्रकट करें। समझ का विस्तार अपने ढंग से करें।

चिन्यालीसौड़, उत्तरकाशी से आईं मोनिका भण्डारी ने कहा कि मैं महसूस करती हूं कि विज्ञान और गणित से बच्चे हमेशा से जूझते रहे हैं। बच्चे नहीं पढ़ रहे हैं। इसके कई कारण हैं। बुनियादी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से हम ज्यादा उम्मीद करते हैं। हम पता नहीं क्यों भूल जाते हैं कि वह अपने साथ बहुत कुछ लेकर आता है। हम उसे पहले ही दिन से लिखने पर बाध्य करने लगते हैं। हम उन्हें स्थान दें। उसे संवाद करने दें। बच्चों से बात करने का मौका हम कम ही देते हैं। हम बच्चों से दूरी क्यों चाहते हैं? सबसे बड़ी समस्या है संवादहीनता है। उन्होंने कहा कि हमारा तरीका कई बार गलत होता है। हम बच्चों को अपने पास बुलाते हैं। हम बच्चों के पास कम जाते हैं। आज भी विद्यार्थियों में जेण्डर दिखाई देता है। अपना अनुभव सुनाते हुए उन्होंने कहा कि इंटरवल होता है तो बच्चियां केवल बातें कर रही मिलती हैं। तीन-चार ये खेलती क्यों नहीें। छात्राएं भी खेलें। उनके साथ हमें समय देना होगा।

उन्होंने कहा कि हर जगह लड़कियां बैठी हुई दिखाई देती हैं। मैं हमेशा सोचती हूं कि लड़कियां खेलती क्यों नहीं? संवादहीनता है। बच्चों को तैयारी करने के लिए उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। हम बच्चों के साथ सहभागी बनें। किशोरों की समस्याएं भी लेकर बच्चे स्कूल में आते हैं। हमें उनके साथ समय बिताएं। उनसे बात करें। गणित की समस्या है। गणित को और सरल ढंग से पढ़ाने के लिए हमें सोचना होगा।

गणेशपुर उत्तरकाशी से आईं रेखा चमोली ने कहा कि स्कूल बहुआयामी है ठीक है स्कूल दक्षताएं सीखाने के लिए है। स्कूल को एक यह काम भी करना चाहिए। आगे चलकर जीवन जीने का सलीका भी तो स्कूल ही देगा। दुनिया में काम करने का सलीका भी स्कूल की जिम्मेदारी है। स्कूल बाहरी दुनिया से जुड़ा हुआ क्यों नहीं होना चाहिए। हमें समझना होगा कि अपने साथियों के साथ कैसे काम करें। बाहर कैसे काम करें। हमारी संवेदनशीलता कहां चली गई? अगर स्कूल में वे बातें नहीं हो रही हैं जो घर में समाज में नहीं हो रही हैं तो  हमें वह सब साझा करना होगा जो बच्चों को घर में और परिवार में और समाज में नहीं मिल रही है। बच्चे एक दूसरे को समझते हंैं। मिलकर काम करते हैं। सवाल करते हैं। वे मदद करते हैं। शाम को ये जानने की कोशिश करती हूं कि मैंने आज क्या किया। और मैं क्या कर सकती हूं।

महाविद्यालय की शिक्षिका स्वाति मेलकानी ने अपने परिचय में लोहाघाट का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि इस विश्वविद्यालय से पढ़ी हूं। इस शहर की हूं। मुझे लगता है कि बच्चों में पढ़ने की धुन है। विज्ञान पढ़ाते समय वृक्षों की उपयोगिता को बच्चे अपने सन्दर्भ से समझते हैं। बताते हैं। बच्चों ने हमें बताया और सीखाया। मुझे लगता है कि शिक्षण ही एक रास्ता है जहां रहकर हम बच्चों को गहराई से समझ सकते हैं।

पौड़ी से आए कमलेश जोशी ने कहा कि वह मौलिक विज्ञान के शिक्षक हैं। 
विज्ञान का कोई सूत्र भी मौलिक प्रकृति से आया है। खुले परिवेश से आया है। हमारे पास जो बच्चा है वह भी खुली प्रकृति से आता है। पूर्व ज्ञान की समझ हमारे बच्चों में अधिक रहती है। किताबें उनकी तरह नहीं गढ़ी नहीं गई हैं। हमें उसके ज्ञान और समझ को आगे बढ़ाना होता है। सोशल मीडिया के तौर पर एक नया माध्यम है उसका मैं भी उपयोग करता हूं। चुनौतियां हैं लेकिन उनका सामना सकारात्मक तरीके से ही हो सकता है।  
उत्तरकाशी से आए राजेश जोशी ने कहा कि विज्ञान का शिक्षक हूं। प्राथमिक से माध्यमिक में आ गया हूं। आज हालत यह है कि दो टीचर हैं और दो ही बच्चे हैं। लेकिन आज भी ऐसे स्कूल हैं जहां बच्चे बहुत अधिक हैं। मैंने धीरे-धीरे काम किया। बच्चों से बातचीत की। शिक्षक से पहले में फार्मा का छात्र रहा। जानकार रहा। तो अपने अनुभवों के आधार पर दवाई देने लगा। इस काम ने मेरे विद्यालय में छात्र संख्या बढ़ाने में सहयोग किया। छोटे-छोटे बच्चों का भी आना शुरू हुआ। ऐसे विद्यालय में भी रहा जहां दो शिक्षक हैं और 152 छात्र रहे हैं। हम यह समझ लें कि हम ही नहीं बच्चों को समझते हैं बल्कि बच्चे भी हमें समझते हैं। हमें कक्षा कक्ष में और स्कूल में कोई सीमा रेखा नहीं खींचनी है बल्कि दायरे को तोड़ना है। हम तभी बच्चों को अच्छे समझते हैं जब हम उन्हें मौका देते हैं। वे खुलते हैं। बच्चों के परिवेश को उन्हें उनके नाम से जोड़कर उनकी दुनिया को स्थान देंगे तो बच्चे आगे बढ़ते हैं। लिखना-पढ़ना गतिविधि के साथ हो तो और भी आनंद आता है। बच्चों को जितना हम जानेंगे वह तभी हमें भी जान पाएंगे।

उत्तरकाशी से आए ओम बधाणी ने कहा कि मैं भौतिक विज्ञान का अध्यापक हू। अब सर्व शिक्षा अभियान में आ गया हूं। बीस साल की नौकरी के तौर पर मैं समझा हूं कि हमें काउंसलर के तौर पर भी काम करना होता है। उन्हें जो आता है उसे समझकर हमें पढ़ाना चाहिए। बच्चों के साथ जैसे वे हैं यदि हम बन जाएं तो और सुविधा हो जाती है। बच्चों को स्थान देना चाहिए। उनके भावों को समझें। उनका सम्मान करें।

चम्पावत से आए पूरन बिष्ट ने कहा कि मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाता हूं। हल्द्वानी में रहता हूं। अल्मोड़ा से पढ़ा हूं। कभी किताबों को हाथ में ले जाकर शान हुआ करती थी। हमने नाटक भी किए। आज हल्द्वानी जैसे शहर आकार ले रहे हैं वह कंक्रीट के जंगल हैं। इन शहरों में पैसों की बात होती है। बच्चे पढ़ते हैं। हम आज जिन बच्चों को पढ़ा रहे हैं, वह पढ़ने की ललक से पहले अभावों में हैं।  बच्चों को स्कूल में लाने से पहले उनके परिजनों से बात करनी पड़ती है। उनकी दुनिया में पढ़ने के महत्व से पहले बहुत कुछ है। अभाव है। गरीबी है। समस्याएं हैं।

हल्द्वानी से आए शिक्षक नेता महेश बवाड़ी ने कहा कि मैं नैनीताल में पढ़ा हूं। अपने दौर में बहुत कुछ पढ़ा। शिक्षक बन गया। कुछ ऐसा पढ़ लिया जिसने प्रतिरोध करना सिखाया। हस्तक्षेप करना सिखाया। हमने विद्यालयी शिक्षा के हित के लिए अधिकारियों से बहसें की। विवाद भी हुए। मतभेद भी हुए। बीस साल से भाभर के क्षेत्र में रह रहा हूं। पढ़ना भी एक तरह की बीमारी है। यह लगनी जरूरी है। पढ़ने-लिखने की बातचीत जरूरी है। गणित पढ़ाता हूं। सामूहिक कक्षाएं भी चलता हूं। मैं सकारात्मकता में भरोसा करता हूं। बच्चे सकारात्मक हों। हम केवल स्कूली किताबों पर क्यों भरोसा करें। हम क्यों नहीं कविता, कहानी, मैच आदि पर बात करते? दरअसल हमारे केन्द्र में बच्चे नहीं हैं। हम में से अधिक आने-जाने वाली नौकरी कर रहे हैं।

भूपेन ने कहा कि मैं टीचिंग में नहीं हूं पर टीचिंग में रहा हूं। पढ़ने-लिखने के काम में रहा हूं। कविता की। नाटक किए। फिल्म भी की। सत्रह साल में बारह नौकरी की। हमारे सोचने-समझने का तरीका होता है, हम वैसे ही हो जाते हैं। साझा करने की आदत खत्म हो रही है। ज्ञान की राजनीति न हो। कक्षा-कक्ष में ज्ञान तभी फैलेगा जब कक्षा में भेदभाव न हो। बच्चों को सम्मानित करने का दायित्व भी हमारा है। पारम्परिक तरीके पर सवाल करने की जरूरत है। आलोचना करने का अधिकार दें। सीखने की प्रक्रिया कैसे आए। कक्षा कक्ष में हम सबको अवसर दें। ज़्यादा बेहतर इंसान दें। मेरे छात्रों में मैं लोकप्रिय हूं। वे मेरे दोस्त भी हैं। टीचर बहुत बदलता है। यदि सवाल करे वह बच्चों से। उन्हें सवाल करना सिखाए।

बाजपुर से आए सुरेश चन्द्र भटृट ने कहा कि ग्यारह साल से पढ़ा रहा हूं। उन्होंने कहा कि छात्रों के मन में मेरी क्या जगह है ये तो वे ही बता सकते हैं। लेकिन संस्थाध्यक्षों की आंखों में हमारे जैसे लोग खटकते हैं। हम हस्तक्षेप करते हैं। बच्चों के हितांे की बात करते हैं। इस हस्तक्षेप को बढ़ाए जाने की जरूरत है।  हमने स्कूल में वो सब करने की कोशिश की जो बच्चों को पसंद आए। पुस्तकालय को जीवंत किया। दीवार पत्रिका का काम किया। बच्चों में रचनात्मकता के काम करता हूं। परम्परागत अध्यापक से मैं अब नवाचारी काम करने लगा हूं। सीखता हूं। बच्चों को समझने की कोशिश करता हूं। बच्चों के संस्मरण आते हैं। उनमें लेखन कला का विकास करता हूं। लोक कथाओं, स्थानीय संस्कृति पर लेखन करवाता हूं। उन्हें समझते हुए करियर और काउंसलिंग करने की कोशिश भी करता हूं।

नैनीताल से आए विनोद जीना ने कहा कि यह सही है कि अधिकतर शिक्षक स्कूल आना और जाना ही अपना काम समझते हैं। अर्थशास्त्र पढ़ाते हुए मुझे लगता है कि यदि सन्दर्भ से बात करंे तो बच्चे खुलकर बातें करते हैं। बच्चों से सीखने को मिलता है। मैं सोचता हूं कि हम यहां आए सुझावों का कैसे अपने स्कूल में इस्तेमाल करें यह चुनौतीपूर्ण है और इसे करना ही होगा। भले ही यह समस्या के तौर पर देखना हमारी सोच है लेकिन मैं यह भी जानना चाहंूगा कि नवाचारों का आप सब लोग कैसे इस्तेमाल करते हैं। यह समझना भी अपने आप में सीखना है। बहुत सारी चुनौतियां हैं जिनमें यह सवाल हमें परेशान करता है कि हम और हमारे स्कूल यदि इतने गुणवत्तापूर्ण हैं तो हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ा पाते हैं।

कल्जीखाल पौड़ी से आए मनोधर नैनवाल ने कहा कि वह बुनियादी स्कूल में विज्ञान पढ़ाते हैं। अध्यापन से पहले पन्द्रह साल बेरोजगारी को बेहद करीब से देखा है। बहुत सारी असफलताएं देखी हैं। असफलताओं के साथ मेरी जिद भी बढ़ती गई। मैं लक्ष्य बनाता हूं तो पाता हूं कि मैं उन लक्ष्यों को हासिल भी कर लेता हूं। शायद जीवन में जो असफलताओं का सामना किया उन्हीं की वजह से मेरी जिद पूरी हो जाती होंगी। एससीईआरटी के सेवारत प्रशिक्षण लिए और दिए भी। कंप्यूटर के साथ शिक्षण कार्य किया। कंप्यूटर सीखते-सीखाते एक समूह की जरूरत पड़ी। मिल-जुल कर सृजन समूह का गठन किया। 2008 में सृजन समूह बनाया। तभी से हम कुछ शिक्षक बैठते हैं। शिक्षा के सरोकारों से जुड़े मसलों पर चिन्ता करते हैं। उन्हें साझा करते हैं।

रुद्रपुर महाविद्यालय की इतिहास प्रवक्ता अपर्णा सिंह ने कहा कि यह बात भी सही है कि बच्चे पढ़ते नहीं। लेकिन यह बात भी उतनी सही है कि उन्हें पढ़ने के अवसर कितने मिलते हैं। उन्हें पढ़ने के लिए विविधता से भरी पुस्तकें काॅलेज में मिलती भी है या नहीं। यह भी गौर करना जरूरी है कि यदि वे पढ़ने आते हैं तो अध्यापक उन्हें पढ़ाने के लिए कितना तत्पर हैं। हां यह बात भी सही है कि यदि हम उनसे जुड़ते हैं तो वे भी हमसे जुड़ने के लिए तैयार रहते हैं।

चकराता के भटाड़ से आए निरंजन सुयाल ने कहा कि मेरे अध्यापन में पहाड़ शामिल है। स्थानीय सरोकारों की पत्रिकाएं और पत्र शामिल है। पढ़ाने के साथ-साथ पहाड़ को पढ़ना मेरा काम है। यह के कामों को,पीड़ाओं को समझना भी मेरा काम है।

अगस्त्यमुनि से आए गजेन्द्र रौतेला ने कहा कि हमारे भीतर की आवारगी और घुमक्कड़ी जिन्दा रहनी चाहिए। जिंदगी तो बहती नदी है। इसे नहीं थमना होता है। हमारे पैरों को भी नहीं थकना चाहिए। हम जहां हैं वहां की जिंदगियों को समझना भी हमारा काम है। जड़ों से जुड़े रहना और उसे समझना भी जरूरी है। गजेन्द्र रौतेला जी ने कहा कि शिक्षक की भूमिका केवल विद्यालय में ही नहीं है। स्कूल से बाहर भी हमें काम करना होगा। संवाद समुदाय से हों तो कोई परेशानी नहीं होती। उन्होंने कहा कि यदि देखा जाए तो सुदूर गांव में अध्यापक अपने आप में एक सरकार है। वह केवल पढ़ाता ही नहीं है। वह सारे काम में सहयोग भी करता है।

रानीबाग से आए दिनेश कर्नाटक ने कहा कि जब सेवा में आया था तो बड़ी उम्मीदें लेकर आया था। लेकिन धीरे-धीरे लगा कि अधिकतर अध्यापकों में निराशा ज़्यादा है। लेकिन आशावादी नज़रिए वाले अध्यापकों की भी कमी नहीं है। हमने दख़ल प्रारंभ किया। पर्चा निकाला। धीरे-धीरे शैक्षिक दख़ल ने आकार लिया। आज 1300 से अधिक सदस्यों तक पत्रिका सीधे पहुंच रही है। हम यह समझ पाए हैं कि शिक्षा की भी राजनीति होती है। शिक्षा में भी राजनीति होती है। हां हम यह समझते हैं कि एक समान शिक्षा को लागू करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि शिक्षक का काम केवल पढ़ाना ही नहीं होता। वह शिक्षा से जुड़े और भी कामों में हस्तक्षेप करे। उन्हें समझे। जाने और विमर्श का हिस्सा बने।

 
पिथौरागढ़ से आए निर्मल ने कहा कि मैं दो हजार छह से शिक्षा में काम कर रहा हूं। बच्चों के साथ मिलकर काम किया। बच्चों को अपने आस-पास के बारे में जानने वाले काम किए। बच्चे अपने आस-पास के काम को करने में आनंद लेते हैं। आवासीय विद्यालय में काम करने का अलग आनंद है। छात्र में ग्रहण करने का भाव भी बेहद जरूरी है। वह उसके अंदर से होना चाहिए।    

टिहरी से आए सुनील डंगवाल ने कहा कि तेइस साल से पढ़ा रहा हूं। लेकिन जो उत्साह पहले था उसे आज भी बनाए रखा है। पढ़ने लिखने का काम कक्षा से बाहर भी करने की जरूरत है। पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना और उनमें लिखना भी हमारे काम का हिस्सा होना चाहिए। सुनील डंगवाल ने कहा कि प्रातःकालीन सभा में बच्चों के साथ बेहतर ढंग से काम किया जा सकता है।

उत्तरकाशी से आए सुन्दर लाल नौटियाल ने कहा कि अभी सीखने का दौर है। आज समझ में आ रहा है।  उन्होंने कहा कि हमारी वैचारिक शून्यता को तोड़ने का समय है। हमारी कार्य संस्कृति में जनपक्षधरता दिखाई देनी चाहिए। निजी से अधिक हम सामूहिकता की ओर बढ़ें। शिक्षक का काम पढ़ाना है और लगातार पढ़ना भी है।
 
पिथौरागढ़ से आए चिन्तामणि जोशी ने कहा कि मुझे तो अपने अध्यापन कार्य पर गर्व होता है। उन्होंने बाल साहित्य में चस्का लगने का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि मैंने एक खरगोश के बदले में पत्रिकाएं पढ़ने की शुरूआत की। जिन्दगी में सीखने-सीखाने का मौका हर बार हर समय मिलता रहता है। हमें अपने आस-पास के परिवेश को गहराई से समझने की जरूरत है।

पिथौरागढ़ से आए गिरीश चन्द्र पाण्डेय प्रतीक ने कहा कि पिछले ग्यारह सालों से पढ़ा रहा हूं। मैं भी बदला हूं। बच्चों ने मुझे भी बदला है। बच्चों के साथ लगातार दूर्गम में रहने के कारण मैंने लोक को समझा है।

अगस्त्यमुनि से आए मनोज कंडियाल ने कहा कि दूर-दराज में रहने से हमने गांव को समझा, बच्चों की समस्याएं और मनस्थिति को समझा। मैं गणित पढ़ाता हूं। लेकिन केवल गणित नहीं पढ़ाता। गणित के किस्से भी सुनाता हूं। विज्ञान पढ़ाता हूं। विज्ञान नहीं पढ़ाता विज्ञान से जुडें व्यक्त्यिों,घटनाओं और बातों के किस्से सुनाता हूं। हमें बच्चों में लेखन को बढ़ाने के लिए नए-नए तरीकों को समझना होगा। हमें बच्चों को सपने दिखाने होंगे। उनके अपने सपने हों। वह उन सपनों को अपनी आंख से देंखें। उन्हें साकार करने के लिए आगे बढ़ें।

खजान सिंह ने समय को ध्यान में रखते हुए लगभग सात बजे से पूर्व एपीएफ के साथियों का परिचय भी दिया। जिनमें प्रतिभा कटियार, चन्द्रकला, भास्कर उप्रेती, विवेक सोनी, प्रमोद पैन्यूली, प्रियम्वद, मदन मोहन पाण्डे, कमलेश जोशी प्रमुख थे। सुबह ठीक छह बजे टिप एण्ड टाॅप घूमने जाने के संकल्प के साथ पहले दिन का समापन हो गया।

-मनोहर चमोली ‘मनु’
9412158688 

पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर का दूसरा दिन child literature

पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर का दूसरा दिन

शिक्षकों को महती जिम्मेदारी को गहरे से समझना होगा


-मनोहर चमोली ‘मनु’

शिक्षकों के चार दिवसीय समागम के दूसरे दिन का आरंभ सुबह छह बजे नैनीताल के विहंगम दृश्य को देखने से हुई। सहभागी टिप एण्ड टाॅप की पहाड़ी पर गए। नैनीताल स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केन्द्र में राज्य भर के उत्साही, रचनाधर्मी एवं ऊर्जावान शिक्षक चार दिवसीय शिक्षक समागम में ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति बढ़ाने की ओर....’ विषय पर बातचीत करने के लिए जुटे शिक्षकों के मध्य दूसरे दिन साहित्यकार एवं विज्ञान लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी एवं प्रसिद्व इतिहासविद् शेखर पाठक रहे। 

परिसर के सभागार में दूसरे दिन के पहले सत्र में पहले दिन की बातचीत का समेकन दिनेश कर्नाटक ने किया। इससे पूर्व संगोष्ठी का समन्वय कर रहे भास्कर उप्रेती ने कहा कि आगे बढ़ने से पहले पिछले अनुभवों का सार संक्षेपीकरण करना ठीक रहेगा। 

दिनेश कर्नाटक ने पहले दिन की बातचीत को समेटते हुए कहा कि यह एक नई तरह की पहल रही है। हम एक-दूसरे के कामों को रेखांकित कर रहे थे। हम अपने बारे में कम बता रहे थे लेकिन हमारे बारे में हमारे दूसरे सहभागी बता रहे थे। उन्होंने कहा कि हम अपने बारे में समग्र ढंग से नहीं बता पा रहे थे। इसके पीछे यही कारण है कि शायद हम सभी ने सामूहिकता से ज़्यादा सीखा है। व्यक्तिगत प्रयासों से सीखने-समझने में कुछ भी जाना है वह कहीं न कहीं पहले से मौजूद समाज की सामूहिकता का ही प्रतिफल है। 

दिनेश कर्नाटक ने कहा कि हम अपने काम को दिखाएं इससे अच्छा हो कि हमारे काम को दूसरा देखे और वह हमारे बारे में बताए। बतौर लेखकीय कर्म का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमारा लेखन सामूहिक चेतना का रूप है। उसकी अभिव्यक्ति है। यहां पहले दिन यह अच्छी बात देखने और सुनने को मिली कि हम सबने सच्चाई से अपनी बात रखी। हम जो हैं, हमनंे स्वयं को वैसे ही प्रस्तुत किया। अध्यापक में आलोचनात्मक विवेक आज की जरूरत है। उन्होंने कहा कि शिक्षक के लिए विद्यालय आने-जाने का मात्र एक केन्द्र नहीं है। हम बच्चों में कक्षा के प्रति और विद्यालय के प्रति लगाव जगाने का काम गहराई से करें। खेल, संगीत बुनियादी विषय हैं। ये नियमित हों। हमारे शिक्षक अपने दायरे में सिमटे हुए नहीं है। वह विद्यालय तक सीमित नहीं हैं। यही कारण है कि हर चीज़ को निजी बनाने की आदत समाज की सामूहिकता के लिए घातक है। इसे समझने की आवश्यकता है। 

इसके उपरांत भास्कर उप्रेती ने देवेन्द्र मेवाड़ी जी का परिचय पढ़ा। दस बजकर पैंतीस मिनट से देवेन्द्र मेवाड़ी जी का संबोधन आरंभ हुआ। चाय से पूर्व एक घण्टे का संबोधन में देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने अपने बचपन और बुनियादी शिक्षा से लेकर अपनी पढ़ाई और रोजगार के साथ विज्ञान को जोड़ते हुए सहजता से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मैं कालागढ़ नैनीताल से लगभग एक सौ किलोमीटर दूर का ही बाशिंदा हूं। तिहत्तर साल से इस ग्रह में हूं। मनपंछी मेरा पहाड़ में ही रहता है। मैंने जितने सपने देखें हैं उनमें एक भी सपना ऐसा नहीं है जिसमें पहाड़ न आता हो। रंगीन चिड़िया ही मेरे सपनों में होती है। मैं पहाड़ में ही जीता हूं। अपने गांव की प्राइमरी पाठशाला से ही पढ़ा हूं। मेरी मां का जोर था कि मुझे पढ़ना है। जिंदगी भर पढ़ना है।

श्री मेवाड़ी जी ने बताया कि मां कभी स्कूल नहीं गई लेकिन वह चाहती थी कि मैं पढ़ूं। देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने अपने बचपन और बुनियादी स्कूल की पढ़ाई और जीवन के बारे में विस्तार से बताया। बचपन में उठने वाले सवालों की ललक के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि प्रकृति ने मुझे सवाल करना सिखाया। बुनियादी शिक्षक से पहले मेरी मां और प्रकृति ही मेरे शिक्षक रहे हैं। पुस्तकों को दोस्त बनाने से पहले ये दोनों ही थे जिन्होंने मुझे ऐसा बनाया। 

विज्ञान कथाकार ने अपनी लेखन यात्रा की सिलसिलेवार कड़ियां जोड़ते हुए बतया कि स्कूल में पढाई करते हुए मुझे एक विज्ञान आधारित पत्रिका मिली। उसने मुझे मेरे सवालों का जवाब देना आरंभ किया। हम सवाल पूछते और संपादिका जवाब देती। धीरे-धीरे मेरे सवालों के जवाब शिक्षकों से मिलने लगे। उन्होंने कहा कि अधिकतर सवालों के सही जवाब विज्ञान देता है। यही कारण रहा कि मैं विज्ञान की ओर बढ़ता चला गया। मेवाड़ी जी ने कोयल और कौए सहित कई पक्षियों के व्यवहार पर खूब बातें की। मौसमों पर बात की। पेड़ों के बारे में बात की। प्रकृति के मित्र सालिम अली को याद करते हुए मेवाड़ी जी ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी बात की। 

चाय के बाद विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन नौडियाल। मानव संसाधन विकास केन्द्र के निदेशक अतुल जोशी भी सभागार में उपस्थित हुए। इस अवसर पर शैक्षिक दखल के नवीनतम अंक का विमोचन हुआ। विमोचन में  उपरोक्त सहित एपीएफ विश्वविद्यालय, बंगुलुरू से आए मनोज कुमार, महेश बवाड़ी, खजान सिंह भी उपस्थित रहे। अतुल जोशी ने कहा कि मानवता और नैतिकता को आज भी जगह दिए जाने की जरूरत है। आज आवश्यकता इस बात की है कि पढ़ने-लिखने को कैसे बढ़ाया जाए। उन्होनंे कहा कि सारे पेशों में हम शिक्षकों का पेशा ही एक मात्र ऐसा पेशा है जिसकी ओर समाज बहुत उम्मीदें लिए रहता है। हम शिक्षकों को भी स्वयं को अद्यतन करने की जरूरत है। नई पीढ़ी के साथ चलना भी चुनौतीपूर्ण है। 

विश्वविद्यालय के कुलपति श्री नौडियाल जी ने सहभागियों का स्वागत करते हुए कहा कि ये हमारे लिए खास आयोजन है। यहां जो सहभागी आए हैं वे उन छात्रों को पढ़ाते हैं जो बाद में हमारे विश्वविद्यालय का हिस्सा बनते हैं। तकनीकी और प्रौद्योगिकी की बात से इतर सीधे क्षेत्र से काम को समझना मेरे लिए भी नया है। उन्होंने कहा कि आब्र्जवेशन ही तो विकास की पहली सीढ़ी है। चायना पेटेण्टों का देश हैं। सोचने, पढ़ने का, मनन करने का ज़ज्बा हमारे भीतर अभी तक नहीं है। हमने अपने ज्ञान को अभिलेख में नहीं किया। हम स्मृति में ही रहे। अन्यथा हमारा देश पुरातन समय में सूचना तकनीक में गौरवमयी पहचान का देश रहा है। 

दोपहर बाद लगभग दो घण्टे के सत्र को देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने रोचकता के साथ पूर्ण किया। विज्ञान पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान और साहित्य को वे एक ही मानते हैं। उन्होंने कहा कि हम विज्ञान को अनुवाद के तौर पर न लिखें। हम सरल शब्दों में लिखें। उन्होंने मशहूर शेर भी सुनाया कि अपना कहा आप ही समझें तो क्या समझे। मज़ा तब है जब एक कहे और दूसरा समझे। उमैं जो कुछ लिखूं वो पढ़ने वाला समझ ले। मैं जिसके लिए लिख रहा हूं उसकी समझ में आ जाए। विज्ञान लेखन भी ऐसा ही है। हम चंद्रयान और मंगलयान की बात कर रहे हैं। अब इसे यदि चिट्ठी लिखकर मां, पिता या दादा को बताना है तो कैसे बताना है। हमें ऐसा लेखन करना होगा। 

देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि हम हमारे पुरखों को देखें तो वह दो पैरों पर खड़ा हो गया। दो पैरों को हाथ में तब्दील किया। उसने आग को समझा। हथियार बनाना सीख लिया। लुढ़कना देखकर उसने पहिया बनाया। बैलगाड़ी बनाना सीख लिया। सालों के सफर में पहिए के आविष्कार से इंसान कहां से कहां पहुंच गया। हम ग्रहों में चले गए हैं। ये जानकारियां मौखिक से, स्मृति से और वाचिक परंपरा से आते-आते यहां तक आई हैं। ये हमारे पुरखों की मेहनत हैं। सूर्योदय को देखना तो आज भी जारी है। हमारे पुरखे भी देखते रहे। समझ बढ़ाते रहे। 

उन्होंने कहा कि हम छात्रों में सूर्योदय और सूर्यास्त को कैसे समझाएं। दार्शनिकों में अरस्तु का नाम लिया जाता है। जो जैसा दिखाई देता है वैसा ही होता है। अरस्तु ने कहा। उसने यह भी कहा था कि भारी वजन और हलके वजन की एक साथ नहीं गिरते। यह मत उन्नीस सौ साल तक ऐसा ही चलता रहा। गैलिलियों ने सन्देह किया। उसने सिद्व किया कि यदि हवा का अवरोध न हो तो भारी हलके वजन की वस्तुए एक साथ धरती पर गिरेंगी। बाद में इसका अनुभव चंद्रमा में करके देखा गया। वहां वे वस्तुए एक साथ गिरी। हम जानते हैं कि एक समय था कि हम इतना जानते थे कि धरती ही केन्द्र है। बाद में कोपरनिकस और फिर गैलीलियों ने सूर्य को केन्द्र में बताया। बहुत विरोध हुआ। हम मानते रहे कि चांद प्यारा है। सुन्दर है। गैलीलियों ने लिखा था-‘‘चन्द्रमा में गड्ढे हैं। वह उबड़-खाबड़ है। अंधकार से भरा है। रूखा-सूखा टीला है।’’ बहुत विरोध हुआ। 

बहुत बाद में गैलीलियों की बातों की पुष्टि हुई। विज्ञान अवलोकन, व्याख्या और निष्कर्ष के आधार पर ही किसी बात को स्वीकार करता है। विज्ञान में जो कुछ हुआ है वह एक विज्ञान की विधि का परिणाम है। धर्म ग्रन्थ में परिवर्तन नहीं होता है। विज्ञान बदलाव का स्वागत करता है। न्यूटन महान है। लेकिन न्यूटन के सिद्वान्तों पर कालान्तर में बदलाव हुए हैं। उन्होंने कहा कि विज्ञान के रहस्यों को आम जन तक कैसे पहुंचाएं? इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि एक वैज्ञानिक हैं। उसके अध्ययन की एक तकनीकी भाषा है। खोजों के वर्णन की एक भाषा है। दूसरा वर्ग वह है जो वैज्ञानिक भाषा को समझता है। जानता है। अब यह काम शिक्षकों का है कि वह अपनी भूमिका को समझे। बेहद जटिल, भयंकर, दुरूह कठिन काम को आसान करने का काम ही शिक्षक का काम है। शिक्षक ही कठिन विज्ञान की अवधारणाओं को सरल कर विज्ञान को कक्षा में ले जाते हैं। विज्ञान को आसान करने के लिए शिक्षक ही उसे सरल शब्दों में व्यक्त करते हैं। 

आम जन के साथ छात्रों के साथ सरलता के साथ बेहतर संवाद का अध्यापक ही जरिया बन सकते हैं। आम जन के पास मिथक हैं। भूत प्रेत हैं। अंधविश्वास हैं। नर बलि है। उल्लू को पकड़कर मारा जाता है। नरबलियों की घटनाएं हो रही हैं। विज्ञान आमजन से दूर है। उन्हें विज्ञान के करीब ले जाना होगा। मीडिया की भूमिका बहुत खास है। आम जन का बौद्विक विकास कैसे होगा? समाज के उत्थान के लिए हमारी सोच वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरी हो। अंधविश्वासों को दूर करने के लिए दाभोलकर जैसे लोगों ने अपना जीवन दे दिया। सूर्यग्रहण को उत्सव के तौर पर देखना अब आरंभ हुआ है। लेकिन आज भी कई हैं जो दरवाजा बंद कर देखते ही नहीं।

देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि यदि सरल लिखा जाए और विभिन्न शैलियों में लिखा जाए तो बात दूर तक जाती है। हम ऐसा लिखें जो पहचाना जाए। पढ़ते ही पहचाना जाए कि वह आपका है। लिखने का असर कहां तक होता है ये हमें तुरंत पता नहीं चलता। हम नहीं कह सकते कि आपका लिखा कब-कब और कितने पाठक पढ़ते हैं। उनमें पढ़कर क्या असर होता है? कितना होता है? यह कहना कठिन है। अगर हम अलग तरक से लिखते हैं तो पहचाने जाते हैं। हम अपने समय को दर्ज करें। अपने समय को अपने शब्दों में दर्ज करें। हमारे आज को ही हमारी रचनाएं प्रदर्शित करती हैं। उन्होंने एक पांच साल की बच्ची का एडमिशन से पूर्व लिए जाने वाले साक्षात्कार का बड़ा ही रोचक प्रसंग पूरी कहानी के साथ सुनाया। उन्होंने बताया कि बच्चों की कहानियों में सीता अपहरण और रावण से उसको छुड़ाने में हनुमान स्पाइडर मैन की मदद लेता है। हल्क को बुला लिया। डोरा डोल को बुला लिया। इस बीच कुछ सवाल भी सहभागियों ने देवेन्द्र मेवाड़ी से पूछे। भूपेन्द्र ने सवाल किया कि जिस तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाज में होना चाहिए था हुआ नहीं हैं। क्यों?

देवेन्द्र मेवाड़ी ने जवाब दिया कि यह आज भी रहस्य-सा है। तमाम कारण हैं। आज भी बच्चों को भूतों के नाम से डराया जाता है। अंधेरा को डर का प्रतीक बताय जाता है। इससे इतर कि सच का साथ दो। खाली सुनी सुनाई बातों पर विश्वास न करो। इसे एक तरफ रखकर ईश्वर की आड़ में तमाम तरह की भ्रांतियों से बच्चों को बचपन से परिचय कराया जाता है। चोला बदलकर वेश बदल कर रहने वाले कई हैं। जो सेमिनारों में सूट-बूट पहनते हैं। विज्ञान के नाम पर खाते-कमाते हैं और सुबह शाम रुद्राक्ष की मालादि पहनकर मंत्रोच्चारण में घंटों खपाते हैं। एक सवाल महेश बवाड़ी ने किया। उन्होंने पूछा कि कितनी परिस्थितियां बदल गई हैं लेकिन हमारी संवेदनशीलता कहां चली गई हैं?

देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि यह सब हमारी संवेदनशीलता का मामला है। कश्मीर की एक पत्रकार हैं। उनका एक दिन मुझे फोन आता है कि क्या आप एक बच्चे के लिए एक रुपया हर रोज एक महीना का दे पाएंगे? उन बच्चों के लिए जिनके पास कुछ भी नहीं है। ऐसे बच्चों के लिए साहस संस्था ने काम किया है। ऐसे काम करने वाले लोगों को, संस्थाओं को सहयोग देना ही चाहिए। 

ओम बधाणी ने सवाल किया कि पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर बच्चों को प्रेरित करें। यह बात सही है। लेकिन जब गुगल गुरु है। ऐसे जमाने में ऐसा क्या करें कि पढ़ने के लिए प्रेरित कैसे करें?

इस सवाल के जवाब में देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि युवा पीढ़ी सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही है। मैं स्वयं 2013 से फेसबुक में हूं। मेरे कई मित्र हैं। पाठक हैं। फेसबुक का इस्तेमाल कर रहे हैं। हमें कुछ नए साधन खोजने होंगे। उन नए तरीकों का सही इस्तेमाल करना होगा। मैं छोटी-छोटी चीजों पर सोचता हूं। लिखता हूं। पाठक पढ़ते हैं। तमाम लोग पढ़ते है। राय देते हैं। नए तरीके तो खोजने ही होंगे। कुछ और सवाल यह हैं-
कमेलश जोशी -साहित्य रस देता है। इसके माध्यम से हम अपने उद्देश्यों को पूरा करते हैं। विज्ञान के मौलिक चिन्तन को जब हम समझ पाते हैं। बोल  पाते हैं। ऐसे में भाषा के विरोधाभास को कैसे तोड़े? अपनी भाषा से दूसरी भाषा में जाने से बच्चे बहुत कुछ खो रहे हैं। क्या करें?

जवाब-मुझे एन सी पन्त का एक प्रसंग याद आ रहा है। वह कीट विज्ञानी हैं। वे कहा करते थे कि हम हिन्दी माध्यम से आते हैं। एक भाषा जिसमें हम बड़े हुए है। ठीक उसी समय में जब हम और समझ विस्तारित करने लगते हैं तब हमारी भाषा बदल दी जाती है। हमारी जड़े कट जाती हैं। हम अपनी ही भाषा में पढ़े होते हैं तो ज्यादा काम होता। यह तो है लेकिन सारा मामला भाषाओं का ही तो है। अपनी मूल भाषा में ही सब कुछ पढ़ने-लिखने को मिले तो बात बने। ऐसे काम तलाशने होंगे। 

मोनिका भण्डारी-क्या आप ईश्वर को मानते हैं?
जवाब-मैं इसे ऐसे देखता हूं। सूर्यग्रहण लगता था, थाली बजती है। राहू-केतू ने सूरज को निगल लिया है। ऐसा कहा जाता था। हमारे बचपन में ही पशु बलि दी जाती रही है। संवेदनशील व्यक्ति को महमूद कहानी पढ़नी चाहिए। शैलेश मटियानी जी की। पाकिस्तानी लेखक मंशायाद की कहानी-डंगर बोली। गीता गैराला की चखूली। मैं जल चढ़ाता हुआ दिखाई दे सकता हूं। सूर्य को जीवन को बनाए रखने के लिए जल चढ़ाता हूं। मैं पैड़ों को प्रणाम करता हूं। मेरे पेड़ मेरे लिए सांसे तैयार करते हैं। मेरे तो वे ही ईश्वर हैं। बचपन से ही बच्चों को सही बताना चाहिए। गलल का अहसास करना चाहिए। बच्चों को तैयार करना होगा कि वह तर्क के साथ सोचें और आगे बढ़ें। 

अपर्णा सिंह- बच्चों में क्यों नहीं विज्ञान का प्रभाव पड़ रहा है?
जवाब-विज्ञान तर्क से आगे बढ़त है। हमारे तर्क होगे। हमारा चिन्तन तर्क आधारित होगा कि हमारे आस-पास के अंधविश्वास दूर होंगे। मानसिक सोच को बचपन से काटा-पीटा जाता है। यदि बच्चों को समझाया जाए तो वह विज्ञान सम्मत बातें मानेंगे। विज्ञान लेखन में सम्मोहन हो। आतार्किक बातों की ओर सम्मोहित क्यों हों?

सुन्दर लाल नौटियाल-मान्यताओं को एकदम से न नकाराना क्या ठीक होगा। ऐसा सोचना सही है क्या?
जवाब-हमें समझना होगा कि हमेशा सही बात का ही प्रचार-प्रसार नहीं होता। गलत और भ्रामक बातें भी प्रचारित होती हैं। सही तरह से समाज में क्या प्रचारित होना चाहिए था और क्या प्रचारित हो रही हैं। हमें इसे समझना होगा। पांचवी सदी में यह पुष्ट हो गया था कि धरती घूमती है। लेकिन यह तर्क प्रकाश में नहीं आया। समाज में हम क्या फैला रहे हैं। आर्यभट्ट की बातों को फैलाया नहीं गया। कोपरनिकस और गैलिलियों की तो बातें तो बहुत बाद की हैं। 

दोपहर के भोजनोपरांत का सत्र प्रसिद्ध इतिहासविद्ध शेखर पाठक का रहा। उन्होंने कहा कि पिछले कई सालों से सोचता रहा हूं कि कुछ बेचैन लोगों के साथ बात करने का अवसर मिले तो कितना अच्छा होता। इस आयोजन की सूचना मिली तो अच्छा लगा। यह आयोजन कुछ रचनाशील लोग ही कर सकते हैं। यह सिलसिला चलते रहना चाहिए। यहां आकर अपने दो-तीन शिक्षक याद आ रहे हैं। हम सोचते थे जब हम बुनियादी स्कूल में पढ़ते थे कि हम क्यों एक ही प्रार्थना करें। एक अध्यापक आए जिन्होंने हर दिन अलग प्रार्थनाएं करने का अवसर दिया। एक अध्यापक थे जिन्होंने मेरे जे़हन में पूरी दुनिया का इतिहास हो सकता है। यह बात बिठाई। यह मेरे मन में बैठ गया। जब हम माध्यमिक में आए तो हमारे एक अध्यापक थे जिन्होंने सामान्य ज्ञान का सत्र रखा। हम सवाल करते थे। पढ़ाई की घोषित लाईन से बाहर इन तीन अध्यापकों ने मुझे आज भी उन बातों को भूलने नहीं दिया। 

शेखर पाठक ने कहा कि शिक्षा वह है जो हमें मुक्त करती है। लेकिन आज भी देखिए क्या हम पढ़ने-लिखने के बाद मुक्त हुए हैं। बच्चे के बनने का समय है वह तो निचले स्तर पर है। लेकिन उलटा है। सुविधाओं की बात होती है तो वह उच्च शिक्षा में सोचा जा रहा है। लेकिन जहां से सब कुछ आगे आ रहा है यानि बुनियादी स्कूलों के बारे में नहीं सोचा जा रहा है। आज देखें तो बच्चों में सोचने की आदत भी कम हो रही है। आज कठिन दौर है। आज हम ऐसे दौर में हैं जब सोच समझ कर बोलना पड़ता है। यह कठिन किस्म का दौर है। अच्छी जिरह करना कठिन होने लगा है। आज तर्क करना कठिन हो रहा है। 

आप सब लोग संवेदनशील हैं। कर्मठ हैं। मेहनती हैं। यह अच्छी बात है। हम हमेशा कहते रहे हैं कि शिक्षा विभाग को अपनी टीम बनानी चाहिए। शिक्षा विभाग में अध्यापकों में कई तरह के कौशल हैं। हम अध्यापक की हैसियत से और अभिभावक की हैसियत से जितने विचारशील होंगे। अध्ययन के बाद जो हमारी तार्किकता बढ़ती है। हमें किताबों की दुनिया में ही जाना होगा। जब हम स्पष्ट होंगे तभी हम छात्रों को बताएंगे। सूबे के बच्चों को हम भूगोल कैसे बताएं। तारादत्त ने सन 1953 में कुमाऊँ का भूगोल लिखा था। स्थानीय भूगोल को आज कितना स्थान देते है? कहना मुश्किल है। स्थानीय से लेकर वैश्विक में बच्चे कैसे आएंगे? आज गूगल अर्थ है। 

शेखर पाठक ने कहा है कि हम मध्य हिमालय में है। नेपाल उत्तराखण्ड मिलाकर मध्य हिमालय का हिस्सा होते हैं। पच्चीस फीसदी आबादी दून क्षेत्र में है। हिमालय, नदिया, ताल का परिचय दे सकते हैं। हम नदियों के सहारे तिब्बत में नहीं जा सकते। हमें दर्रो से जाना होगा। हमें अपने छात्रों में इतिहास और भूगोल के अंतरसंबधों के साथ जाना होगा। यदि हम छात्रों के साथ रोचकता के साथ किस्सों के साथ ले जाएंगे तो उनकी रूचि बढ़ेगी। 
उन्होंने कहा कि हम छात्रों के साथ इतिहास और भूगोल को उनके आस-पास से जोड़ सकते हैं। संस्कृति के संबंध में सावधानी से सही बात कैसे कहें यह बहुत जरूरी है। तेरह भाषाओं के साथ 18 या 19 भाषाएं हैं जो सूबे में बोली जाती हैं। इन्हें बचाने के साथ हमे उसके प्रभाव को भी बताना होगा। ढोल को देखिए, वह जहां-जहां बजता हैं वहां के जानवरों की खाल से बनता है। तो कुछ वाद्य यंत्र ऐसे हैं जो किसी खास क्षेत्र में ही बनते हैं। परम्परा के साथ-साथ हम कुछ वास्तविकताओं को कैसे बच्चों को समझाएं। हम छात्रों को किताबी इतिहास और भूगोल क्यों पढ़ाएं। हम इसे रोचकता के साथ पढ़ा सकते हैं। हम अपने बच्चों को बताना होगा कि हम पहाड़ी भूगोल की जमीन में रहते हैं। हमें बताना होगा कि 64 फीसदी वन सूबे में हैं। जल, जंगल और जमीन को कैसे बताएंगे। आपको कैसे बताना है कि हमारी जमीन को सरकार ने अपने स्वामित्व में कर लिया। एक जंगल जो कि पचास साल में बनता है। सामूहिकता का परिणाम थे। आज हमारे हक-हकूक जंगल में नहीं रहे। 

गंभीर टीचर को जनोन्मुखी आंदोलनों को बताना होगा। वन पंचायतों को जो पचास साल से अधिक का समय लेते हैं। जिन्हें गांववासियों ने बनाया आज वे गांव वासी उसके स्वामित्व से बाहर हैं। जल,जंगल और जमीन की वास्तविकता और उनके दोहन की राजनीति को कैसे छात्रों को समझाना है। बच्चे के मन में पलायन के सवाल हैं। जो बच्चे यहां हैं वे तो पलायन में नहीं हैं। पर क्या उनके कुछ अधिकार हैं? क्या वे किसी और धरती के बाशिंदे हैं। उनके बारे में कौन सोचेगा? जो इस राज्य में हैं। उनके पूरे अधिकार हैं। उनके बारे में कब सोचा जाएगा? बच्चों को आप सूबे के आंदोलनों को बारे में बताएंगे। आप यहां के व्यक्तित्वों के बारे में बताएंगे। हमारी प्रतिभाएं हैं। क्षेत्र के हीरों को कौन बताएगा? 
बीसवीं सदी में जो भी आंदोलन हुए वह क्षेत्रों से निकले हुए हैं। जयानन्द भारती असाधारण किस्म के हीरों थे। बीस साल तक जयानन्द भारती रोज विरोध झेलते रहे। बच्चों को बताना होगा। श्रीदेव सुमन चेतना जगाने वाले थे। हमें अपने राज्य का इतिहास, भूगोल बताना होगा। यदि हमारे क्षेत्रों में आंदोलन नहीं होंगे तो हमारे नेताओं को तमीज़ कौन सिखाएगा। राज्य के हालात बिगड़ते जा रहे हैं। इस ओर क्या इशारा नहीं होना चाहिए? कौन बिगड़ी हुई स्थितियों के लिए जिम्मेदार है? 
दुनिया में किसी भी पहाड़ का अध्ययन कर लीजिए आपकों चार लाईन की सड़क नहीं मिलेगी। पहाड़ और बर्फ कैसे बचेगी? सार्वजनिक वाहन हों या निजी वाहन हो। क्या सही है? बेचैन करने वाले सवाल हमारे बच्चों में कैसे पैदा होंगे? शिक्षक ही तो छात्रों को संवेदनशील बनाएंगे। तार्किक बनाएंगे। सोचने-समझने की क्षमता तो शिक्षक ही ला सकेंगे। तीन बजे प्रारम्भ हुआ सत्र पांच बजे तक चलता रहा। सहभागी शिक्षकों के सवाल करने का सिलसिला था कि थम ही नहीं रहा था। कुछ सवाल निम्न रहे।
मनोधर नैनवाल-हम यहां आकर क्यों बसे होंगे? पलायन ऐसे ही होता रहा तो क्या होगा?
जवाब-पलायन वहीं से होता है जहां जीवन स्थाई नहीं होता। हमले भी बड़ा कारण हैं। सताए हुए लोग भी जमीन छोड़ते हैं। पलायन हमेशा धार्मिक कारणों से नहीं होता। यह समझना होगा। अनिश्चितता के कारण पलायन होता है। असुरक्षा भी बड़ा कारण होता है। पलायन पिछड़ी से अगड़ी को असुरक्षित से सुरक्षित की ओर जाना होता है। आपको जाना ही होगा। हमारे बच्चे बाहर जाएंगे। देश ही नहीं यहां से बाहर दूसरे देश में जा रहे हैं और जाएंगें। हमने अपने अपने बच्चों को रोकने के लिए कुछ किया ही नहीं। हम प्रतिभाशाली हो गए हैं तो अपनी प्रतिभा के लिए तो आगे जाना होगा। पलायन हमेशा बरबादी के लिए नहीं होता। पलायन के दूसरे पक्ष भी हैं। उन्हें भी समझना होगा। इतिहास गवाह है कि हर जगह हर किसी को रोक नहीं पाती। संसाधनों को नहीं जुटाया। हमने अपने संसाधनों का सही उपयोग करना नहीं सिखाया। हमने संसाधनों से अर्थ नहीं जुटाया तो रोजी-रोटी के लिए तो पलायन होगा। नदियों के गोल पत्थर भी बिक सकते हैं। पर्यटकों के साथ राजस्व को नहीं जोड़ा। अपनी जमीन के साथ कौशल को नहीं जोड़ा। हाथ के काम, और विकल्प आधारित कौशल ही पलायन को रोक सकते हैं। आज का पलायन सताए हुए लोगों की तरह का नहीं हैं। प्रतिभा को यहां रोककर क्या करोगे? पहाड़ को समझना होगा। सेवा देने वाले की सुविधा के बारे में भी तो सोचिए। दूर दराज स्कूल खोलना काफी नहीं है। कार्मिकों को आवास भी चाहिए। सुविधाएं भी चाहिए। इसके बारे में कौन सोचेगा? हम कह सकते हैं कि पलायन जमीन बेच कर नहीं होना चाहिए। गांव में दिलचस्पी रखनी होगी। बरतन मलने के लिए पलायन क्यों हों। पलायन कौशल के साथ हो। पलायन के सकारात्मक लक्षण भी हैं। हमें उसे भी समझना होगा। राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर होगी तो रहे-बचों के लिए क्या रहेगा? इसे ठीक से समझने की आवश्यकता है। आधा घण्टे से अधिक सवाल-जवाब के बाद दूसरे दिन के सत्र को समाप्त करना पड़ा। रात नौ बजे गीत संध्या हुई। संगोष्ठी के तीसरे दिन की सुबह कैमल बैक पर्वतारोहरण के संकल्प के साथ सत्र समाप्त हुआ। 
-मनोहर चमोली ‘मनु’ 

पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर.... का तीसरा दिन child literature

पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर.... का तीसरा दिन

बच्चों को नागरिक के तौर पर देखें

-मनोहर चमोली ‘मनु’

तीसरे दिन के पहले सत्र का आरंभ खजान सिंह ने किया। उन्होंने कहा कि पिछले दो दिन बेहद खास रहे हैं। हम जिन बातों से, यादों से और घटनाओं से खुद को समृद्ध करते हैं उसके लिए ऐसे आयोजन मील का पत्थर साबित होते हैं। उन्होंने कहा कि पहले दिन आपसी परिचय में हम एक-दूसरे को पहचान रहे थे। दूसरे दिन विज्ञान कथाकार और साहित्यकार देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने पढ़ाई-लिखाई और विज्ञान को जीवन से जोड़ा। उन्होंने कहा कि हम पूरी प्रकृति को भी हम किताब के तौर पर देख सकते हैं। हम हर रोज प्रकृति के विशाल अनुभव से पन्ने-दर-पन्ने पढ़ सकते हैं। खजान सिंह ने कहा कि जीवन में यादें हमें रंग देती हैं। ताकत देती हैं। उन्होंने कहा कि देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बेहतर ढंग से रखा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण कोई अलग से कोण नहीं है। यह जीवन को जीते हुए अनुभव के साथ समग्रता के साथ आता है। जो निरर्थक होता है हम उसे छोड़ते चले जाते हैं। 

खजान सिंह बोले कि शाम का सत्र शेखर पाठक ने लिया तो हमने सूबे का इतिहास, कला, संस्कृति, रहन-सहन, आचार-विचार को महसूस किया। इतिहास, भूगोल को रोचकता के साथ शेखर पाठक ने लगभग तीन घंटे तक हम सबको बांधे रखा। लगा ही नहीं कि एक व्यक्ति लगातार एक ओर से बोल रहा है। हमने धैर्य से बड़ी सरलता और सहजता से हमें समृ़द्ध किया।

तीसरे दिन के पहले सत्र का व्याख्यान मनोज कुमार ने लिया। पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर विषयक पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान और साहित्य में स्कूली शिक्षा में जो रेखाएं खींची जाती है तो वह दृष्टि की बात है। मानवीय दृष्टि है जो वह हमसे बाहर नहीं है। गणित के छात्र कहते हैं कि गणित आनंद की चीज़ है। गणित काम की चीज़ तब होती है जब हम उसे प्रयोग करते हैं। दृष्टि ही होती है जब आप प्रकृति को देख रहे होते हैं तो यह साहित्य का क्षेत्र भी हो सकता है और यह विज्ञान का भी क्षेत्र हो सकता है। बदलते हुए मौसम को देखें तो आज बारहमासा रह नहीं गया है। तो बारहमासा को हम विज्ञान और साहित्य से जोड़कर भी देख सकते हैं। 

अज़ीम प्रेमजी बंगुलुरू विश्वविद्यालय सेे आए मनोज कुमार बोले कि साहित्य के अध्यापक की कोई खास पहचान नहीं बन सकी है। वह यदि आलोचनात्मक दृष्टि रखता है तो इस वजह से ही वह अलग से पहचाना जा सकता है। साहित्य के क्षेे अध्यापन करने वाले  कक्षा में रोचकता प्रस्तुत नहीं कर पाते। अच्छे लेखक और कवि जरूरी नहीं है कि अच्छे अध्यापक साबित हों। शिक्षा सिद्वान्त और साहित्य सिद्वान्त को साझा कर समझने की जरूरत है। मनोज कुमार ने कहा कि स्मृति के उपकरण देखें तो हमारे हाथ, पैर, कान हैं, जिससे हम दुनिया से संवाद इस्तेमाल करते हैं। चश्मा और दूरबीन हमारी आंख का विस्तार हैं। हमारे पास बहुत सारे औजार हैं जो हमारे आंख, कान, हाथ का विस्तार हैं। हम जानते हैं कि कुछ चीज़ें प्रकृति प्रदत्त हैं दुनिया से संवाद करने के लिए हमें मिली हैं। हमने कुछ का विस्तार किया है जिससे हमें सुविधा तो मिली लेकिन इन सुविधाओं ने हमें अन्य प्राणियों से विशिष्ट बना दिया। वायगोत्सकी का उदाहरण देते हुए मनोज कुमार ने कहा कि हमारे पास कुछ औजार हैं जिससे हम अपने मस्तिष्क का विस्तार करते हैं। देखकर याद रखना अलग बात है। चीजों को याद करने के औजार मानसिक उपकरण हैं। गांठ बांधना का उदाहरण देते हुए मनोज कुमार ने गांठ बांधना को याद आने के उपकरण के तौर पर बताया।  भाषा एक ऐसा उपकरण है वह एक व्यक्ति को नहीं समुदाय को भी समृद्व करती है। 

भूपेन्द्र जी ने सवाल किया कि बाहर के टूल और मानसिक टूल हैं। टूल को नियत्रिंत करेंगे। विकल्पहीन हैं तो आप नैतिक चुनाव नहीं कर सकेंगे। सामाजिक नैतिक दायरे में जाना होगा। भाषा के माध्यम से हम मानसिक प्रक्रियाओं के मामले में विचार को सामने लेकर आते हैं। हम फिर दोबारा सोचने लगते है। बार-बार लौटकर सोचना होने लगता है। मौखिक बातचीत में बार-बार लौटकर हम नहीं आ सकते है। 

मनोज ने कहा कि सचेत भाषिक व्यवहार अपनी मानसिक प्रक्रियाओं के बारे में सचेत होता है। बोलने और सुनने की सचेत क्रिया से अधिक लिखना और पढ़ना हमें और सचेत करता है। मौखिक परंपरा में पद्य अधिक रहा है। कारण यही है कि गद्य में कहने बोलने में लगने वाला समय अधिक है। जब मुद्रण का आविष्कार हुआ तो पद्य से अधिक गद्य लिखा जाने लगा। 

इसी बीच देवेन्द्र मेवाड़ी ने सवाल किया। सवाल था - दो व्यक्ति हैं अलग-अलग भाषाओं के हैं। वे संवाद करना चाहते हैं। कैसे करेंगे?
मनोज कुमार ने जवाब देते हुए कहा कि भाषा का अर्थ सिर्फ वाक्य निर्माण करना मात्र नहीं होता। एक वाक्य में कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। जैसे-पापा ने केले लाए। पप्पू ने केले खाए।

एक नज़र में देखें तो पापा और पप्पू का वाक्यों को देखते हुए सीधा संबंध नहीं बनता। लेकिन जब हम इसके अर्थ में जाते हैं। गहराई से सोचते हैं। तो कई अर्थ निकलते हैं। जब इसे विस्तार करें और देखेंगे कि हमें संबंध देना होगा। वे बाप बेटे भी हो सकते हैं। कुछ और रिश्ते भी बन सकते हैं। भाषा को समृद्व करने की बात करें तो पहले कोष बनने लगते हैं। भाषा का अर्थ कई बार व्यवहार से प्रदर्शित होता है। धन्यवाद कहने का मकसद हमेशा कृतज्ञ बोध में नहीं हो सकता। आप जो संवाद करना चाहते हैं वह संप्रेषित भी हो। बोलते समय शायद सचेत होना इतना नहीं होगा पर लिखते समय आपको सचेत होना होगा। थैंक्स। व्यवहार में अलग-अलग भाव से दिखाई देगा। लेकिन लेखन में हम कैसे कहेंगे कि यह किस रूप में आया।  

मनोज कुमार ने कहा कि बोलते समय आप इतना सचेत नहीं होंगे तो चलेगा। पर लिखते समय हमें सचेत होना ही होगा। मैं आम खाता हूं। इसे बोलते समय कई अर्थों में देखा जा सकता है। ज्यादा सचेत भाषिक व्यवहार लिखने-पढ़ने पर कम ध्यान दिया जाता है। काॅपी जांचते समय वर्तनी सुधारने का काम हम करते रहते हैं। व्याकरण सुधारते रहते हैं। लेकिन किस बात पर प्रभाव रखना चाहते हैं उस पर कम ध्यान दिया जाता है। हम में अधिकतर अध्यापक इस ओर ध्यान नहीं देते कि किसी भी वाक्य के निहितार्थ क्यों और कैसे बदलते हैं। पढ़ने-लिखने की क्षमता का विकास करने के लिए हमें चाहिए कि हम भाषा के बारे में छात्रों को सजग भी करें। 

उन्होंने एक अनुच्छेद पर चर्चा करने के लिए इशारा किया। अनुच्छेद यह था-
भाषा वह शीशा है जिससे हम बाहर की दुनिया देखते हैं। जब हम बाहर की दुनिया को देख रहे होते है तो हमारा ध्यान शीशे पर नहीं होता है। जब हमारा ध्यान शीशे पर जाता है तो तब हम समझ पाते है कि जो शीशे से दिख रहा है उसमें शीशे का भी योगदान है। 

इस अनुच्छेद में लंबी चर्चा हुई। मनोज कुमार ने कहा कि भाषा केवल वाक्यों का निर्माण ही नहीं करती वह वास्तविकता का निर्माण भी करती है। मेरी बहुत सारी धारणाएं साहित्य से बनी हैं। मनोज कुमार जी कहा कि आखिर हम साहित्य को कैसे देखें। काव्य को गढ़ने में शब्द और अर्थ दोनों की बराबर की भागीदारी है। काव्य या साहित्य में शब्द महज़ साधन नहीं है। भामह ने कहा है कि शब्दार्थो सहितौ काव्यम। वाणी शब्द व अर्थ में जल व धारा की तरह है। साहित्य की जब भी बात करे साहित्य का पठन-पाठन में भाषा के पक्ष को छोड़ नहीं सकते हैं। चीजों को पढ़ने का नज़रिया होता है। कार्यालय से नोटिस आते हैं तो उसमें अनुप्रास अलंकार और वर्तनी हम नहीं देखते हैं। साहित्य पढ़ते हुए भाषा की ओर जाएगा। साहित्य के माध्यम से समाज विज्ञान पढ़ाने का चलन बढ़ गया है। साहित्य में चीज़ें कैसे गढ़ी गई हैं। यह हमें देखना होगा। शिवमंगल सिंह सुमन की यह कविता है- हम पंछी उन्मुक्त गगन के। पिंजरबन्द न गा पांएगें। 

इस कविता को बार-बार पढ़ने से कई अर्थ खुलते हैं। यह ऐसी कविता है जो खूब बातें करने के आयाम खोलती है। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों होता है कि हमें किसी लेखक का गद्य याद नहीं रहता लेकिन उसका पद्य बहुत कुछ याद रहता है। छंद है। मुक्ति का भाव है। वे फिर सुमन की उपरोक्त कविता के संबंध में बोले कि अर्थ के साथ यह कविता लय से आगे बढ़ती है। रिदम से कविता बनती है। इस कविता में पक्षी और पंछी के उपयोग पर बातें करें तो यह सोचा जा सकता है कि सुमन ने पंछी का ही उपयोग क्यों किया होगा। शायद पक्षी में उलझ रही हो जाती ये कविता। हर ध्वनि का अपना भाव है। यह चुनाव क्यों हुआ होगा। कविता मुक्ति के लिए काम भी करती है। ध्वनियों, भाव,लय के साथ वाक्य रचना का भी काम करती है। कविता को देशकाल से परिचय कराते हुए मात्र से काम नहीं चलेगा। कविता अपने शब्दों में भी है भाषा में भी है। कठिन काव्य के प्रेत केशवदास थे लेकिन उन्हीं के काल में तुलसीदास अधिक लोकप्रिय हुए है। शिक्षा में भाषा को पढ़ाने का मकसद यह भी है कि वह सजग भाषिक प्रयोग को भी सीखें। 

मनोज कुमार ने कहा कि साहित्य का अध्यापन अगर साहित्य शब्द और अर्थ दोनों की साझेदारी साहित्य है तो क्या साहित्य के अध्यापन से विद्यार्थियों को भाषा के सजग और सधे हुए प्रयोग की और ध्यान दिलाया जा सकता है? आम भाषा में भी रूपक का इस्तेमाल हो सकता है। विचार और अनुभव दोनों का महत्व शिक्षा में है। धारणा को बनाने में रूपक का महत्व होता है। वह धारणा बनाने में लाभ देते हैं। स्वतंत्रता अधिक वहां कारगर है जहां विकल्प हैं। रचनात्मकता की पहली शर्त यही है कि विकल्प हों। रूपक हमारी सोच को बांधते हैं लेकिन गौर से देखें तो हम रूपकों से बंधे होते हैं। साहित्य में नए-नए रूपक गढ़े जाते हैं। कोई रूपक यदि बार-बार इस्तेमाल हो तो नए रूपक इस्तेमाल करने होते हैं। नही ंतो दोहराव आने लगता है।

मनोज जी ने अज्ञेय की कविता का उल्लेख किया। कविता ‘अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार-नहायी कुंई की’ चर्चा करते हुए कहा कि अज्ञेय प्रयोगवादी कवि रहे हैं। चांद की तरह सुन्दर होना, कमल की तरह कोमल होना। ऐसे रूपक खूब इस्तेमाल हुए हैं। बाद में चांद का मुंह टेढ़ा है। यह प्रयोग भी देखने में आया। भाषा को देखना होता है। भाषा का व्याकरण नहीं बदल सकते हैं। लेकिन हम कैसे पहचानते हैं कि ये लेखन किसका है। आम इस्तेमाल कैसे करते हैं। पुराने शब्दों को नए अर्थों में गड़ा जा सकता है। छायावाद में दीपक का इस्तेमाल खूब हुआ है। विशिष्टता व्याकरण के भीतर ही होता है। भाषा का ऐसा प्रयोग जब आप शीशे को भी देखने लगते हैं। भाषा के प्रयोग के विकल्प में हमें जितना अवसर मिलेगा, हम उतने समृद्व होंगे। भाषा का रोल निर्माण भी करना होता है। भाषा कैसे काम करती है। यह समझ लें तो हम इसका निर्माण भी करते हैं। नए-नए रूपक गढ़ सकते हैं। 

मनोज ने कहा कि कोई रचना क्यों सराही जाती है? इसके कई कारण हो सकते हैं? क्या साहित्य के अध्यापन का एक मात्र उद्देश्य भाषिक प्रयोगों के बारें में विद्यार्थियों को सजग करना भर है? यह एक मकसद है। पर यही एक मकसद नहीं है। लेकिन बाल की खाल निकालना होगा तो रचना समग्रता के साथ नहीं जन्म लेगी। साहित्य के मकसद को समझना शब्द और अर्थ दोनों के विस्तार में जाना होगा। साहित्य का आनंद बचेगा नहीं यदि बाल की खाल निकालना ही हमारी आदत हो जाएगी। हम विचार करें कि आनंद की अनुभूति और सौन्दर्यबोध ही साहित्य का मकसद है तो यह क्या शिक्षा का मकसद भी यही हो सकता है? मूल्यों का मसला केवल भाषा का ही मकसद नहीं है। इस पर सहभागियों ने चर्चा की। साहित्य में मूल्य भी है सौन्दर्य भी है। साहित्य को पढ़ाने के लिए ही रखा जाए, यह समग्र मकसद नहीं हो सकता। एनसीएफ में भी साहित्य को कैसे पढ़ाया जाना चाहिए इस में वह मौन है। प्लेटो ने कहा था कि उसके आइडियल रिपब्लिक में कवि लेखकों को जगह नहीं मिलेगी। उसका कहना था कि ये लोग नकल की नकल करने वाले होते हैं। ये लोगों को बरगलाते हैं। यथार्थ से दूर ले जाते हैं। लेकिन प्लेटो के शिष्य ने दूसरी ही बात कही। उन्होंने कहा कि जीवन को साहित्य में ढालने वाले गौर से देखने वाले आनंदित करने वाले होते हैं। 

मनोज कुमार ने कहा कि इसे देखें-‘राजा मर गए। रानी मर गई।‘ 
‘राजा मरा और रानी उसके दुख में मर गई।‘ ये प्लाॅट है। 
घटनाओं की श्रृंखला बनाते हुए संबंध भी बनाना होता है। अरस्तू ने साहित्य कलाओं को खास माना है। साहित्य आपको अच्छा इंसान बनाता है। साहित्य नैतिक विवेचन के नए द्वार खोलता है। बंधी-बंधाई नैतिकता से इतर भी दूसरे ढांचे हो सकते हैं। आदि, मध्य, अंत को आप किसी भी विधा में देख सकते हैं। मनोज कुमार ने कहा कि साहित्य को पढ़ाने के मकसद को देखने की तीन पद्धतियां मानी जा सकती हैं। एक साहित्य के माध्यम से भाषा सिखाने पर जोर रहता है। दूसरा साहित्य के विषयवस्तु के और स्थापित परम्परा के बारे में बताने पर जोर रहता है। तीसरा विद्यार्थी को भावनात्मक और विवेचनात्मक दृष्टि से समृद्ध बनाने पर जोर देता है। ये तीनों पद्धतियां गलत नहीं हैं। ये जरूरी हैं पर तीसरा बेहद जरूरी है। यह साहित्य का सबसे बड़ा मकसद होना चाहिए कि कल का साहित्य भी आज का साहित्य लगे। साहित्य को इस तरह से पढ़ाना कि जिससे निजी संवाद सामने आए। अध्यापक के तौर पर हमारे सामने निजी उदाहरण प्रकट होते हैं। हर बार हर संदर्भ में अलग अलग साहित्य के प्रसंग चर्चा में आए। यह निजी सन्दर्भ से आते हैं। 

कमलेश चन्द्र जोशी ने सवाल किया कि साहित्यकार भी तो अपने साहित्य में भाषा को साधता है। दूसरा सवाल आनन्द, सौन्दर्य और अनुभूति के साथ साथ सामाजिक जागरूकता भी आए। कैसे सामंजस्य आए? मनोज ने जवाब दिया कि रचना का जो व्यक्तित्व है उसे समझा जाना चाहिए। इस ओर ध्यान तो जाना ही चाहिए। अलग-अलग तरह की रचनाएं तो अलग-अलग तरह के पाठकों को आमंत्रित करती हैं। प्रेमचन्द का गोदान समाजविज्ञानियों को आमंत्रित करती है। पर्सनल कनेक्ट ही नहीं चलेगा। तीसरा मकसद आए। साहित्य से मिलने वाला आनन्द है यह विशिष्ट तरह का आनन्द है। सौन्दर्यबोध को लेकर वस्तुनिष्ठ है या आत्मनिष्ठ है? पाठक की भूमिका को कैसे कहेंगे? यह सवाल महेश पुनेठा ने उठाया।
मनोज जी ने जवाब दिया। कहा कि सौन्दर्यबोध जरूरी है। साहित्य सोच है तो कोई आम नोटिस भी आपको कविता लग सकती है। साहित्य की विधाएं आपको आमंत्रित करती हैं। रचनाएं स्वयं में अपने अपने अर्थ नए अर्थ तलाशती हैं। भाषा को बरतने में सचेत रहने की बात भी कही। भाषा को लेकर अधिक सचेत रहेंगे तो वह बाधक भी बनती है? भाषा को ठीक भी करना है और बदलना भी है। स्वयं आकलन, समूह में आकलन में और फिर अध्यापक के द्वारा आकलन भी पढ़ने-लिखने के स्तर को समृद्ध कर सकते हैं। यह भाषा के प्रति सजग करने का तरीका हो सकता है। खुले प्रश्नों पर काम हो। अपने लिखे हुए को बार-बार पढ़ना जरूरी है।

उन्होंने कहा कि हिन्दी की कक्षा में पढ़कर आने से बेहतर हो कि साहित्य कक्षा में घटित होता हुआ दिखाई दे। यह मुश्किल तो है। जैसे कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाने की प्रक्रिया को साक्षात देखना होता है। नई रचनाओं को पढ़ना भी जरूरी है। छन्दबद्ध और मुक्तछन्द को समझना आवश्यक है। छन्द की विशेषता है लय। निराला ने कहा कि छन्द हम लिखेंगे या छन्द हमें लिखेगा। बातचीत की भी लय होती है। हवा के बहने की लय होती है। बाहर कोई घटना घटती है। आप बता रहे हैं तो एक लय होती है। छन्दमुक्त कविता लयमुक्त होती है क्या? नहीं। उत्तरछायावादी प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं हम। यही कारण है कि हम अभी भी अपने समय की रचनाओं से मुक्त नहीं हुए हैं। 

भोजनोपरांत सत्र का आरंभ प्रतिभा कटियार ने किया। उन्होंने कहा कि साहित्य के अध्यापन को लेकर जो बातचीत हुई तो कई सारे सवाल उठते हैं। हिन्दी कई छात्रों का साहित्य की वजह से लगाव रहता रहा है। कुछ कविताएं जिनका आनंद पाठक के तौर पर लेते हैं पर पता नहीं क्यों कविताएं कक्षा कक्षों में डरावनी हो जाती हैं? साहित्य से सब प्रेम करते हैं लेकिन कक्षा में वह प्रेम दिखाई नहीं देता। साहित्य का अध्यापन क्या अन्य विषयों के अध्यापन से भिन्न होता है क्या? जब कहीं लिखा होता है बारिश तो हम भीगने लगते हैं। यह अहसास साहित्य ही तो देता है। यह स्मृतियों का संसार साहित्य ही तो बार-बार अहसास करता है। साहित्य ही तो है जो हमारे सोचे हुए को स्थापित करता है। साहित्य में आप बार-बार नया रच सकते हैं। पाठ वाचन अच्छे साहित्य की भी हत्या कर सकता है। चेतना, संवेदना, भाषा और समझ साहित्य से अधिक कारगर तरीके से स्थापित हो सकती हैं।   

खजान सिंह ने दूसरे सत्र के व्याख्याता गुरवचन सिंह का परिचय दिया। बाल साहित्य के मर्मज्ञ, शैक्षिक पलाश और गुल्लक के संपादक रहे गुरवचन सिंह बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। गुरवचन सिंह ने बाल साहित्य के मायने और इसका शैक्षिक उपयोग पर विहंगम बातचीत की। उन्होंने अपनी बात आरंभ करते हुए कहा कि आज सारा द्वन्द्व ही बच्चों ओर सयानों के मध्य का है। बाल साहित्य को लेकर गहरी बात कम ही होती है। शिक्षा में बाल साहित्य को अवरोध के तौर पर देखा जाता है। इसे सहयोगी के तौर पर कम और आग्रह के तौर पर ही देखा जाता है। ऐसा आग्रह जो थोपा हुआ दिखाई देता है। जब साहित्य को कक्षा में लाने की बात करते हों तो बाल साहित्य की बात भी आएगी। जरूरत का गहरा आग्रह पहले नहीं था। अब दिखाई देने लगा है। शिक्षा के इतिहास में खगालें तो शिक्षा के काम में बाल साहित्य की बात होने लगी है। साहित्य में दो नाव है। एक पैर साहित्य में और दूसरा बाल साहित्य में। पिछले बीस एक सालों में कई संस्थाएं बनी हैं जो बाल साहित्य और कक्षा में साहित्य की बात करने लगी हैं। लेकिन आज भी चिन्ताएं गहरी और मुश्किल है। 
गुरबचन सिंह ने कहा कि किसी भी देश या समाज का बचपन देखना चाहें तो वहां के खिलौने और बाल साहित्य को देख लें। यहां से आपको उस समाज की स्थिति पता चल जाएगी। हम यहां सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में पढ़ रहे बच्चों की ही बात करेंगे। उनका बचपन कैसा है? यह सोचने का समय है। यही नहीं बच्चों का एक बड़ा समूह वंचित समूह है। यहां स्कूल आने वाली पीढी पहली पीढ़ी है। इनमें बहुत से बच्चे ऐसे हैं जहां पढ़ने-लिखने की पठन सामग्री पहले कभी नहीं आई। गरीब परीवारों से हैं। आरंभिक बचपन में छपी हुई सामग्री उन्होंने पहले कभी देखी ही नहीं। ऐसे बच्चों के बाल साहित्य की बात करना और भी मुश्किल है।  एक बड़ी बात है बड़ों में बच्चों के नज़रिए को देखने की दृष्टि। इसका प्रायः अभाव है। जो घर किताब खरीद सकते हैं। वहां भी किताबें नहीं हैं। बचपन में जो खाद पानी और रोशनी की जरूरत है वे क्यों नहीं। समृद्ध परिवारों में भी नहीं है। एक आदत ही नहीं है।   

गुरबचन सिंह ने कहा कि बाल साहित्य को दस्तावेज के तौर पर देखा जा सकता है। आज बड़ी चिन्ता का विषय है जहां बाल साहित्य का प्रयोग हो रहा है तो वह यांत्रिक तरीके से ही रखा जा रहा है। वह गहरी समझ जिसकी जरूरत है उसका अभाव है। साहित्य को बांटने काम भी बड़ा अजीब सा है। साहित्य को बांटने का मसला भी अजीब सा है। ये बच्चों का साहित्य है ये बड़ों का साहित्य कहेंगे। किसे बाल साहित्य कहेंगे। स्कूल में पढ़ना दबाव वाला कर्म है। जबकि साहित्य आनंद के लिए है। मुक्त रहकर पढ़ने का कर्म ही साहित्य हैं। एनसीएफ 2005 ऐतिहासिक दस्तावेज है। जो स्कूल को बाहरी ज्ञान से जोड़ना बताता है।  पढ़ाई को रटन्त प्रणाली से मुक्त करना कहता है। परीक्षा को लचीला बनाना कहता है। भयमुक्त परीक्षा की वकालत करता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना कहता है। पाठ्यचर्या का निरूपण ऐसा हो कि बच्चे के चहुर्मुखी विकास के अवसर दें। संवेदनात्मक विकास कैसे करोगे। संज्ञानात्मक विकास कहां से होगा। यह केवल और केवल बाल साहित्य से ही संभव है। 

गुरबचन सिंह ने कहा कि एक ऐसी पाठ्य पुस्तक से यह संभव है? वह ऐसी पाठ्य पुस्तक जिसके अपने ढांचे हैं। क्या भाषा की पढ़ाई एक किताब से संभव है? पाठ्य पुस्तक से इतर जो भी स्रोत ज्ञान के हैं उनसे संपर्क कराएं बच्चों का। यह कहने भर से काम नहीं चलने वाला है। क्या ऐसी तैयारी है? बच्चे का समग्र विकास करने के लिए कोई तैयारी है? आज भावों की कमी है। संवेदनाओं की कमी है। बच्चों से बहुत शिकायतें हैं। कहानी और कविताएं ही वह जरिया हैं जो बच्चों में भावनाएं और संवेदनाएं भाव संवेदीकरण से शिक्षित करती हैं। इसे जरूरत के तौर पर देखेंगे। पूरक पठन सामग्री ही नहीं है। तो कैसे होगा?

गुरबचन सिंह ने कहा कि हर स्कूल में एक पुस्तकालय होगा। पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें होंगी। सरकार का दृष्टिकोण बाल पत्रिकाओं को लेकर स्पष्ट नहीं है। आपरेशन ब्लैकबोर्ड में यह व्यवस्था आई थी। बुनियादी स्कूलों के लिए 3000 रुपए और जूनियर स्कूलों के पहली बार 5000 रुपए की किताबें बच्चों की किताबों के तौर पर स्कूल में रखी जाएंगी। यह बड़ा काम हुआ था। लेकिन क्या वह स्कूलों में आदत के तौर पर है? 

गुरबचन सिंह ने कहा किएनसीएफ 2005 यह कहता है कि स्कूल में हर स्तर का पुस्तकालय होगा। यह ऐसे स्थान होंगे जो पाठक समुदाय, बच्चे, शिक्षक और समुदाय ज्ञान के गहरे अर्थों के निर्माण में सहयोगी होगा। बुनियादी, जूनियर, माध्यमिक, इंटरमीडीएट स्कूलों में अलग-अलग पुस्तकालय होंगे। कितनी व्यवस्थाएं हैं? हर बच्चे को हर कहानी नहीं सुनाई जा सकती। बच्चा अपना बचपन खोजता है। अच्छे बाल साहित्य की कुछ कसौटियां बच्चों के अनुभव,स्वर,उनकी भागीदारी, सामान्य जिंदगी का स्पंदन दिखाई दे।

गुरबचन सिंह ने कहा कि ऐसा साहित्य जो बच्चों में सक्रियता, रचनात्मक सामथ्र्य अभिरूचियां उत्सुकता, रोमांच, बच्चे के प्रति सम्मान, कौतूहल, बच्चे की भाषा और ज्ञान का समृद्व, सौन्दर्यबोध, कल्पनाशीलता, रचनाशीलता, बहुभाषिकता, बहु संस्कृति,बहुस्तरीय बहुलतावादी बच्चों की अस्मिताएं शामिल करता है वहीं बाल साहित्य है। जो हैं उनमें सकारात्मक दृष्टिकोण प्रायः कम ही दिखता है। बच्चों का साहित्य जो मौजूद है प्रायः उनमें सोचने के अवसर ही नहीं है।  समझने का अवसर देती हांे ऐसी रचनाएं कम हैं।  

गुरबचन सिंह ने कहा कि सहूलियत से पढ़ने का अवसर और दबाव में पढ़ना में अन्तर है। उन्होंने बुढ़िया की रोटी कहानी का उदाहरण दिया। बाल साहित्य को समझने के कई नज़रिए है। बच्चों की दुनिया वाला साहित्य बाल साहित्य है। आनंद और खुशी देने के लिए ही बाल साहित्य है। सीखने के लिए दिया जाने वाला साहित्य बाल साहित्य है। हम किसी पक्ष में नहीं जा रहे है। हमंे ओर समझना होगा। क्या पढ़ने को दिया जाए और क्या नहीं दिया जाए। यह भी द्वन्द्व है। ऐसी मुश्किलें हैं। बच्चे की स्वायत्ता है। बाल साहित्य के सामाजिक निहितार्थ को समझना जरूरी है। 
गुरबचन सिंह ने कहा कि पन्द्रह मिनट हम कुछ बाल साहित्य की पड़ताल पढ़ कर करते हैं।  मार्टी की किताब पेड़ और काकाझुओ इवामूरा की किताब 14 चूहे घर बनाने चले का उल्लेख हुआ।

गुरबचन सिंह ने कहा कि हमारा साहित्य ऐसा हो जो भावनात्मक विकास में सहायक हो। बच्चों की अस्मिता और अस्तित्व को पोषित करने वाला हो। बच्चों की गरिमा को सम्मान देने वाला हो। बचपनरूपी अवस्था को फलने-फूलने के लिए खाद-पानी उपलब्ध कराता हो। बच्चों को सपने देखने व कल्पना करने के अवसर देता हो। संज्ञानात्मक और भावनात्मक जरूरतों को पूरा करने वाला हो। उनके स्वाभाविक गुणों जैसे जिज्ञासा, खोज, अन्वेषण, अनुकरण, कौतूहल के भाव जगाता हो व पोषित करता हो। बच्चों में चीजों और घटनाओं के बारे में जानने, सवाल पूछने की इच्छा पैदा करता हो। बाल सुलभ गुणों आदतों और व्यवहार को रेखांकित करता हो। बच्चो के लिए सोचने-विचारने, तर्क करने, विश्लेषण और व्याख्या व संवाद करने के लिए अवसर जुटाता हो। अबोध मानने का गहरा आग्रह गलत है। इसे समझने की जरूरत है। 

गुरबचन सिंह ने कहा कि यदि हम बच्चों की प्रवृत्तियों को जगह नहीं देंगे तो कैसे चलेगा? भाषा में सरलता, विविधता, अपनापन हो। बच्चों के अनुरूप भाषा समृद्ध और ताजगी लिए हो। बोलचाल की भाषा और देशज शब्दों को खुले मन से जगह दी गई हो। बाल साहित्य की विविध विधाओं और भाषा रूपों के अनुभव देने वाला हों चित्र रुचिकर और प्रभावशाली हो। 
गुरबचन सिंह ने कहा कि बाल साहित्य कदापि भी निर्देशित ओैर नियोजित न हो। बच्चों को अबोध मानने का आग्रह न हो। उपेदशात्मक न हो। आदर्शवादी अतिरंजनाएं तो न ही हों। बड़ों के काम ही न दिखाई दें। पात्रों की रूढ़ छवियां न हों। किसी व्यक्ति विशेष, धर्म समुदाय आदि की गलत छवि न प्रस्तुत की गई हो। धर्म समुदाय, मान्यताओं, विश्वासों का उपहास और दुराग्रह न हो। सहभागिता की चुनौती मिलने का आग्रह न हो। उपदेशों की खुराक न हो। बड़ों के काम बड़े होते हैं और बच्चों के काम छोटे होते हैं। इस तरह का आग्रह न हो। बाल साहित्य में बच्चों को बेवकूफ न कहा जाए। बच्चे भी इस देश के नागरिक हैं। यह भाव बाल साहित्य का हो। डेढ़ घण्टे से अधिक बाल साहित्य पर चले इस सत्र में कई सवाल आए लेकिन समयाभाव के चलते उन सवालों पर समग्रता से बात न हो सकी।
रात को काव्य गोष्ठी का सफल आयोजन किया गया। 

-मनोहर चमोली ‘मनु’


23 जून 2017

child story nandan नंदन : जुलाई 2017

'मैं हूं दोस्त तुम्हारी'


-मनोहर चमोली ‘मनु’


‘भारी बारिश के कारण स्कूल दो दिनों के लिए बंद रहेगा।’ टिन्नी की स्कूल बस के ड्राइवर अंकल का फोन था।

यह सुनकर टिन्नी और उसका छोटा भाई रोहन खुशी से उछल पड़े। मम्मी ने रसोई से ही आवाज़ लगाई-‘‘धमा-चैकड़ी बंद करो। पढ़ाई करो।’’

टिन्नी चहकते हुए बोली-‘‘ममा। होमवर्क कंपलीट है। अब दो दिनों तक नो होमवर्क, नो स्टडी।’’ मम्मी ने कहा-‘‘ठीक है। मैं रसोई की सफाई करती हूं। तब तक तुम दोनों रूम्स की सफाई करो। उसके बाद तुम्हें किशमिश वाला हलुवा बनाकर खिलाती हूं।’’


रोहन टिन्नी से बोला-‘‘मैं छोटा हूं। मैं छोटा रूम साफ करता हूं। आप बड़ी हो। आप बड़ा रूम साफ करोगी। ड्राइंगरूम भी। देखते हैं, कौन पहले कंपलीट करता है।’’


टिन्नी हंस पड़ी। आंखें मटकाते हुए बोली-‘‘अच्छा बच्चू। यहां भी होशियारी। चल फिर भी, मुझे तेरा चेलेंज स्वीकार है।’’ 

छोटे कमरे की सफाई करते-करते रोहन को कुर्सी के पीछे बाॅल मिल गई। वह सफाई छोड़कर बाॅल से खेलने लगा। टिन्नी ने पहले बड़ा कमरा साफ किया। अब वह ड्राइंगरूम को साफ करने लगी। तभी उसकी नज़र छत के एक कोने पर पड़ी। एक मकड़ी अपने जाले पर झूल रही थी।


‘‘संडे को तो मैंने झाड़ू से जाला साफ कर दिया था। इस मकड़ी ने फिर जाला बना डाला! आज इस मकड़ी की खैर नहीं।’’ 


टिन्नी ने हाथ में झाड़ू उठा लिया। ड्राइंगरूम की छत ऊंची थी। टिन्नी ने मेज सरकाई। मेज के ऊपर कुर्सी रखी और उस पर चढ़ गई। पर यह क्या! कुर्सी को मेज पर रखते-रखते वह झाड़ू फर्श पर ही छोड़ गई थी। टिन्नी संतुलन बनाते हुए वह कुर्सी से नीचे उतर ही रही थी कि उसके पैर डगमगा गए। वह धम्म से फर्श पर आ गिरी। फर्श पर कालीन बिछा था। टिन्नी ने दांये हाथ में झाड़ू पकड़ा और सावधानी से मेज पर चढ़ते हुए दोबारा कुर्सी पर चढ़ने लगी।


‘‘चोट तो नहीं लगी? ज़रा सावधानी से।’’
‘कौन?‘ टिन्नी बुदबुदाई।
‘मम्मी तो रसोई में है। रोहन छोटे वाले रूम में है। तो फिर मेरे कानों के नज़दीक ये कौन बोला?’ 


टिन्नी यहां-वहां देखने लगी। तभी कोने की दीवारों में बना जाला हिला और मकड़ी ने हवा में छलांग लगाई। 

वह किसी अदृश्य झूले में झूलते हुए फिर टिन्नी के कान के पास से गुजरी और धीरे से बोली-‘‘ये कि हम बोले। हम यानि वो, जिसका जाला तुम दो बार तोड़ चुकी हो। आज फिर से तोड़ने की तैयारी मे जुटी हो।’’ दूसरे ही क्षण मकड़ी अपने जाले में जाकर बैठ गई।


‘‘मैं तुम्हारा जाला तोड़ रही हूँ और तुम हो कि मेरी परवाह करते हुए पूछ रही हो कि चोट तो नहीं लगी। ज़रा सावधानी से। यही कहा था न तुमने?’’

‘‘हां। मैंने यही कहा था। मेरी तरह तुम्हारे पास मजबूत जाला तो है नहीं कि तुम इतनी ऊंचाई से आसानी से नीचे उतर सको। मेरा तो घर भी यही है और रसोई भी।’’

‘‘लेकिन तुम तो दूसरों को जाल में फंसाती हो और फिर उन्हें मारकर खा जाती हो। तुम बुरी हो इसलिए मैं तुम्हारा जाला बार-बार हटाती हूं। तुम हो कि बार-बार बना देती हो।’’

‘‘मैं जाल में किसी को नहीं फंसाती हूं। वो मेरे घर में आ घुसते हैं। बस मैं दौड़कर अपने शिकार को मार डालती हूं।’’

‘‘आप भी तो हमारे घर में आ घुसी हो। मैं आपको मार डालूं तो?’’

‘‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? वैसे मैं भी क्या करूं? मैं उस जगह में ही तो अपना जाला बनाऊंगी, जहां मुझे भोजन मिलेगा। आपके घर में मुझे कीट-पतंगे और मक्खियां मिलती हैं। मैं तो अपने शिकार के शरीर से पोषक रस ही चूस पाती हूं। मैं तुम्हारी तरह ठोस भोजन नहीं खा सकती। वैसे तुम मेरा जाला तोड़कर एक तरह से मुझे मार ही तो रही हो। जबकि मैं तुम्हारी दोस्त हूं।’’

‘‘दोस्त हो? तुमसे कौन दोस्ती करेगा? तुम तो विषैली हो?’’

‘‘हां मैं विषैली हूं। पर कीट-पंतगों और मक्खियों के लिए। तुम्हारी तरह बहुत हैं, जो यह नहीं जानते कि मेरी जैसी अधिकांश घरेलू मकड़ियों का विष तुम पर असर नहीं करता। फिर भी मुझे तुम मारना चाहती हो? जबकि मैं तुम्हारी दोस्त हूं।’’

‘‘तुम मेरी दोस्त कैसे हो सकती हो?’’

‘‘बताती हूं। मैं अगर कीट-पतंगों को अपना शिकार न बनाऊं तो वे बढ़ते चले जाएंगे। मैं मच्छरों और विषैले कीटों को खाती हूं। मेरे बारीक रेशमी तंतुओं से आॅप्टिकल उपकरणों के महीन तार बनते हैं। यही नहीं फसलों और तुम्हारे शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को भी तो मैं खाती हूं। तो बताओं, मैं तुम्हारी दुश्मन हुई कि दोस्त?’’

‘‘लेकिन, फिर भी। घर में जाले कोई क्यों पसंद करेगा?’’

‘‘अरे। साफ-सफाई रखने को कौन मना कर रहा है। मेरी जैसी मकड़ियां वहीं तो रहेंगी,जहां उन्हें शिकार मिलेगा। यदि यहां शिकार न मिले तो मैं कहीं ओर अपना डेरा बना लूंगी। लेकिन इतना समझ लो कि हम मकड़िया रीढ़ वाले जीवों की दोस्त हैं।’’

‘‘अरे! ये क्या कर रही हो। गिरोगी क्या? चलो छोड़ो इस झाड़ू को। हलुवा बन चुका है। साफ-सफाई मैं अपने आप करती हूं।’’

मम्मी रसोई से सीधे ड्राइंगरूम में आ गई। मम्मी मेज-कुर्सियां ठीक कर रही थी और टिन्नी मकड़ी को देखकर मुस्करा रही थी। वहीं रोहन रसोई में पहुंच चुका था। कमरों की सफाई करने का कंपीटीशन वे दोनों ही भूल चुके थे।


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-मनोहर चमोली ‘मनु’

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