17 जुल॰ 2017

बाल प्रहरी balprahri child magzine

बाल पत्रिका: ‘बाल प्रहरी’ के बहाने
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    -manohar chamoli 'manu'

बच्चों की त्रैमासिक पत्रिका बाल प्रहरी जल्दी ही अपने प्रकाशन के पन्द्रहवें साल पूरे कर रही है। सबसे पहले संपादक सहित इस पत्रिका से जुड़े रचनाकारों और बच्चों को बधाई देनी आवश्यक है। यह सोचने पर ही मन रोमांचित होता है कि जब इस पत्रिका का प्रवेशांक निकला होगा तब आठ साला बच्चें आज भारत के नागरिक हो चुके होंगे। यानि उन्हांेने पहला मत देने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त कर लिया होगा।

    अब यह तो शोध का विषय हो सकता है कि प्रवेशांक से लेकर अब तक प्रकाशित बाल प्रहरी की रचना सामग्री ने कितने बच्चों की जीवन धारा ही बदल दी होगी। या यह भी कि यदि वे बच्चे बाल प्रहरी न पढ़ते तो क्या उनके समग्र व्यक्तित्व के निर्माण की स्थिति कुछ ओर न होती? यह भी संभव है कि बाल प्रहरी में लिखते-लिखते कुछ बच्चे अब काॅलेज की पत्रिका और पत्र-पत्रिकाओं में भी लिख रहे होंगे।


   मैं याद करता हूं तो पाता हूं कि मेरे पास कमोबेश बाल प्रहरी का प्रत्येक अंक संग्रहीत होगा। कुछ दिनों से मैं लगातार इस पत्रिका के बारे में सोच रहा था। मेरे मन-मस्तिष्क में बाल प्रहरी को लेकर कुछ खूबियां कौंध रही हैं। सबसे पहले तो मैं उन्हें बांटना चाहूंगा।
  •     एक तो पिछले 11 वर्षों में बाल प्रहरी ने फौरी तौर पर बच्चों की दुनिया को समझने वाले रचनाकारों को एक मंच दिया है। ऐसा मंच जो बगैर किसी धड़े और लाग लपेट के सहजता से हर किसी को अपनाता है।


ऽ   यह भी कि शायद ही किसी बाल रचनाकार को और रचनाकार को बाल प्रहरी ने निराश किया होगा। नवीनतम अंक में नहीं तो आगामी अंकों में रचना छप जाने के प्रति हर रचनाकार आश्वस्त सा रहता ही है।

ऽ    हर अंक में लगभग 100 रचनाकारों (बच्चों भी रचनाकार हैं।) को पत्रिका में स्थान मिलता है। विभिन्न प्रतियोगिताओं से पढ़ाकू बच्चे और उनके अभिभावक जुड़ते हैं। बड़े अपने मित्रों को बतातें फिरते होंगे कि हमारी रचना बालप्रहरी में छपी है और बच्चों के अभिभावक फूल न समाते होंगे कि उनके बच्चे पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे है।

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अब मैं आता हूं बाल प्रहरी पिछले दस सालों में यदि कुछ कड़े नियम अपनाती। कुछ ठोस मानदण्ड बनाती। पत्रिका को एक खास स्थान देने के लिए लीक से हटकर प्रकाशन की योजना पर काम करती तो कुछ विशिष्ट स्थान पत्रिका का बन जाता।

रचनाकारों से-
______________खुद को शामिल करते हुए और खुद भी अपने पर लागू करना चाहूंगा। बालप्रहरी को टटोलते हुए पाया कि अक्सर इसको भेजी गई रचना या तो छपी-छपाई होती है या फिर जिसकी कहीं कोई उम्मीद न छपने की हो, उसे हम लोग बाल प्रहरी में भेजते हैं? ऐसा क्यों? ऐसा भी नहीं है कि छपी-छपाई सामग्री को नहीं भेजा जाना चाहिए।  लेकिन पता नहीं क्यों? मुझे अधिकतर अंकों में रचनाएं लचर लगीं। अब संपादक जी ने तो इसलिए छाप दी कि कहीं मनोहर बुरा न मान जाए। एक तो तीन महीनें तक इंतजार करो और भी अंक में स्थान न मिले।

ऽ    मैं मानता हूं कि हर पत्रिका संपादक के बिना भी छप सकती है। जैसे भी छपेगी पर छपेगी। लेकिन कोई भी पत्रिका बिना रचनाकारों ने नहीं छप सकती। एक सामान्य पत्रिका है। वह अपने यहां तैनात कार्मिकों से ही रचनाएं तैयार कर लेते है। इंटरनेट से काफी पेस्ट कर लेते हैं। छप रही है। बिक रही है। लेकिन स्तर लगातार घट रहा है। हम भले ही बाल प्रहरी को साल में एक रचना भेजे। लेकिन वह ऐसी हो जिसे हम स्वयं भी दमदार, असरदार और भरपूर प्यार करते हों।

ऽ    मैं नीचे कुछ रचनाओं का उल्लेख बगैर उस रचनाकार का नाम लिए बिना करना चाहूंगा, जो मुझे एक पाठक के तौर पर भी और बच्चों के लिहाज से भी लचर और कम प्रभावशाली लगी। मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि यह आलेख मेरा निजी है। नितांत अपने अनुभव के आधार पर है। इसका मकसद किसी को आहत करना भी नहीं है। हां मैं इतना चाहता हूं कि यह पत्रिका 11 के बाद 21 फिर 31 ही नहीं 111 वे वर्ष में भी प्रवेश करे। सो मेरे मन की बात को सकारात्मक दृष्टिकोण से लेंगे तो मुझे भी प्रसन्नता होगी।

ऽ    बहुत से रचनाकार अभी भी पशु-पक्षियों की कहानियों में ही अटके पड़े हैं। मैं भी अभी तक पशु-पक्षियों पर आधारित कहानियां लिखने के फारमेट से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं। इसे जितना जल्दी हो सके हमें बदल देना चाहिए। हां। इसका मतलब यह नहीं कि पशु -पक्षियों की कथाएं ही न लिखी जाएं । लेकिन आशय मात्र इतना है कि या तो उनकी मूलतः जो आदतें और व्यवहार हैं जो वे कर सकते हैं। उस पर आधारित हों तो चलेगा। मैं अपनी बात कहता हूं। मेरा साढ़े तीन साल का बेटा एक दिन मेरे द्वारा सुनाई जा रही कहानी पर बीच में ही मुझे टोकता है और कहता है कि पेड़ बोलते कहां हैं। उसने कैसे चिड़िया के थप्पड़ मार दिया। मैं अवाक्। हां बंदर और चिड़िया वाली एक कथा है। जिसमें बंदर बाद में चिड़िया का घोंसला तोड़ देता है। भले ही उन दोनां में कथाकार ने संवाद दिखाए है लेकिन बंदर ऐसा कर सकता है वह चिड़िया का घांेसला तोड़ सकता है। मैं यह भी नहीं कहता कि अमूर्त चीज़ों में मानवीकरण नहीं किया जा सकता। लेकिन तभी जब दूसरा कोई विकल्प नहीं हो। ऐसा करना जरूरी हो। हर कथा को अति काल्पनिकता की चादर से क्यों कर ढका जाए?

ऽ    बाल पत्रिका में बहुत सारा घाल-मेल दिखाई पड़ता है। हो सकता है यह मात्र मेरी दृष्टि हो। कई पाठकों को यह बहुत पसंद आ सकती है। मैं खुद भी कहता हूं कि शायद ही कोई दूसरी पत्रिका होगी जो बच्चों के लिए और बच्चों को इतना सारा स्थान देती हो। मैं आंचलिकता का पक्षधर हूं। लेकिन इस पत्रिका में आंचलिकता को भी बच्चों के स्थाई स्तंभ में शामिल किया जा सकता है। मैं तो यह कहूंगा कि बच्चों के लिए यानि जिन 10 या 12 जो भी तय हो, उनके रचनाकार बच्चे ही हों। वह पत्रिका के आरंभिक एक चैथाई पेज हो सकते हैं। मध्य के हो सकते हैं। या फिर अंत के हो सकते हैं। एक चैथाई हिस्से से इतर सारे पेजों पर सामग्री बच्चों के लिए हो लेकिन उसे बड़े तैयार करें। इससे जो यह कहते हैं कि बालप्रहरी अभी तक अपनी दिशा भी तय नहीं कर पाई है, उनका मुंह बंद हो जाएगा। वे दस या बारह पेज जिनमें बच्चों की लिखी रचनाएं,पेंटिंग आदि होंगी, उनसे साफ झलकेगा कि बच्चे कैसा लिख रहे हैं। क्या लिख रहे हैं। बच्चों की रचनात्मकता, प्रतिस्पर्धा, सृजनात्मकता, साहस आदि सब कुछ यहां आ जाए।

ऽ    समग्रता के साथ देखें तो बाल प्रहरी में लगभग 30 पेजों में गुणवत्तापरक,मननीय,अथपूर्ण रचना सामग्री को स्थान दिया जा सकता है। लेखों का प्रतिशत कम किया जाना चाहिए। आखिर यह बाल पत्रिका बच्चे क्यों पढ़ें? यह सोचना होगा। क्या हम इसे भी ज्ञान की पत्रिका बनाना चाहते हैं? सूचनात्मक जानकारी देना पत्रिका का मकसद है? क्या पाठ्य पुस्तकें और अंतरजाल सूचनाओं और ज्ञान का खज़ाना नहीं रह गई हैं? क्या बाल पत्रिका भी बच्चों में एक ओर ऐसी सामग्री परोस कर देने वाली पत्रिका बन रही है, जिसे बच्चे अपनी स्कूूली शिक्षा का हिस्सा समझे?


 ऽ  कुछ पत्रिकाएं रचना सामग्री की प्रासंगिकता पर बहुत ध्यान देती हैं। उनका अधिकतर ध्यान इस बात पर रहता है कि किस तरह की सामग्री को कितना स्थान देना है। वह रचनाओं के उनके रचनाकार के कद से कभी नहीं छापते। वह अप्रासंगिक विषयों पर आई रचनाएं चाहे कितने बड़े लेखक ने भेजी हो, नहीं छापते तो नहीं छापते। 

ऽ  आज जरूरत इस बात की है कि अपरिहार्य स्थिति को छोड़कर आम तौर पर भाग्यवादी रचनाएं जो भाग्य को स्वीकार करती हैं, उन्हें हतोत्साहित किया जाए। राजा-रानी का आधार मानकर बुनी रचनाओं को अधिकतर हतोत्साहित किया जाए, बशर्ते कहानी में राजा-रानी को पात्र न बनाया जाए तो कहानी कहानी नहीं होगी। इसी तरह भूत,प्रेत,चुड़ैल,डायन आदि को अधिक स्पेश देती हुई कहानियों को अब हतोत्साहित किए जाने की महती आवश्यकता है। आखिर हम क्यों कर नहीं सीधे बच्चों की दुनिया से ही पात्र उठाएं। बच्चो की वास्तविक दुनिया के इर्द-गिर्द कथावस्तु रखें।

ऽ  मैं मानता हूं कि जब भले ही पत्रिका अव्यावसायिक नहीं है, तो क्या हुआ? मुनाफा नहीं कमाया जा रहा है, बाकी सभी श्रम तो पत्रिका में लग ही रहा है। वह भी पाठक तक पहुंचने से पहले उतनी उर्जा खर्च करवा रही है जितना कोई प्रतिष्ठित या व्यावसायिक पत्रिका। तब क्यों नहीं आवरण से लेकर कागज और छपाई तक की गुणवत्ता को ध्यान में रखा जाए।

 ऽ  बाल प्रहरी को लें तो फोन्ट तो अच्छा है लेकिन शायद यह बोल्ड किया हुआ है। या वह बुनावट में मोटा है। हां फोन्ट का आकार सही है। पाठक इसके आवरण पर अब अत्याधुनिकता का असर देखना जरूर चाहेंगे। 


ऽ  मेरी तरह यदि आप भी कुछ अंकों पर सरसरी निगाह डालेंगे तो संभव है आप भी मेरी कुछ बातों से सहमत होंगे। मसलन जुलाई-सितम्बर 2009 का अंक देंखे तो पाते हैं कि इसमें कुल 12 कहानियांे को और 21 कविताओं को और 05 लेखों को स्थान मिला है। जैसा पहले भी कहा गया है कि आवरण सहित 52 पृष्ठों में यह विधाएं ही अधिकतर अंकों में स्थान पाती हैं। डायरी,संस्मरण,बाल नाटक,रिपोर्ताज,यात्रा संस्मरण(बच्चों द्वारा लिखित) को भी खूब जगह दी जा सकती है। इसी तरह जनवरी-मार्च 2008 के अंक में 09 कहानियां,19 कविताएं,06 लेख प्रकाशित हुए हैं। अप्रैल-जून 2012 के अंक में 10 कहानियां,23 कविताएं और 08 लेख प्रकाशित हुए हैं। जनवरी-मार्च 2013 के अंक में 09 कहानियां, 28 कविताएं और 05 लेख प्रकाशित हुए हैं। जुलाई-सितम्बर 2014 के लेख में 8 कहानियां, 24 कविताएं और 11 लेख छपे हैं। इसी तरह अक्तूबर-दिसम्बर 2014 के अंक में 07 कहानियां, 21 कविताएं और 15 लेख प्रकाशित हुए हैं।

आंकड़ों के हिसाब से यह रचनाकारों को स्थान देने के मामले में रोचक है। लेकिन यह सभी रचनाएं क्या बच्चों के लिहाज से और विधा के हिसाब से गुणवत्तापरक है? क्या अधिकतर पाठकों के मन में पैठ बनाने के लिए मुफीद हैं? मुझे नहीं लगता कि संपादक जी को यदि कोई रचना बतौर संपादक अच्छी नहीं लगी और बालमन के अनुसार भी जमी नहीं तो वह कड़ा निर्णय लेकर उसे प्रकाशनार्थ अस्वीकृत कर देते होंगे। जनसहयोग से प्रकाशित और सबको जोड़कर साथ ले चलने की भावना के तहत ऐसा करना मुश्किल होता होगा। लेकिन कल जब बालप्रहरी का मूल्यांकन होगा। होना ही है, तब पत्रिका किस तरह से निकल रही है? कैसे निकल रही है? यह बातें गौण हो जाएंगी और पत्रिका में छपी रचनाओं के आलोक में पत्रिका की रेटिंग होगी।


मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि अच्छी रचना क्या होती है और बुरी रचना क्या होती है? लेकिन नए भाव-बोध-सौन्दर्य तथा बच्चों की दुनिया से जुड़ी रचना भला किसे पसंद न आएगी? मुझे लगता है कि बाल प्रहरी के साथ-साथ अधिकतर पत्रिकाओं में आज भी चालीस साल से चले आ रहे प्रतीकों,शीर्षकों यहा तक कि रचनाओं में निहित कथ्य-भाव भी बार-बार पुराने संदर्भों के साथ चले आ रहे हैं। पिसे हुए आटे को फिर से पीसने की परंपरा चली आ रही लगती है जैसे।


ऽ  अब चाहे कुछ भी हो, बाल प्रहरी को दीर्घायु बने रहने के लिए वह भी इस तरह का जीवन की पाठक बेसब्री से प्रतीक्षा करें, के लिए कुछ कड़े निर्णय लेने ही पड़ेंगे। मानता हूं और जानता भी हूं कि यह मुश्किल काम होगा,पर असंभव नहीं।ऽ वे निणर्य निम्नवत हो सकते हैं। यह सुझावात्मक निर्णय सभी के हित में होंगे।

मसलन-

S अब देखिए समय बदल गया है। अब जब ग्रीटींग कार्ड की जगह एस.एम.एस आ गए हैं। नव वर्ष हो या उपहार का समय या बर्थडे। अब बने बनाए बाज़ारी उपकरण हावी हैं। हाथ से बनाने ग्रीटींग कार्ड पर बात करना हास्यास्पद है। यदि यह कौशल है तो भी आज के बच्चे इसे क्यों कर सीखेंगे। एक उदाहरण देता हूं। मैं अपने बच्चों के लिए लट्टू खोज रहा था। हाथ से घुमाने वाले और डोर वाले घूमर भी। लेकिन नहीं मिले। वे तो संपादक,कवि एवं संस्कृतिकर्मी का श्री राजेश उत्साही जी का भला हो। जिन्होंने ठेठ उदयपुर से वो भी किसी साथी की मदद से पहले जुटाए फिर मुझे कोरियर से भेजे। इस समूची प्रक्रिया में दो माह गुजर गए। प्रासंगिकता बनी हुई है तब भी यह देखना होगा कि कितना स्पेस देना है। यदि सामग्री देना जरूरी ही है।

ऽ    भारत की अर्थव्यवस्था पर आलेख बाल प्रहरी में। फिर वही बात कि आखिर पत्रिका का मकसद क्या है। क्या किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराना या कोर्स में सहायता करना बालप्रहरी का मकसद है। आंशिक है भी तो कितना स्पेस देना है। एक अंक में ऐसे बोझिल,नीरस,उबाऊ और आनंद से इतर के आलेख कितने देने हैं, क्यों देने है? प्रस्तुति कैसे होगी। भाषा भी तो बालमन के अनुरूप हो !

ऽ    वर्ग पहेली क्यो? यदि जरूरी है तो बच्चों की उम्र, उनकी रुचियों के अनुरूप तो हो। किसी पाठक,प्रशंसक ने बनाई हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इतनी कठिन हो कि दस फीसद बच्चे भी उसे हल न करे। हम सब जानते हैं कि पत्रिकाओं की प्रतियोगिताओं में कुल बच्चे कितना सहभाग करते हैं। क्या कोई ऐसा आंकड़ा है जिससे पता चल सके कि इन पत्रिकाओं में दी जाने वाली प्रतियोगिता में सर्कुलेशन के स्तर पर हर क्षेत्र के बच्चे रुचि लेते हैं? शायद नहीं। यदि इनका प्रतिशत बेहद कम है तो ऐसी प्रतियोगिताओं का कोई तुक नहीं। या फिर बालमन के विषय से जुड़ी माथापच्ची हो।

ऽ    बाल प्रहरी समाचार को ही ले लें। चार पेज पर यह छपता है। लेकिन बच्चों से अधिक बड़ों को इनमें स्थान है। बाल सहित्य समाचार हैं,बाल साहित्यकार समाचार हैं, बालमन से जुड़े समाचार हैं, यह तय करना होगा।

ऽ    व्यक्तित्व,जीवन परिचय भी लीक पर चल रहे हैं। कितना अच्छा हो कि यह बालमन और बचपन पर केंद्रित हो। हम बच्चों से ही यह अपेक्षा क्यों करते हैं कि वह महात्मा गांधी जैसा बनंे। टेरेसा बने। यदि ऐसा होता तो दूसरा गांधी और दूसरी टेरेसा या लता तो कोई नहीं बना। फिर इस तरह की सामग्री क्या बच्चों पर एक तरह से अत्याचार नहीं है? कोई राष्ट्रपति बना, कोई प्रधानमंत्री बना है तो कोई न्यायाधीश बना है, तो उससे बच्चों को क्या लेना देना? हम क्यों बच्चों को समय से पहले बड़ा बनाने पर तुले हुए हैं। वह जो बनेगा उसे उस पर छोड़ दो। या फिर किशोर तो हो जाने दो।

ऽ    मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि कितना भी संपन्न परिवार हो। कितने ही जागरुक परिवार हों। अभिभावक हों। हम साल में कितनी बार सैर-सपाटा करते हैं। अरे। अपना गांव,कस्बा,नगर और शहर तो ठीक से देखा-जाना नहीं। चले हैं साहब बच्चों को दुनिया की सैर कराने। दर्शनीय स्थलों की जानकारी देंगे। भला क्यों? यदि देनी है तो फिर ऐसी दी जाए कि जिसमें बच्चों को मज़ा आए। आज भी बच्चे ज़ू-चिड़ियाघर देखना पसंद करते हैं। दूसरी ओर तो मुझसे एक बच्चे ने कहा कि चिड़ियाघर तो जानवरों पर अत्याचार है। इन्हें यहां कैद किया हुआ है। मुझे फिर वन्य जीव,विलुप्तता, बढ़ती शहरी आबादी पर उसे लेक्चर देना पड़ा। फिर भी मैं जानता हूं कि उसे अपने सवाल का ठीक से जवाब नहीं मिला। गूगल सब उपलब्ध कराता है। बच्चे बखूबी स्मार्ट फोन यूज़ कर लेते हैं। हमारी पाठ्यपुस्तकें यही काम कर रही हैं। सूचनाओं और जानकारियों का अभाव पहले ही नहीं है। फिर पत्रिका भी यही काम करे तो बेचारे बच्चे अपना सिर न पीट लें।

ऽ    मोबाइल टाॅर है खतरनाक। यह जानकारी दी गई है। लेकिन इसका बच्चों से क्या लेना देना? मोबाइल टाॅवर न तो बच्चे लगा रहे हैं न ही बच्चों के घरों पर लग रहे है। बच्चों के साथ साथ सभी के लिए मोबाइल जरूरी हैं। लेकिन क्या बच्चे मोबाइल टाॅवर न लगने के लिए आंदोलन करेंगे? आखिर इस लेख की यहां क्या आवश्यकता है?


  •  जुलाई-सितम्बर 2014 का अंक पढ़ा। संपादकीय में लिखा गया है कि ‘पिछले 10 सालों में सबसे अधिक सहयोग नन्हे दोस्तों का मिला है।’ यह बात महत्वपूर्ण है। तो क्यों न बाल प्रहरी में बच्चों की लिखी सामग्री (यदि बाल साहित्यविशेषज्ञ यह कहते हैं कि अक्सर बच्चों की लिखी सामग्री में साहित्यिक विधाओ का पुट नहीं होता।) से अधिक बच्चों के लिए उपयोगी सामग्री की अधिकता हो?ऽ इसी अंक में जयप्रकाश भारती जी के बारे में दिया गया है। यही नहीं उनकी कुछ कविताएं भी दी गई हैं। यह अच्छी बात है। इधर कई अन्य पत्रिकाओं में पत्रों में भी देखता हूं कि दिवंगत दिग्गजों के विशेषांक निकाले जाते हैं। उन विशेषांकों में मौजूदा साहित्यकार दिवंगत की शान में कसीदे गढ़ते दिखाई देते हैं। संस्मरण लिखते हैं। लेकिन कितना अच्छा हो कि ऐसी सामग्री से अधिक उस दिवंगत दिग्गज की रचनाओं को ढूंढ खोजकर पाठकों के लिए एक विशेषांक निकले।
  •  ऽ इसी अंक में रिक्टर स्केल के बारे में दिया गए है। अब फिर यह कि इसे देने का मतलब समझ में नहीं आ रहा।ऽ इसी अंक में एक कहानी है वर्षा। सोनू ने अपनी मां से पूछा कि वर्षा क्या होती है। मां कहती है कि पापा से पूछ लेना। खैर कहानी के अंत में बच्चे पर्यावरण मित्र बनने का संकल्प ले लेते हैं। यह कहानी सूचनात्मक कहानी-सी भी नहीं लगती है। 
  • ऽ इसी अंक में एक कहानी है बख्शीश। सर्दियों में मीनू नंगे पांव पाठशाला जा रहा है। रघु काका उसे जूते देना चाहते हैं। नीनू यह कहकर मना कर देता है कि वह बख्शीश नहीं लेगा। रघु के यह कहने पर कहानी खत्म होती है कि काश! सभी बालक मीनू जैसे होते। अब यह कहानी समस्या तो उठाती है। पर समाधान नहीं देती। अंत भी इतना आदर्शात्मक की हजम नहीं होता। हो सकता है कि कुछ फीसद बच्चे इस तरह के प्रस्ताव पर ऐसा ही कहेंगे। लेकिन गरीब और लाचारी को उसी हाल पर छोड़ देने का अंत देती कहानी पता नहीं क्यों कुछ अधूरापन दे जाती है। हम बच्चों की आदर्श स्थिति परोसना क्यों चाहते हैं?
  • ऽ एक कहानी इसी अंक में है। भोला भालू और चालाक बंदर। बंदर भोला भालू को चकमा देता है और उसके आलू खा जाता है। भालू बंदर भी उसे सबक सिखाता है। ईंट का जवाब पत्थर से देना टाइप का संदेश इस कथा से स्ािापित हो रहा है। जब चालाक बंदर दूसरी बार भोला भालू को चकमा देना चाहता है और उसे ही शर्मसार होना होता है तो भालू फिर भोला कहां से हो गया। 
  • ऽ इसी अंक में नीदरलैंड की सैर का आलेख है। अब इस तरह के आलेखों के बारे में पहले ही चर्चा हो चुकी है। 
  • ऽ इस अंक में संस्मरण भी छपा है। एहसास। संस्मरण ऐसी विधा है,जिसे हर बार आना चाहिए। एक नहीं बल्कि कई। यह भी हो सकता है कि बच्चों के स्थाई स्तंभों में भी इसे शामिल किया जा सकता है। यह एहसास नाम से प्रकाशित संस्मरण की भाषा शैली अच्छी तो है। लेकिन बच्चों की पत्रिका में ऐसे संस्मरण प्रकाशित हों, जो बच्चों को जाने-अनजाने में भा जाएं। यहां हीरा प्रथम श्रेणी से पास हुआ। दिल्ली में रोजगार के लिए गया और फिर वहीं का हो गया। उसे जानी-मानी कंपनी में नौकरी मिल गई। अब हीरा अपने परिवार के साथ दिल्ली में खुश है। यह क्या दर्शाता है? जो घर-गांव में रह गए हैं। हीरा उनसे बेहतर है? जो पलायन कर गए,वे हीरो? सुखी जीवन की यही परिभाषा है? क्या संस्मरण के तौर पर जो भी रचना सामग्री आए,वह छापी जाए? आखिर किसी रचना सामग्री का बालमन पर क्या असर पड़ेगा। यह कौन सोचेगा?ऽ इसी अंक में एक कहानी है भविष्यवाणी। दो भाई थे। दोनों ज्योतिषी थे। एक ने कहा राजा का पुत्र होगा। दूसरे ने कहा पुत्री होगी। राजा ने कहा कि जिसकी भविष्यवाणी सही होगी उसे इनाम दिया जाएगा। यह तो तय है कि या तो पुत्र होगा या पुत्री? भविष्यवाणी और ज्योतिष कांड। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार में बाधक है। ऐसा नहीं है कि किसी भी अंक में यही सब कुछ है। कुछ अच्छी कहानियां भी हैं लेकिन इनकी संख्या कम है।
  • ऽ अधिकतर अंकों में कविता लिखो प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता, कहानी लिखो प्रतियोगिता, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता, अंक पहेली, सुडोकू, चित्र पहेली, पहेलिया, वर्ग पहेली, शब्द पहेली,दिमागी कसरत आदि। इतनी सारी प्रतियोगिताएं हर अंक में देकर कहीं ऐसा तो नहीं कि बाल प्रहरी भी बच्चों को गलाकाट प्रतियोगिता की दौड़ में दौड़ाने के प्रयास में लगी है? जैसा पहले भी कहा जा चुका है, क्या वाकई में किसी बाल पत्रिका में यह प्रतियोगिताएं अधिकतर बच्चों को शामिल करती हैं? क्या पत्रिका में शामिल यह प्रतियोगिताएं कहानी,कविता और अन्य विधाओं में प्रकाशित रचनाओं से अधिक लोकप्रिय होती हैं?
  •  ऽ इस बहाने मैंने अन्य बाल पत्रिकाएं भी इस निगाह से टटोली। संपादकों के पास भी लचर रचनाएं आना स्वाभाविक है। कारण? कारण यही है कि जब चारों ओर से बच्चे इसी तरह की रचनाओं से लबरेज पत्रिकाओं को हाथ में लेंगे तो उन्हें आदत पड़ ही जाएगी। हम बड़े भी इसी आदत का शिकार हैं। सूचनात्मक लेखन पढ़ा है तो ऐसा ही लिखेंगे। कंडीशनिंग हो गई है। आज की पीढ़ी के साथ भी हम यही करें? यहां-वहां से पढ़कर,उतारकर, सुनकर ऐसी रचनाएं बाल प्रहरी में भारी संख्या में भेजी जा रही होंगी तो यह स्वाभाविक ही है।  क्या इसे मौलिक लेखन कहा जाएगा? क्या इसे रचनात्मक लेखन कहा जाएगा?ऽ लोककथाएं खूब छप रही हैं। अच्छी बात है। लेकिन भाषा? भाषा तो बच्चों के अनुकूल हो। 
  • कुछ कहानियां इस तरह से प्रारंभ होती हैं-‘दीपक एक होनहार छात्र था। अभाव में पला था।’ कहन अच्छा है लेकिन आज के संदर्भ में इस तरह की व्याख्यात्मक शैली से अच्छा है यह संवाद में आ जाए तो बेहतर। दूसरा उदाहरण- ‘एक गांव में एक बहुत ही सीधा आदमी था। उसे बुद्धू मियां कहते थे।’ ये सीधा आदमी और उसे बुद्धू मान लेना ! हम कहीं कुछ बातें स्थापित तो नहीं कर रहे? अब स्थापित क्या हो रहा है? कि गांव में ही सीधे लोग रहते हैं? जो सीधे होते हैं उन्हें लोग बुद्धू कहते हैं। कि सीधा होना अच्छा नहीं? ये सीधा क्या होता है? एक उदाहरण और देखिए-एक आदमी था। उसके पास एक अशरफी थी। उसे अचानक रुपयांे की आवश्यकता पड़ी। आगे कहानी में बढ़ते हैं तो बात खुलती चली जाती है। दाने-दाने को मोहताज़ आदमी के पास अशरफी हो और पैसे न हो। यदि अभाव वाला हो तो वह अशरफी को रुपयों मंे बदलेगा ही न! कहानी तो कहानी है। पर कहानी में सिर-पैर तो होगा न। कोई लयबद्धता तो होगी न। बच्चों के लिए कहानी है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि कुछ भी कह दो। कुछ भी लिख दो। कहानी पढ़ने के बाद कहानी क्या दिशा दे रही है। यह कौन सोचेगा?
  • ऽ एक लेख की बानगी देखें-हमारे देश में क्रिकेट एक बुखार की तरह है। हर गली,मोहल्ले एवं खेल के मैदान में यह खेल होता है। अब सवाल उठता है कि खेल अच्छा है या बुरा? सचिन तेंदुलकर जैसे कई इस बुखार में लिप्त हुए होंगे न। 
  • ऽ ‘आज मोनू के पापा टोमी बंदर को वेतन मिला।’ अब बंदर भी नौकरी करने लगे और उन्हें भी करेंसी की जरूरत आन पड़ी। ऐसा ही- जामुन का एक पेड़ था। उसमें लारी नाम की एक मधुमक्खी रहती थी। मेरी समझ में भी बहुत बाद में आया कि जानवरों के नामकरण क्यों? क्या वह अपने मूल नाम से ही कहानियों में नहीं आ सकते?ऽ एक कहानी और देखिए-दो बार ऐसी स्थिति आ गई कि सोनू को स्कूल से निकाल दिया गया।’ इस तरह के वाक्य थोड़े से भी चंचल बच्चों में हीन भावना भर देते हैं। इस तरह के कथन से बचना चाहिए। यह निकालना क्या होता है? 
  • ऽ एक आलेख कितना अलंकृत-सा और पढ़ने में अपने शब्दों की वजह से बोझिल-सा हो गया लगता है-‘कड़कती सर्दियों में पर्णविहीन पेड़ उदास सा खड़ा बसंत के आने के दिन गिन रहा था। इसमें ये और शब्द आए हैं-विहंग,तन,प्रगाढ़,पुलकित,कृतज्ञ,निष्ठुरता,क्रम आदि।’ क्यों हम अति साहित्यिक हो जाएं? क्या यह स्वतंत्र वाचन या यूं कहूं कि पढ़ने का आनंद में बाधक नहीं। क्यों हम बड़े जो कुछ भी बच्चों के लिए लिखते हैं उसमें ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते जैसा बच्चों को पसंद हो। मतलब इतना ही है कि आम बोलचाल की भाषा हमारी रचनाओं में क्यों नहीं होती?
  • और अंत में - मैं जानता हूं कि यदि आरंभ से लेकर अंत तक बालमन के हितों को ध्यान में रखकर मेरे मन की उपर्युक्त बातों को सकारात्मक लिया जाएगा, तो न ही संपादक महोदय, बाल प्रहरी टीम-परिवार और बाल प्रहरी के नियमित रचनाकार भी कम से कम मेरी इस नज़र को किसी पूर्वाग्रह के साथ नहीं जोड़ेंगे। रही बात बच्चों की, तो कमोबेश उन्हें अभी तक स्वतंत्र तौर पर सोचने की आज़ादी हम बड़ों ने दी कहां है? उम्मीद की जानी चाहिए कि बाल पत्रिका ही नहीं और भी बाल पत्रिकाओं से जुड़े संपादकीय साथी,अग्रज और जानकार उचित तर्को पर कान देंगे। 
  • जल्द नहीं तो एक एक कर मैं अन्य बाल पत्रिकाओं को भी अपनी नज़र से देखना चाहूंगा। मैं अपने साथियों से भी अनुरोध करुंगा कि वे भी सकारात्मक दृष्टि के साथ पत्रिकाओं की समीक्षा करेंगे। मैं अभी खुद ही अच्छा पाठक बनने की प्रक्रिया में हूं। बाल साहित्यकार तो दूर की बात है। मैं अभी खुद ही कहानी की समझ को समझ रहा हूं। उम्मीद करूंगा कि जानकार मेरा भी मार्गदर्शन करेंगे।
  • सभी को सादर,
  • -मनोहर चमोली ‘मनु’
  • 09412158688

1 जुल॰ 2017

वह, जो कभी शहर था ! nainital

वह, जो कभी शहर था !

-मनोहर चमोली ‘मनु’

जी हाँ। शहर होना कंक्रीट का होना भर नहीं है। शहर का स्वभाव होता है। उसका खुश होना, अपने बाशिंदों पर हाथ रखना भी होता है। शहर अपने वासियों को सभी मौसमों का अहसास दिलाता है। रोजी-रोटी के साथ संवेदनाएं भी शहर देता है। यही कारण है कि इंसान कहीं भी जाता है लौट-लौट कर अपने शहर आता है। मैं नैनीतालवासियों से पूछना चाहता हूं जो शहर से बाहर हैं (पूरी आधी के आधे शहर से बाहर रहते हैं) क्या वे अब बार-बार अपने शहर आना चाहते हैं? 
 मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या जब भी वे नैनीताल आते हैं, शहर की हालत और हालात देखकर पसीज पड़ते हैं। मैं उन नैनीतालवासियों से भी पूछना चाहता हूं कि जो किसी भी हालत मंे शहर को छोड़कर बाहर नहीं बसे। क्या वे दिल पर हाथ कर कह सकते हैं कि वे बारह महीनों में बारह सप्ताह भी सुकून से सांस लेते हैं? मैं उन सभी से पूछना चाहता हूं कि इस शहर से मिलने और इस शहर से विदा होते हुए इत्मीनान-सा कुछ रहता है? हर शख़्स जो यहां का है और यहां दूसरी बार घूमने ही सही आता है वह अजीब सी बेचैनी लिए हुए क्यों आता है। इस शहर के हाथ-पैरों से दूर होती सड़क पर पहुंचते ही वह राहत भरी सांस क्यों लेने लगता है? 


बहरहाल हाल ही में मुझे नैनीताल में पांच रातें बिताने का मौका मिला। यह पहला अवसर नहीं था। मैं पिछले सत्रह सालों में छह से सात बार नैनीताल गया। मैं सिर्फ नैनी झील के लबालब न भरे रहने की वहज से बेचैन नहीं हूँ। यात्रा सीजन से इतर भी नैनीताल सांस लेता है। यात्रा सीजन से इतर भी नैनीताल की नैनीझील बेचैन रहती है। लेकिन इस बार नैनीताल शहर अपनी बेचैनी बार-बार बता रहा था। मैं अक्सर मोहन चैहान जी का सहयात्री रहता हूँ। वे संवेदनशील आदमी हैं। शिक्षक हैं। जन सरोकारों की अच्छी समझ के यात्री हैं। एक-दूसरे की मदद को हमेशा तत्पर रहते हैं। अपने से अधिक दूसरे का ख़्याल रखने वाले मोहन चैहान जी के साथ रहना मुझे सहज लगता है। इस बार अपरिहार्य कारणों से हम देहरादून से एक ही समय पर चले लेकिन अलग-अलग साधनों की यात्रा करते हुए चले। हल्द्वानी वे मुझसे चालीस मिनट बाद पहुंचे। मैं और वह हल्द्वानी से भी नैनीताल आधे घण्टे के अंतराल पर पहुंचे। लौटते समय हम नैनीझील से अलग हो गए। मैं मनोधर जी के साथ राज्य की परिवहन बस से लौटा तो उन्हें अकेले ही काठगोदाम जाना पड़ा। वहां से वह रेल से देहरादून पहुंचे। मैं कोटद्वार होता हुआ पौड़ी आ गया। मोहन चैहान जी एवं मनोधर नैनवाल जी का उल्लेख यहां इसलिए कर रहा हूं कि हमने कुछ समय नैनीताल में साथ-साथ बिताया। नैनीझील बरसात में लबालब भर जाएगी। लेकिन हम जो शहर का अधूरापन वहां से देखकर लौट रहे हैं वह शायद ही पूरा होगा। 

कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केन्द्र के अतिथि कक्षों में मैं और मोहन चैहान सहयात्री रहे। सुबह और शाम हमने नैनीताल शहर का जायजा लिया। एक शाम महेश बवाड़ी, महेश पुनेठा, गिरीश पाण्डेय प्रतीक, रेखा चमोली, मोनिका भण्डारी, मोहन चैहान, चिन्तामणि जोशी, दिनेश कर्नाटक लगभग सात किलोमीटर पैदल चलते हुए शहर को नीचे छोड़कर ऊंचाई में भी गए।

वर्ष 2011 के अनुसार नैनीताल शहर की आबादी इकतालीस हजार है। भारत को झीलों का जिला कहा जाता रहा है। लेकिन यह तब कहा जाता था जब इसके साठ ताल हुआ करते थे। इसका परगना छखाता यानि षष्टिखात है। साठ ताल। नयनी से नैनी हुआ और कहते हैं कि नैनी झील को तालों की आँख कहा जाता रहा है। यह झील विहंगम दृश्य के तौर पर कभी आँख का आकार लिए दिखाई देती थी। नैनीताल हिमालय की कुमाऊँ पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ है। यह 1938 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। माना जाता है कि नैनी झील की परिधि तीन किलोमीटर की है। ताल की लम्बाई कभी एक हजार तीन सौ साठ मापी गई है। इसकी चैड़ाई चार सौ साठ मापी गई है। नैनी झील आरंभिक परिधि में पन्द्रह मीटर है तो अधिकतम गहराई एक सौ छप्पन मीटर मापी गई है। जानकार बताते हैं कि गर्मियों में कभी इसका तापमान 23 डिग्री से अधिक नहीं जाता था। लेकिन पिछले कुछ सालों में तीस डिग्री से अधिक भी तापमान महसूस किया गया है। इसी तरह सर्दियों में तो बर्फ की आमद से शून्य डिग्री से नीचे रहता ही रहा होता था। सर्दियों में जहां अधिकतम तापमान दस-ग्यारह ही रहता था अब वह सत्रह तक आ पहुंचता है। हालांकि बदलते मौसम का प्रभाव पर्यटकों पर नहीं पड़ा है। पर्यटक अब तो सालाना दिनों में ही आते हैं। कभी मई-जून और अक्टूबर-दिसंबर बेहद आमद हुआ करती थी। अब तो पर्यटक सिर उठाए कभी भी आ जाते हैं। अच्छी बात है। लेकिन आवत-जावत ही जी का जंजाल बन जाए तो, दुश्वारियां है कि बढ़ती जाती हैं। आस-पास काफल,बांझ,बुरांश,चीड़,देवदार, मोरपंखी के वृक्ष खूब रहे हैं। लेकिन अब सघन वन के पेड़ांे ने भी खुली हवा में सांस लेना शुरू कर दिया है। 

हम दो दिन तीन दिनों से देहरादून से नैनीताल जाने के माध्यम पर बात कर रहे थे। मोहन चैहान जी का काठगोदाम तक रेल से आरक्षण था। मुझे नहीं मिला। अंत समय तक मेरा जाना संशयपूर्ण था। शिक्षक साथी मनोधन नैनवाल जी ने संपर्क किया तो हम दो हो गए। हाईटैक बस से से हम दोनों ने हल्द्वानी तक आरक्षण करा लिया। महेन्द्र राणा प्रताप अंतराज्यीय बस अड्डा देहरादून में शिक्षक साथी रेखा चमोली, मोनिका भण्डारी, कमलेश जोशी मिल गए। मदन मोहन पाण्डे सहित गिरिश सुन्द्रियाल भी मिल गए। एक से भले दो के बाद हम अब सात हो गए थे। हम सुबह छह बजे हल्द्वानी पहुंच गए। हल्द्वानी से नैनीताल जाने के लिए बस में आम किराया पेंसठ रुपए है। टैक्सी वालो से बात की तो कोई तीन हजार तो कोई दो हजार रुपए मांगने लगा। हल्द्वानी से नैनीताल की दूरी लगभग चालीस किमी है। खैर हमने साझा टैक्सी की तो भी हमें एक हजार रुपए देने पड़े। वहीं मोहन चैहान जी अकेले एक टैक्सी लेकर नैनीताल पहुंचे तो उन्हें पांच सौ रुपए देने पड़े। यही नहीं एक साथी को वापसी में काठगोदाम आना था दो घंटे पहले बेतहाशा जाम लग गया। ऐसा माहौल बना कि उन्हें एक हजार पांच सौ रुपए देकर टैक्सी से मात्र सत्रह किलोमीटर की यात्रा की यह कीमत चुकानी पड़ी। हमारी सुनिए। हम सब वापसी के लिए इतनी चिन्ताकुल हो गए कि कार्यक्रम के समापन और विदाई का भी आनंद न ले सके। मोहन चैहान जी की वापसी काठगोदाम से रेल से थी। हमें यात्रा ऐसे करनी थी कि हम किसी तरह नजीबाबाद रात के दो बजे से पहले पहुंच जाएं। ताकि हमें दिल्ली से पौड़ी आने वाली बसें मिल जाएं। हम अतिथि ग्रह से पैदल चल पड़े। रास्ते में देखा कि वाकई जाम लगा है। बस अड्डे तक पहुंचना ही भारी हो गया। ये तो अच्छा हुआ कि हम तीनों के पास एक एक नग ही था। हम अभी मल्ली ताल के ऊपरी छोर पर ही पहुंचे थे कि हमे एक रिक्शा वाला जाता हुआ दिखाई दिया। मैंने उसे पुकारा तो वह कुछ आगे जाकर रुक गया। रिक्शा स्टैण्ड में भी रिक्शा करने के लिए भीड़ जमा थी। हम रिक्शा वाले के पास लपक कर पहुंच गए। हम पहले भी एक सुबह रिक्शा से बस स्टैण्ड तक का जायजा ले चुके थे। हमें पता था कि दस रुपए एक सवारी का है। फिर भी उतरते वक़्त हमने चालीस रुपए उसे दिए। हम नैनीताल बस अड्डे पर चार बजकर पांच मिनट पर पहुंच चुके थे। मोहन चैहान जी को बस में दिक्कत होती है और अब उन्हें काठगोदाम तक ही जाना था। हमने उन्हें काठगोदाम के लिए जाने को कह दिया और मैं और मनोधर नैनवाल जी बस अड्डे के बुकिंग काउंटर पर जा पहुंचे। सारी बातों को देखते समझते हमने तीन रोडवेज की बसों के हालात देख लिए थे जो हल्द्वानी तक गई तो लेकिन बसों में भेड़-बकरियों की तरह चढ़ती सवारी और उनपर लाठी भांजते पुलिस के दो जवानों को देखकर हमारा दिल तो बैठ गया। 


हम दोनांे ने चार बजकर बीस मिनट पर नैनीताल से हरिद्वार रोडवेज बस में अपनी सीट पक्की करा ली। भवाली से भवाली डिपों की हमारी बस को छह बजे नैनीताल आना था। हमारी सीट उन्नीस और बीस थी। हमारे पास डेढ़ घण्टे से अधिक का समय था। हम दोनों ने बुकिंग काउंटर पर बैठे युवक से प्यार के दो बोल बोले तो उसने हमारे दोनों बैग रखने स्वीकार कर लिए और हम नैनी झील की ओर चल पड़े। थोड़ी देर आगे तक ठंडी सड़क की ओर गए। भवाली मार्ग पर हमने चाय भी पी। सुलभ शौचालय पानी विहीन था फिर भी जैसे-तैसे फारीग हुए। इस बीच भवाली से जो भी बसें आतीं उस पर चढ़ने के लिए यात्रियों की मारा-मारी देखते ही बनती थी। हमारा लक्ष्य तो अपनी बस नंबर 3253 पर ही था। हमने योजना बनाई कि एक हमारे दोनों बैग का ध्यान रखे और दूसरा इस बस को खोजते हुए भवाली मार्ग की ओर चल पड़े। मैंने जाना तय किया। लगभग एक किलोमीटर आगे चलते हुए यह बस मिल ही गई। यह भी जाम में फंसी हुई थी। मैंने टिकट दिखाकर कंडक्टर से दरवाजा खुलवाया। मनोधर जी को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। वे भी हम दोनों के एक-एक बैग उठाते हुए बस की ओर आ गए। सात बजकर बीस मिनट पर किसी तरह से हम नैनीताल से रवाना हुए। यह बस भी भेड़-बकरियों की तरह यात्रियों से ठूंसी जा चुकी थी। 

इस पूरी यात्रा को बिन्दुवार रखना चाहता हूं।

एक-नैनीताल सपिरवार या एक से अधिक बैग लेकर आने वाला यात्री कमोबेश दोबारा यहां पैर नहीं रखता।

दो-जिज्ञासु,घुमक्कड़ी स्वभाव वालों से अधिक यहां मौज-मस्ती करने वाले युवा अधिक आने लगे हैं। जिन्हें न शहर के स्वभाव से कोई लेना-देना है और न ही सैलानियों की मूल प्रवृत्ति से उन्हें कोई मतलब है। 

तीन-धनाढय कथित पर्यटक अपनी एसी गाड़ियों में आते हैं, वे हल्द्वानी से आगे चढ़ते हुए बेतहाशा रुपया लुटाते हैं। उन्हें भी दूसरे की परेशानी से कोई लेना देना नहीं होता। वे रात बिताने के लिए और भोजन करने के लिए पटाखों पर दौलत खर्च करने वाली शोखबाज़ी दिखाने का एक भी अवसर नहीं चूकते।

चार-2011 से ऐसे पर्यटकों की आमद बेतहाशा बढ़ी है जिन्हें नैनीझील के पास सेल्फी लेना और झील में नौकायन का आनंद लेना ही आता है। यह दो काम कर लेने के बाद उन्हें लगता है कि वे गंगा नहा चुके। 
पांच-रिक्शा चालकों में पूरी ईमानदारी देखी जाती है। वे शाम छह से नौ रिक्शा नहीं चला सकते। सुबह से लेकर शाम तक वे यहां-वहां दौड़ते मिलेंगे। रिक्शा के रेट तय हैं। कोई ख़बीस ही होगा जो पर्यटकों से ज़्यादा पैसे वसूलेगा। बेचारे वीआईपीज़ को भी ठेलते हैं। 

छह-दवा लेनी हो या फोटो स्टेट करानी हो। यह काम नैनीताल में जोखि़म भरा है। हां दूसरे शौक करने हों तो उसके माध्यम खूब मिल जाएंगे और अवसर भी और ऐजेंट भी। 

सात-पन्नी पैक्ड दूध ग्यारह बड़े ट्रक आते हैं। दो-तीन दूध बेचते अस्थाई दुकानदारों ने बताया कि इन दिन चालीस हजार लीटर दूध नैनीताल में आ रहा है। अब मुर्गों, बकरों और मदिरा का अंदाज़ा लगा लें।

आठ-सुबह सात बजे से पहले नैनी झील के आस-पास कूड़ा बटोर रहे दो युवकों से बात की तो वे बोले-‘‘काहे परेशान कर रहे हो। नौ बजे से पहले ये कूड़ा समेटना है। फुरसत ना है।‘‘ मैंने देखा कि कूड़ादान पलटते और उन्हें बोरों में भरते हुए ऐसे नौजवान बीस-एक थे। कूड़े में हड्डिया और बोतले अधिक थीं। सिगरेट के ठूंठ तो अनगिनत थे।

नौ- सुबह-सुबह सड़क के दोनों ओर चाय-खोमचे वालों का अंबार लगा देखा। चाय,नाश्ता मुहैया कराते ये अस्थाई रेहड़ी-ठेली वाले धन्य है। सुविधा शुल्क देने के बाद ये हजारों पर्यटकों के राम बने हुए हैं। उनके लिए जो गफलत में ही सही नैनीताल तो आ गए लेकिन रात को मंहगे होटलों में न तो रुक सके और न ही वहां के मंहगे भोजन का आंनद ले सके। पूछने पर पता चला कि ये सब अस्थाई दुकानदार नौ बजने से पहले ही खिसक लेंगे। नही ंतो स्थानीय प्रशासन लट्ठ अलग पेलेगा और सारा सामान ज़ब्त भी कर लेगा। मोहन चैहान जी चाय पीते नहीं। अपन ने दो दिन सुबह की यही चाय पी। बातों ही बातों में पता लगाया तो पता चला कि एक रेहड़ी ठेली वाला सुबह के दो-तीन घंटों में दो से तीन हजार की चाय-चाय ही बेच डालता है। जी हां केवल चाय। 

दस-राज्य का उच्च न्यायालय शांत ही दिखाई दिया। लेकिन वह केवल कड़े निर्णय ही सुनाता है। अमल दरामद तो सरकार करती है। सुना है कि नैनीझील को भी गंगा की तरह एक जीवित व्यक्ति मानकर उसे बचाने की बात चल रही है। पर क्या गंगा की रक्षा हो रही है जो झील की रक्षा हो सकेगी?

ग्यारह-साथियों ने भी बताया और हमने भी देखा स्थानीय लोगों ने एक घर हल्द्वानी भी बनवा लिया है। वे आस-पास अपने पैतृक गांवों मे ंचले जाते हैं। पर्यटकों के आवत-जावत हो-हल्ले के आदी स्थानीय या तो मूक रहते हैं या खुद को कूल रखने के लिए अस्थाई पलायन कर जाते हैं। 
बारह-घर भी पेइंग गेस्ट और घरनुमा होटल में तब्दील हैं। सूखाताल सहित कई जगह पर पार्किंग हैं। आदमी कम और गाड़ियां ही गाड़िया देखनी हैं तो सुबह टहलने आ जाइए या शाम के समय भ्रमण कीजिए। इस बोलते शहर को चिल्ल पौं करते हुए आप अपने कान भींच लेंगे।

तेरह-नैनीताल का जंगल कभी नगर पालिका प्रशासन के नियंत्रण मंे था। अब वह वन विभाग के पास है। वृक्षा रोपण होता दिखाई देता है लेकिन एक छोटा से जंगल को किशोर होने में ही साठ बरस लग जाते हैं। अब साठ बरस पुराना जंगल बड़ी सफाई से बूढ़ा किया जा रहा है। 

चैदह-नैनीताल हाईकोर्ट से लेकर मल्ली ताल के अधिकतर अस्थाई नाले पक्के कर दिए हैं। कहीं भी पानी जमीन में रिसता नहीं। सब ढलान की वजह से नैनीझील की ओर बढ़ता दिखाई देता है पर कहां जा रहा हैं यहा सब जानते हैं पर मानते नहीं।

पन्द्रह-चारों ओर कूड़ा ही कूड़ा। नैनीताल में घुसते ही और नैनीताल से बाहर जाते हुए नाक में सडांध घुसती है। वह स्थानीय जनों की देन नहीं कथित पयर्टकों के द्वारा फैलाई गंदगी है। पैदल चलना मुश्किल हो जाता है। सीजन जब पीक पर होता है तो आपको स्थानीय सब्जी,फल और उत्पाद ढूंढे नहीं मिलेंगे। हां भुट्टा तीस रुपए में एक जरूर मिल जाएगा। विलासितापूर्ण भोज्य पदार्थ कहीं भी मिल जाएंगे। 

सोलह-नैनीताल में सब कुछ दिखाई देता है बस नहीं दिखाई देते स्थानीय लोग। स्थानीय वस्तुएं। मुझे तो स्थानीय नैनीताल भी नहीं दिखाई दिया। ग्लोबल नैनीताल देखना है तो वह कहीं भी बैठकर देखा जा सकता है। फिर मेरे जैसा कोई यहां बार-बार क्यों आना चाहेगा।

सत्रह-बस,जीप,टैक्सी से यात्रा कर यहां पहुंचे लोग कहते हैं कि बहुत समय जाम ने खा लिया। अच्छा होता अपनी गाड़ियां लेकर आते। निजी गाड़ियां लेकर आए लोगों से बात करें तो वह कहते कि पका दिया। अच्छा होता जो अपनी गाड़ी लेकर नहीं आते। 

अठारह-मैं सोच रहा हूं कि हर साल हजारों पर्यटक यहां आ रहे हैं। दस में नौ पर्यटक कहते हैं कि दोबारा नहीं आएंगे। फिर भी भीड़ हैं कि छंट नहीं रही। सैर-सपाटा नैनीताल का प्राण है। यदि प्राण है तो यह कमाया धन जा कहां रहा है?

और अंत में पूर्व की यात्राओं में मैंने जिस शहर से संवाद किया था। जिस नैनीताल की सड़कर पर चलते हुए मुझे रमणीक स्थल का अहसास हुआ था। जिस नैनीताल की झीलों की मछलियां टुकुर-टुकुर मेरी आंखों में झांककर मेरा स्वागत करती थी। जिस नैनीताल के चीड़-देवदार-बांझ-बुरांश के पेड़ों की नायाब सुगंध दिल और दिमाग को ठंडक पहुचाती थीं, जिस नैनीताल के भुट्टे में यहां की मिट्टी का स्वाद मिला था। जिस नैनी झील में विचरण करते चप्पू जल को चूमता हुआ हमें भी रोमांटिक करता था, आज वह सब स्थितियां घबराई हुई सी मिलीं। जैसे कह रही हों-‘‘हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। अब मत आना यहां तुम।’’

(यह आलेख दिनांक 25 से 28 जून 2017 पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर....विषयक संगोष्ठी के दौरान नैनीताल प्रवास के दौरान हल्द्वानी-नैनीताल के शिक्षक साथियों, पर्यटकों एवं दुकानदारों से हुई बाचतीत एवं स्वयं के अवलोकन के आधार पर तैयार किया गया है। यह किसी शोध एवं ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं है। )

-मनोहर चमोली ‘मनु’