2 जुल॰ 2018

‘पुस्तक संस्कृति‘ का बाल साहित्य विशेषांक
-मनोहर चमोली ‘मनु’
एन॰बी॰टी॰ द्वारा साहित्य और संस्कृति की दुमाही पत्रिका ‘पुस्तक संस्कृति’ का प्रकाशन प्रारंभ हुए तीन वर्ष हो चुके हैं। पत्रिका का बाल साहित्य विशेषांक प्रकाशित हो गया है। चैसंठ पृष्ठों का यह अंक कई मायनों में अतुलनीय बन पड़ा है।

अमूमन बाल साहित्य के नाम पर अधिकतर पत्रिकाएं या तो रस्म अदायगी की भेंट चढ़ जाती हैं या फिर उसमें अधिकतर पृष्ठ कविता-कहानी को समर्पित हो जाते हैं। पुस्तक संस्कृति ने सही अर्थों में समग्रता के साथ साहित्य में बाल-मन की थाह को सम्मान देकर विपुल स्थान दिया है।

संपादकीय के साथ, पाठकों की प्रतिक्रियाएं हैं। क्षमा शर्मा का आलेख आज के परिदृश्य में बच्चे और लेखक शामिल हुआ है। अमृतलाल नागर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित आलेख ‘अनूठे बाल साहित्यकार और कुशल वाचक: अमृतलाल नागर डाॅ॰नागेश पाण्डेय ‘संजय ने लिखा है। प्रकाश मनु की कहानी एक स्कूल मोरों वाला अंक में प्रकाशित है। डाॅ॰ जसविंदर कौर बिन्द्रा का आलेख बच्चे: साहित्य और कला क्षेत्र पत्रिका में है। पवन चैहान का लेख ‘हिमाचली बच्चों के खेल‘ को पर्याप्त स्थान मिला है। प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ का आलेख भाषा की कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर भी प्रकाशित हुआ है।

विज्ञानपरक लेख ‘विज्ञान, गतिविधि और बाल साहित्य‘ डाॅ॰मनीष मोहन गोरे का है। रेनू सैनी की कहानी ‘जूतों का साथ‘ को भी शामिल किया गया है। डाॅ॰शुकन्तला कालरा ने विमर्शपरक लेख लिखा है। यह विमर्श के कई आयाम खोलता है। ‘भूत-प्रेत और परीकथाओं की प्रासंगिकता‘ लेख का नाम है। देवेंद्र कुमार की कहानी ‘कोई तो मदद करो‘ अंक में सम्मिलित है। पत्रिका में एक और विशेष लेख है। ‘बच्चों की पुस्तकों का अनुवाद-समस्या व चुनौती‘ को सुमन वाजपेयी ने लिखा है। शशि पाधा का लेख ‘वीर स्थली का सिंह नाद‘ भी पत्रिका में उपस्थित है।

दिविक रमेश की कविता ‘नानू को समझाओ’ अंक में शामिल है। परमेंद्र सिंह की कविता ‘स्कूल जाता बच्चा’ और हमारे बच्चे भी हैं। श्याम सुशील की कविता ‘हवा में कविता‘ और बजते-बजते बजी बाँसुरी भी प्रकाशित हुई है। तेरह पेजों में कई विशेष पुस्तकों की शानदार समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं। दो पृष्ठों में उन पुस्तकों की जानकारी हैं जो पुस्तक संस्कृति को लेखकों ने भेजी हैं। साहित्यिक गतिविधियों की ख़बरों को दो पेजों में स्थान मिला है।

आइए, पत्रिका में शामिल विचारों को कुछ बानगी पढ़ते हैं-

प्रधान संपादक के हवाले से संपादकीय में प्रो॰बलदेव भाई शर्मा कहते हैं-

‘हम कितने ही धनाढ्य हों पानी को बरबाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के संसाधन सबके लिए हैं, उनके लिए भी जो साधनहीन हैं। प्रकृति की परवाह नहीं करोगे,अपने धन के अहंकार में उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझोगे तो वह मानवजाति को ही नष्ट कर देगी।‘

क्षमा शर्मा लिखती हैं-

‘काॅरपोरेट तकनीक, पश्चिम और हमारे यहाँ के कुछ अमानवीय मूल्यों ने भी बच्चों के जीवन मंत्र को मात्र मनी,मोबाइल और माॅल्स तक ही सीमित कर दिया है। बच्चे को बहलाना है तो उसे पैसे दे दो, उसके सवालों से दो-चार नहीं होना है तो उसे मोबाइल या टेबलेट पकड़ा दो और घुमाने ले जाना हो तो माॅल्स में ले जाओ। यहीं कारण है कि बच्चे आज तमाम तरह के रिश्तों से ही नहीं, अपने आसपास की प्रकृति से भी कट गए हैं।’

डाॅ॰नागेश पाण्डेय ‘संजय’ अपने लेख में लिखते हैं-

‘अमृतलाल नागर के कथानायक बच्चे किसी परी के आगे लालायित भाव से खड़े नहीं दिखते बल्कि वक्त जरूरत वे परी की भी सहायता करते देखे जाते हैं। यही बाल साहित्य का प्रगतिशील पक्ष है जिसकी धमक उनके साहित्य में उस जमाने में जब परतंत्रता की बेड़ियों ने कहीं न कहीं हमारे मन और हमारी सोच को भी कैद कर रखा था। यह कम बड़ी बात नहीं है कि नागर जी उस जमाने में कितने बड़े स्वप्नों के दृष्टा और सृष्टा थे। जही हाँ, बच्चों में लीक से हटकर कुछ नए सपनों को जगाने के सृष्टा।‘

प्रकाश मनु की कहानी एक स्कूल मोरों वाला का एक अंश आप भी पढ़िएगा-

‘तान्या का बनाया चित्र सबको पसंद आया। उसने एक मोर को गले में बस्ता टाँगकर स्कूल जाते हुए दिखाया। पर इससे भी अच्छा चित्र एक नन्हे बच्चे कर्ण ने बनाया था। उसमें सारे मोर मिलकर एक उदास बच्चे को खुश करने की कोशिश कर रहे थे। बीच में बच्चा था और आसपास गोला बनाकर नाचते हुए ढेर सारे मोर।‘

बच्चे: साहित्य और कला क्षेत्र में डाॅ॰ जसविंदर कौर बिन्द्रा लिखती हैं-

‘वैसे भी बचपन कासमय दिन-ब-दिन घटने लगा है। कभी बच्चे छह या सात वर्ष की आयु में स्कूल में दाखिल किए जाते थे। फिर यह घट कर पाँच या चार तक पहुँची,परंतु अब तो दो-ढाई वर्ष के बच्चों को ही स्कूल भेजा जाने लगा है। उस पर भी सितम यह कि सभी माँ-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा हर विषय और गतिविधि में अव्वल रहे। हम स्वयं अपने बच्चों का बचपन छीनने के कसूरवार हैं।‘

हिमाचली बच्चों के खेल के बहाने पवन चैहान लिखते हैं-

‘इन सारे खेलों का अपना-अपना महत्व है। ये खेल जहाँ मनोरंजन का खजाना हैं, वहीं गणित व विज्ञान आदि के साथ कई सकारात्मक सामाजिक पक्षों से भी बच्चों को रु-ब-रु करवाते हैं। मेरा मानना इतना ही है कि कुछ समय के लिए अभिभावक अपने बच्चों को उपरोक्त खेलों में अवश्य शामिल करवाएँ ताकि बच्चा सही मायने में एक अंदरुनी खुशी के साथ,अपने बचपन की थाह पा सके।‘

भाषा की कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर में प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ लिखते हैं-

‘बच्चों ने गाय पर निबंध लिखा था। उनके लेखन में वर्तनी की बहुत अशुद्धियां थीं लेकिन भाषा उनकी अपनी थी जिसमें उनके परिवेश की बोली के शब्द घुले-मिले थे। भाव और उनका प्रवाह सहज था। मौलिक चिंतन तो था ही कल्पना को व्यक्त होने का भरपूर अवसर मिला था। हर निबंध में उनकी अपनी छाप थी।‘

डाॅ॰मनीष मोहन गोरे अपने लेख विज्ञान,गतिविधि और बाल साहित्य में लिखते हैं-

‘जहाँ तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात है, यह सोचने, समझने और निर्णय करने का एक तर्कसंगत नजरिया होता है। कोई भी वैज्ञानिक एक नियत विधि या परिपाटी से होकर प्रमाणित निष्कर्ष पर पहुँचता है। हम अपने दैनिक जीवन में बिना वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग किए अनेक कार्य करते हैं जो असंगत और नुकसानदायक होते हैं।‘ वे इनके कई उदाहरण देते हैं-‘प्लास्टिक के कप में गर्म चाया या कोई अन्य पेय पदार्थ पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है और कमरे की दुर्गंध को दूर करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले रूम फ्रेश्नर और माॅस्किटों रिपेलेंट कैंसरकारण्क होते हैं। धूप से आकर हम तुरंत ठंडा पानी पी लेते हैं। इससे शरीर का तापमान का संतुलन बिगड़ जाता है। सब्जी और फल धोकर तुरंत उन्हें प्रयोग कर लेते हैं, जबकि उन्हें पकाने या खाने से पहले घंटा,आधा-घंटा पानी में रख देने से, उनके कीटनाशक रसायन पानी में घुल जाते हैं। ऐसी तमाम मामूली मगर जरूरी बातों की जानकारी और उसमें अपनी सूझ-बूझ लगाने से हमारा जीवन स्वस्थ और पर्यावरण सुरक्षित रहता है।‘

रेनू सैनी की कहानी जूतों का साथ का एक अंश पढ़िएगा-

‘‘माँ मैं इन जूतों को हमेशा अपने साथ रखूँगा, क्योंकि मेरी सफलता में इन जूतों ने प्रमुख भूमिका निभाई है।’’

डाॅ॰ शकुन्तला कालरा का लेख भूत-प्रेत और परीकथाओं की प्रासंगिकता विशेष लेख बन पड़ा है। आप एक अंश पढ़िएगा-

‘इस प्रकार आधुनिक रचनाकारों की दृष्टि में बच्चों के लिए वहीं साहित्य ही श्रेयस्कर है जो बालजीवन से जुड़ा है, जिसमें बच्चों की अपनी दुनिया है। जहाँ उनके रंगीन सपने हैं, उनकी भाव-भंगिमाएँ हैं। उनके आँसू-मुस्कान हैं। सुख-दुख के चित्र हैं। किसी वायवी जीवन को बाल साहित्य का आधार नहीं बनाया जा सकता । परीकथाओं का सुख-दुखात्मक भावजगत् हमारे जीवन से कहीं भी सादृश्य नहीं रखता। यहां यथार्थ जगत नहीं वरन् अतिरंजित कल्पना-जगत होता है जिसका कोई आधार नहीं होता। वह जीवन के प्रति रूमानियत से भरा होता है। इसी करण जब बच्चे का समाना ठोस यथार्थ से होता है तो वह पलायन करने लगता है।‘
बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। पठनीय है और मननीय भी है।

देवेंद्र कुमार की कहानी कोई तो मदद करो का एक अंश आप भी पढ़िएगा-

‘मैं थोड़ी दूर पर एक स्टोर में काम करता था। आज मुझे बुखार था, इसलिए देर से दुकान पहुँचा तो मालिक ने काम से निकाल दिया। मैंने बुखार होने की बात कही पर उसने एक न सुनी। मुझे पगार का बकाया भी नहीं दिया। मैं यहाँ आकर पटरी पर लेट गया। तभी ये बाबा आ गए। मेरे लिए दवा लाए, खाने को दिया। फिर ये अम्मा आकर मेरा सर दबाने लगी।’

बच्चों की पुस्तकों का अनुवााद: समस्या व चुनौती सुमन वाजपेयी ने लिखा है। एक अंश आप भी पढ़िएगा-

‘बच्चों के लिए अनुवाद करते समय उसकी सोच,समझ और विकास के स्तर को नजरअंदाज कर देता है। उसकी दुनिया का हिस्सा न बन पाना ही अनुवाद की सरलता व सरसता के लिए सबसे बड़ी बाधा है। जैसे बच्चों के लिए लिखते समय लेखक के लिए उसके धरातल पर आकर उसकी दुनिया,मन व अपेक्षाओं को महसूस करना अनिवार्य होता है,वैसे ही अनुवाद करते समय भी इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।‘

यहाँ बानगीस्वरूप कुछ ही रचना-सामग्री के अंश दिए जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाल साहित्य विशेषांक संग्रहणीय बन पड़ा है।

पत्रिका: पुस्तक संस्कृति,दुमाही

मूल्य: 35 रुपए अंक

वार्षिक सदस्यता: 225 रुपए

प्रधान संपादक: प्रो॰ बलदेव भाई शर्मा

संपादक: पंकज चतुर्वेदी

प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत, नई दिल्ली

मेल: editorpustaksanskriti@gmail.com

सम्पर्क: 011-26707758,26707876
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प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
7579111144

20 फ़र॰ 2018

उठो लाल अब आँखें खोलो -अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी

आज के सन्दर्भ में ऐसी कविताएँ नहीं लिखी जानी चाहिए !

अच्छा हुआ कम से कम भाषा की पाठ्य पुस्तकों में अब ये नहीं हैं !

उठो लाल अब आँखें खोलो
पानी लायी हूँ मुँह धो लो।
बीती रात कमल-दल फूले
उनके ऊपर भौंरे झूले

चिड़ियाँ चहक उठीं पेड़ों पर
बहने लगी हवा अति सुन्दर
नभ में न्यारी लाली छायी
धरती ने प्यारी छवि पायी

भोर हुआ सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया
ऐसा सुन्दर समय न खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ।

-अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी

इस कविता पर बात करने से पहले मैं बताता चलूं कि पोस्ट लिखते समय मैंने मात्र दो पँक्तियाँ लिखी थीं-‘आज के सन्दर्भ में ऐसी कविताएं नहीं लिखी जानी चाहिए! अच्छा हुआ कम से कम भाषा की पाठ्य पुस्तकों में अब ये नहीं है।‘

मेरा इतना कहने भर से दोस्तों ने अपनी राय देनी शुरू कर दी। मक़सद भी यही था। मैं बार-बार यही कहता हूं कि असहमति से हमें बिदकना नहीं चाहिए। हमें यह भी जानना चाहिए कि आज जो रचना नई है कल पुरानी हो जाएगी। अधिक पुरानी इतिहास हो जाएंगी। कुछ ऐसी हो जाएंगी जिनके बारे में चर्चा न ही हो, वही बेहतर। सबसे पहले आपका आभार कि आपने कम से कम इस कविता पर ध्यान देने का मन तो बनाया। टिप्पणियां की। आप के विचार इस ओर एक पहल की तरह है। कई दोस्त तो दूर खड़े होकर जायज़ा लेते हैं। कुछ विचार शून्य हैं। वह चिन्तन ही नहीं करना चाहते। 

इस आलेख का मक़सद यही है कि हम हर पुरानी चीज़ को केवल गौरव, संस्कृति और जीवन से जोड़ कर नहीं देख सकते। मसलन सती प्रथा, बाल विवाह, विधवाओं के साथ हमारा व्यवहार, हमारी लोक मान्यताएं पुरानी मान्यताओं में रहा है। तो क्या हम उन्हें अपने गौरव से जोड़ सकते हैं? बहुपति विवाह जैसी मान्यताएं भी हमारे लोकजीवन का हिस्सा रही हैं। तो क्या हम आज अपनी बेटियों को ऐसे विवाह की ओर धकेलना चाहेंगे? 

बहरहाल..... मैं जानना चाहता था कि बतौर भाषा की किताब में ऐसी कविताओं के प्रति आम धारणा क्या है। बदस्तूर आ रही टिप्पणियों ने मेरा हौसला बढ़ाया और मैं इस पर विस्तार से लिख रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि आप सहमत हों न हों। लेकिन धैर्य से, गंभीरता से, इसे पूर्व की भांति अवश्य पढ़ेंगे। 

हम वाक़िफ़ हैं कि बेहतर और गंभीर पाठक कौन होते हैं। अभिभावक, लेखक और अध्यापक कौन होते हैं? ज़ाहिर है मेरी तरह आप भी मानते ही होंगे कि इन सभी के लिए आवश्यक है कि वह नया सीखने और समझने के लिए तत्पर हों। वह जान चुकी और मान चुकी मान्यताओं, धारणाओं को अंतिम सत्य न मानें। वह हर बार खुद में अवलोकन करते रहने की क्षमता को ज़िन्दा रखते हों। वह निरंतर प्रयोग करते रहते हों। विश्लेषण करते हों। पुरानी मान्यताओं, समझ और धारणाओं की गठरी लिए न फिरते हों। 

बेहतर और गंभीर वही हैं जो नए ज्ञान और सृजन के निर्माण में पुरानी बातों, मान्यताओं और धारणाओं से खुद को अद्यतन करते रहें। हम सभी को इस ओर सोचना होगा कि क्या हम ऐसा करते हैं? इसे एक उदाहरण से और समझा जा सकता है। आजकल स्मार्ट फोन और एण्ड्रायड फोन सभी के पास हैं। हमें अक्सर अपने फोन को अपडेट करने की जरूरत क्यों पड़ती है? फोन में पुरानी फाईलों को हमें क्यों हटाना पड़ता है? जवाब हम जानते हैं।

हमें समझना होगा और खुद में पुरानों को नकारने का साहस बटोरना होगा। नकारने से पहले नकारे जाने के निष्कर्षों के आयामों की पड़ताल करनी होगी। हमारे भीतर बुजुर्गों की बातें, पुराने आदर्श व्यक्तित्वों के तौर तरीके गहरे घुसे हुए हैं। उनमें अगाध विश्वास रखे रहना और आंख मूंदकर यकीन करते रहना भी हमारे भीतर जमा हुआ है। उनका कद और प्रसिद्धि इतनी विशाल है कि बेहतर और गंभीर विचारक भी नए विचारों को प्रस्तुत करने का साहस नहीं बटोर पाते। क्या ऐसा करते रहना सही है? 

फिर इस कविता के आलोक में बात आगे बढ़ाते हैं। मैंने ये नहीं कहा कि अयोध्यासिंह उपाध्याय जी ने ये कविता रचकर गलती कर दी। मैंने यह भी नहीं कहा कि इस कविता को साहित्य से खारिज कर दिया जाना चाहिए। हाँ, ये या ऐसी कविताएं यदि आज भी स्कूली पाठ्य पुस्तकों में हैं, वह भी भाषा की पुस्तक में तो ये या ऐसी कविताएं अब नहीं होनी चाहिए। किसी भी दशा में नहीं होनी चाहिए। 

क्यों न हों? धैर्य से पढ़ने का विनम्र निवेदन तो करना ही चाहूंगा। 

यह कविता लगभग अस्सी-नब्बे साल पहले लिखी गई बताई जाती है। हरिऔध जी का देहावसान आजाद भारत के अस्तित्व में आने से पहले हो चुका था। तो तय है कि उस दौर में उपजी कविता, कविता के सन्दर्भ, देशकाल, परिस्थितियां, वातावरण ऐसा ही रहा होगा। लेकिन आज न तो ऐसी स्थितियां हैं न ही परिस्थितियां हैं। न घर में, न समाज में और स्कूल में तो कतई नहीं है। 

‘लाल’ की भी परवरिश हो कहना अलग बात है और लाल की ही परवरिश की बात करना में अंतर है। आज केवल लाल ही लाडला है, ऐसा आज नहीं है। लाली की भी परवरिश होती है। आज के सन्दर्भ का कोई भी स्कूल मात्र लालों के सन्दर्भ में नहीं चल रहा और न ही चलना चाहिए। यदि चल रहा है यानि जहां लालों को वर्चस्व का सिद्वान्त ही पढ़ाया जा रहा है तो ये प्राकृतिक नियम के विरुद्ध है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था के भी विरुद्ध है। यहां यह कहने का आशय कदापि नहीं है कि आप हर कविता को लिंग भेद की दृष्टि से ही देंखें। कोई कविता ऐसी क्यों न हो जिसमें बालक ही बच्चों का प्रतिनिधित्व करता ध्वनित हो। संभव है। यह भी संभव है कि कोई कविता केवल बालिका की ओर से पूरे बच्चों का प्रतिनिधित्व करने वाला स्वर दे रही हो। इस पर फिर कभी बात जरूर करूंगा। 

आज तो यह आधी दुनिया को हाशिए पर रखने वाली कविता मानी जाएगी, यदि आज का कवि ऐसी रचना लिखेगा। पाठ्य पुस्तक में तो इसे रखना बेहद संकीर्ण माना जाएगा। मुझे हैरानी होती है कि आज पचास से साठ की उम्र पार कर चुके कई शिक्षक भी इस कविता को स्कूली किताब के हिस्से के तौर पर गर्व महसूस कर रहे हैं। मुझे हैरानी होती है कि भाषाई कौशल में मौलिक अभिव्यक्ति और स्वतंत्र चिंतन से इतर वे रटने को आज भी शैक्षिक सिद्वान्त का सूत्र मान रहे हैं। सहज है, सरल है तो बढ़िया है। इस कविता से कौन से भाषाई कौशल का विकास होगा? इस पर विचार शून्यता ही दिखाई देती है।  

मैं फिर से अपने लिखे दूसरे वाक्य पर आता हूँ। मैंने इस कविता को पाठ्य पुस्तक में न शामिल होने की बात की है। मैंने कविता, कविता के शिल्प और कवि के कर्म को चुनौती नहीं दी है। इस कविता को साहित्य से खा़रिज नहीं किया है। मैंने तो बस इतनी सी बात कही है कि यह पाठ्य पुस्तकों में न हो। पहले थी और आज कम से कम सार्वजनिक विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों में ऐसी कविताएं नहीं ही हैं। क्यों नहीं हैं? इस पर आप भी विचार कीजिए।

याद कीजिए कि कुछ साल पहले ही मुंशी प्रेमचन्द जी की एक कहानी में मात्र एक शब्द ‘.......‘ आया था, जिसकी वजह से एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक से वह पाठ हटा दिया गया था। एक और उदाहरण देता हूं। बहुत पुरानी बात नहीं है एक कार्टून बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी पर था और वह पाठ्यपुस्तक में था, उसे भी रेखांकित होने पर हटाना पड़ा। आप कह सकते हैं कि यह राजनीतिक मसले रहे होंगे। जी नहीं, ये राजनीतिक नहीं, सामाजिक मसले और संवैधानिक मसले हैं। जिन वजहों से संज्ञान लिया जाता है उस पर गहन अध्ययन के बाद आपत्तिजनक पाठ सामग्री को हटाना पड़ता है। 

याद दिलाता चलूं कि स्कूल को एक सार्वजनिक और सामाजिक संस्था माना जाता है। मैं अपने घर में निजता के अधिकार का प्रयोग कर सकता हूं। लेकिन स्कूल किसी भी दशा में समस्त बच्चों को सामाजिक, लैंगिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। स्कूल में एक-एक बच्चे की गरिमा सुनिश्चित की जाती है। बंधुता और समानता से कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता। कोई पाठ भी नहीं। बड़ी से बड़ी महान रचना भी नहीं। बड़े से बड़ा महान लेखक हो तो हो। यदि उनकी रचना का एक शब्द भी संवैधानिक मूल्यों से इतर ध्वनि दे रहा है तो उम्दा रचना को बाहर का रास्ता देखना ही पड़ता है।  
 
जानकार जानते हैं कि रटना सीखना नहीं होता। कल्पना और अनुमान हमारी अभिव्यक्ति को उड़ान देते हैं। लेकिन आज बेसिर-पैर की कल्पना बेतुकी मानी जाती है। केवल लय, तुक और ताल को वाहवाही का आधार मानना ठीक नहीं है। भाषा का कोई भी पाठ भाषाई कौशल के विकास के लिए तैयार होता हैं, नैतिक शिक्षा देने के लिए नहीं तैयार होता। प्रवचन देने के लिए भी नहीं होता। भाषा के पाठ किसी संगीत की किताब के अध्याय नहीं हो सकते। कम से कम बुनियादी कक्षाओं में तो कतई नहीं। 
आप कह सकते हैं कि इसमें आपत्ति क्या है? तो यह कहना है कि कक्षाओं में लाल ही नहीं पढ़ते लालियां भी पढ़ती हैं। यह बालिका भाव को नहीं बाल भाव को पोषित करती है। राजा बेटा सरीखा भाव पहली ही पंक्ति देती है। साहित्य कितना भी प्रभावपूर्ण है लेकिन वह पाठ्य पुस्तक का भी हिस्सा बने, जरूरी नहीं। 

हमारी पाठ्य पुस्तक सबके लिए है। हमारे देश में पड़ोसी मुल्क के बच्चे भी यदि पढ़ रहे हैं तो उनकी भावनाओं को आहत करने का भी हमें अधिकार नहीं है। संवेदना सबसे बड़ी बात है। संवेदनाएं और भावनाओं के ऊपर सरलता का लेप नहीं चढ़ाया जा सकता। ये सरलता, गेयता, तुक, ताल आज स्वीकार्य नहीं है। सीख और संदेश तो कतई नहीं। 

भाषा की पुस्तक का मक़सद इतिहास पढ़ाना नहीं है। भाषा की पुस्तक नैतिक शिक्षा देने के लिए नहीं है। आप लाख चिल्लाते रहिए कि नैतिक शिक्षा जरूरी है। क्या खाक जरूरी है? आप और हम आम जीवन में कितने नैतिक हैं? लाल और सफेद कपड़े में हर घर में अपने-अपने धर्म ग्रन्थों को पीढ़ियों से रखते आ रहे हैं। हम कितने मानवीय बने हैं? हमारे भीतर कितनी नैतिकता भरी पड़ी है? यह सब जग-जाहिर है। यह हर वर्ग, धर्म, जाति, संप्रदाय और वय वर्ग को समान प्रतिनिधित्व देने वाला मसला है। 

यह कविता बालक-बालिका दोनों को समान प्रतिनिधित्व नहीं देती। इसे पुष्ट करने के लिए मैं आपका ध्यान दो प्रतीक चिह्नों की ओर दिलाना चाहता हूं। आपने जरूर वह दो प्रतीक चिह्न देखें होंगे। नहीं देखें? जरूर देखिएगा। सर्वशिक्षा अभियान का यह प्रतीक चिह्न है। सब पढ़ें, सब बढ़ें। पेंसिल पर बैठे दो बच्चे। एक बालक और एक बालिका। देखकर या यादकर बताइएगा कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं।
 
दूसरा प्रतीक चिह्न मध्याह्न भोजन का है। उसे देखकर भी बताइएगा कि वह कैसी ध्वनि दे रहा है। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की ध्वनि खासकर तब, जब भाषा के पाठ हों, किसी भी दशा में अबंधुता बढ़ाने वाले नहीं होने चाहिए। चित्र से भी नहीं और संकेत मात्र से भी नहीं। शीर्षक से भी नहीं और कथ्य से भी नहीं। भाव से तो कदापि नहीं। हमें भाषा के व्यापक मक़सदों को भी फिर से स्मरण करना होगा। हम भाषा के पाठों को सही-गलत ठहराते समय इतिहास, संस्कृति, परम्परा और धर्म पर बात करने लग जाते हैं। पाठ्यपुस्तक का कोई भी पाठ किसी धर्म विशेष का संवाहक नहीं हो सकता। कोई भी पाठ किसी धर्म पुस्तक का झरोखा नहीं हो सकता।  किसी वय वर्ग को और लिंग को विशेष प्यार-दुलार और लाड़ ध्वनित करता पाठ होना ही नहीं चाहिए। 

इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि हम चालीस साल पहले कक्षा पहली में थे। तब हम इस कविता को देखते थे। इसके चित्र को निहारा करते थे। महीनों हमें ये कविता रटाई जाती थी। तब हमारे स्कूल के आस-पास इस किताब के अलावा कोई और किताब नहीं हुआ करती थी। एक अकेली किताब। इसके अलावा दूसरी किताब तो क्या, एक चित्रात्मक पेज भी दूसरा नहीं हुआ करता था। हम चित्रात्मकता के लिए दीवार पोस्टर, चुनावी पोस्टर, माचिस की डिबिया और ज़्यादा शहरी हुए तो सिनेमा के पोस्टरों को निहारा करते थे? याद आया? घर में आता पारले जी का बिस्कुट और निरमा डिटर्जेन्ट का चित्र। रथ वनस्पिति का चित्र या जैट माचिस। याद आया? 

और आज? आज तो तमाम एप्स हैं। कस्बों-देहातों में अख़बार हैं। व्हाट्स एप है। गूगल है। अब? इस कविता से रटने के स्तर पर छोड़कर, नैतिकता की दुहाई देकर, लय, छंद तुक, ताल को छोड़कर क्या हासिल होने वाला है? इसका चित्र? गौर से देखिए!  

आज के सन्दर्भ में यह कहना कि यह कविता सुबह उठने की वकालत करती है। यह और भी हास्यास्पद ही है। हम सब जानते हैं कि आज के सन्दर्भ में दिन-रात का अंतर ही पाट दिया गया है। कुछ शहर तो कभी सोते ही नहीं। ‘पूरी नींद लेने के बाद ही उठना चाहिए।‘ यह कविता जल्दी सोने की बात करती तो बात समझ में आती। आज तो मेधावी छात्र क्या और शिफ्ट में काम पर जाने वाले कार्मिक क्या? देर रात तक जगते हैं और जल्दी नहीं उठते। पूरी नींद लेते हैं। जिस कक्षा के स्तर पर यह कविता पढ़ाई जाती रही है वहां सुबह उठना चाहिए, ध्वनित होता रहा है। ये ‘चाहिए‘ शब्द मात्र ‘सीख-सन्देश‘ और ‘उपदेश‘ से भरा मात्र है। ‘चाहिए‘, ‘ये मत करो‘, ‘वो मत करो‘ की ध्वनि उपदेशात्मक है। उपदेश किसी को नहीं भाते। आज के बच्चों को तो कतई नहीं। 

मुझे तो उन पैरोकारों पर हंसी आती है जो ऐसी कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में आज शामिल करने की वकालत कर रहे हैं। अपनी खोखली, अतार्किक जड़ताओं का ही प्रतिफल है कि वे जानते ही नहीं कि भाषा के व्यापक और असली मक़सद हैं क्या। हास्यास्पद बात तो यह है कि मैं भली ही शिक्षा जगत के नामचीन संस्थानों में काबिज हो गया हूं। ऐसे संस्थानों में रहा हूं जो अध्यापकों का अभिमुखीकरण करते हैं। पहले तो मेरा अभिमुखीकरण होना जरूरी है। मैं पाठ्य पुस्तक लेखन, संपादन से जुड़ा हूं। खुद को बाल साहित्यकार मानता हूं। पुरस्कार-सम्मान का पिपासु हूं। खुद को श्रेष्ठतर अध्यापक मानता हूं। संबंधों के जरिए वहां तक तो पहुंच गया लेकिन खुद की जड़ताओं को दूर नहीं कर पाया। मैं चेतना के स्तर पर इतना विचार शून्य हूं कि इशारों में दूसरे अहसास कराते तो हैं लेकिन मैं समझना ही कहां चाहता हूं? 

बहरहाल मुझे देखिए कि एक कविता है छह साल की छोकरी, भर कर लाई टोकरी। ये कोई कविता है? बच्चे क्या सीखेंगे? हमारे यहां तो छोकरी वो होती है जिसके मां-बाप नहीं होते। जब मुझे बताया जाता है कि अब यह कविता तो आगामी अप्रैल से कक्षा एक में पूरे उत्तराखण्ड के बच्चे पढ़ने वाले हैं। मैं हैरान हो जाता हूं। तब छोकरी शब्द पर बात हुई। शब्दों के विस्तार पर बात होती है। आंचलिकता और शब्दों की सार्थकता पर बात हुई तो मैं बगले झांकने लगता हूं। 

दृष्टि भी गहरी हो और दृष्टिकोण भी। यह कैसे होगा? जब हम नये से नया पढ़ेंगे। पुराना भी पढ़ेंगे। देशकाल और परिस्थितियों का विश्लेषण करेंगे। बच्चों का मनोविज्ञान जानेंगे। ‘आदेशात्मक‘ और ‘नसीहतों’ से इतर सहयोगात्मक रचना सामग्री पर गौर करेंगे। 

इस कविता में बच्चों की ध्वनि है ही नहीं। पूरी बात मां के मुख से कही जा रही है वह भी सीख और नसीहत भरी। आज पूरी दुनिया में इस तरह के साहित्य को नकारा जा रहा है जो बड़ों की ओर से बच्चों को सीख के तौर पर दिया जा रहा है। ठूंसा जा रहा है। बच्चों को किसी भी युग में सुबह उठना अच्छा नहीं लगता। कभी नहीं। हमें भी नहीं लगता। पूरी कविता बड़ों की नज़र से दुनिया दिखाने वाली है। बड़ों की राय कि व्यर्थ में न समय गंवाओं। दूसरी तरफ आप कहते फिरते हैं कि पूरी जिन्दगी में हसीन क्षण तो बचपन के थे। तो बचपन को जीने दो न? 

वे अच्छी तरह से जानते होंगे जो पाठ्य पुस्तक लेखन-निर्माण प्रक्रिया से जुड़े हैं। बुनियादी कक्षाओं में कविता लय, ताल, छंद में ही हो ये आज जरूरी नहीं है। इससे ज़्यादा ज़रूरी है कि वहां उनकी अस्मिताओं की रक्षा हो रही हो। वहां उनकी दुनिया की सकारात्मक चीज़ें शामिल हो रही हों। चित्र और कथ्य कल्पना को और विस्तार देते हों। वह भी बगैर किसी पंथ, लिंग और धर्म को तरजीह देकर या किसी को हतोत्साहित कर या किसी को दरकिनार कर। 

पाठवार ग्रिड निर्माण के अनुभव भी बताते हैं कि बुनियादी कक्षा में कविताओं का चयन करते समय बहुत जरूरी बातें जो ध्यान में रखनी होती है उसमें चित्र, शब्द और चित्र के सह-संबंध खास हैं। शब्द पहचाने और पढ़ने की शुरुआत के अवसर देने वाली कविता हों। बचकानी और बेतुकी नहीं। कुछ खास स्थापित करने वाली नहीं। ‘तुम बुरे हो।‘ ‘तुम्हारी ये आदतें अच्छी नहीं हैं।‘ ‘तुम्हें ये नहीं करना चाहिए।‘ ‘सच बोलना चाहिए।‘ ‘जीवों पर दया करो।‘ इनसे कभी काम नहीं चला और न चलेगा। इससे पहले संवेदना के स्तर पर और आनंद के जरिए उनकी अहमियत वाले पाठ चाहिए। अभिव्यक्ति और चिंतन को सक्षम बनाने वाले भाव चाहिए। यह सकारात्मक पाठों से आएंगे। ये सही है और ये गलत है, इस शैली को थोपने वाली रचनाएं नहीं चलेंगी। 

‘सुबह उठना चाहिए।‘ वाली नसीहतों को मान्यता देने वाले और उस पर अडिग रहने वाले आज भी बच्चों को हरा आसमान नहीं बनाने देते हैं। बच्चों को पत्तियों में हरा रंग ही भरने को बाध्य करते हैं। बच्चे जब कला की ओर उन्मुख हो रहे होते हैं तो यह कहने से नहीं चूकते अभिभावक कि यह काम खाली समय में करा करो। छुट्टी के दिन किया करो। अभी और विषय पढ़ो। 

यह चुके हुए अभिभावक हैं। चुके हुए साहित्यकार हैं और अध्यापक के तौर पर हो गए अध्यापक हैं बन गए अध्यापक नहीं हैं। ये सब यह नहीं जानते कि बच्चे की कल्पना का संसार अनूठा है। सृजनात्मकता एक ऐसी उड़ान है जिसकी डोर जितनी ढीली छोड़ेंगे उतनी ही वह और ऊपर जाएगी। 

हमारा आग्रह आज भी कविता के शरीर पर ही जाता है। कविता की कला यानि उसकी बनावट जिसमें छंद, अलंकार, गेयता, तुक आदि है। कविता की आत्मा पर कम ही ध्यान जाता है। आत्मा क्या है? आत्मा उसका भाव है। वह कैसा विचार दे रही है। क्या स्थापित करती है। रस और संवेग क्या महसूस कराती है। इस पर वे चर्चा करते हैं जो आधुनिक भाव-बोध में लिखी जा रही कविताओं से ही अनभिज्ञ हैं।   

आइए थोड़ा ओर पढ़ लीजिएगा-

अयोध्या सिंह उपाध्याय का स्वर्णिम लेखन 1910 से 1930 के मध्य माना जाता है। संभवतः यह रचना इसी मध्य लिखी गई होगी। इस कविता की उम्र लगभग 90 साल की हो गई होगी। उस दौर का बालपन और आज का बालपन एक-सा नहीं रह गया है।

उस दौर में साक्षरता दर 10 प्रतिशत भी नहीं थी। आज हमारी साक्षरता दर 75 फीसदी है। 

उस दौर में हम अंग्रेजों के गुलाम थे। तब बाल परवरिश के उद्देश्य कुछ और थे। आज हम स्वाधीन भारत का हिस्सा हैं। सूचना तकनीक का युग है। आज शिक्षा के उद्देश्यों में व्यापक फेलाव हुआ है। 

आबादी के लिहाज़ से भी परिवार संयुक्त परिवार थे। बढ़ती आबादी पर ठोस निगाह नहीं थी। 

तब वंशवाद प्रचलित था। महिलाओं और बालिकाओं की स्थिति भिन्न थी। पुत्र मोह और बालक ही परिवार और समाज की रीढ़ था। आज ऐसा नहीं है। 

आज बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ पर इसलिए भी जोर है कि पिछले सौ सालों में हमने पुत्र मोह को इतना बढ़ा दिया, इतना बढ़ा दिया कि बालिकाओं की अस्मिता और अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। इस लिहाज से भी यह कविता और कविता का चित्र बालिकाओं के अस्तित्व को एक सिरे से खारिज करता है। जो आज के दौर में कदापि भी स्वीकार्य नहीं है। 

पानी लाई हूँ मुँह धो लो का भाव सीधा यह जा रहा है कि हे बच्चे तुम इतने प्यारे हो कि मुंह धोने के लिए मां पानी बिस्तर पर लाती है। स्वावलम्बी तो नहीं परावलम्बी बनाने का भाव स्थापित हो रहा है। 

बच्चों पर बड़ों की चिंताएं थोपी जा रही हैं। बच्चों की अपनी ध्वनि नहीं है। बच्चे सुबह को लेकर क्या सोचते हैं? यह कहीं नहीं है। शिक्षाविद् वायगोत्स्की लिखते हैं-‘भाषा उस शीशे की खिड़की की तरह है जिससे हम बाहर की दुनिया को देखते हैं। जब हम बाहर की दुनिया को देख रहे होते हैं तो हमारा ध्यान शीशे पर नहीं होता है। जब हमारा ध्यान शीशे पर जाता है तब हम समझ पाते हैं कि बाहर का संसार जैसा हमें दिख रहा होता है, उसमें उस शीशे का भी कुछ योगदान है।‘ आप कह सकते हैं कि फिर कैसी कविताएं हों। तो कुछ बानगी देना अपना दायित्व समझता हूं। 

राम सिंहासन सहाय मधुर की एक कविता है झूला। आप इसे जरूर पढ़िएगा। देखिएगा कि बच्चों की दुनिया, उन्हीं के मुख से कैसी ध्वनि देती है।

अम्मा आज लगा दे झूला,
इस झूले पर मैं झूलूँगा।
इस पर चढ़कर,ऊपर बढ़कर,
आसमान को मैं छू लूँगा।

झूला झूल रही है डाली, 
झूल रहा है पत्ता-पत्ता।
इस झूले पर बड़ा मज़ा है,
चल दिल्ली ले चल कलकत्ता

झूल रही नीचे की धरती,
उड़ चल, उड़ चल
बरस रहा है रिमझिम, रिमझिम
उड़कर मैं लूटूँ दल-बादल।

आप कह सकते हैं इसमें भी तो बालक मात्र की ध्वनि आ रही है। लेकिन इसके चित्र देखें तो इस बालक को एक बालिका झूला रही है। वहीं दूसरी डाल पर एक बालिका भी झूल रही है। इस पूरी कविता में एक बालक है और दो बालिकाएं हैं। मज़ेदार बात यह है कि जिस बालक की बारी झूलने की है वह वय वर्ग में थोड़ा बड़ा लग रहा है और उसे झूलाने वाली छोटी बालिका। तीनों बच्चे खिलखिलाकर हँस रहे हैं। पूरा आनन्द, पूरा मज़ा। कोई सीख नहीं, कोई संदेश नहीं। कोई चाहिए-वाहिए नहीं। 

एक कविता का और ज़िक्र करना चाहूंगा। यह कविता सुरेन्द्र विक्रम जी की है। आप भी पढ़िएगा और आनंद लीजिएगा। इन दो कविताओं की विस्तारित ध्वनि पर विस्तार से फिर कभी लिखूंगा। फिलहाल कविता का आनंद लीजिएगा।

मन करता है सूरज बनकर
आसमान में दौड़ लगाऊँ।

मन करता है चंदा बनकर
सब तारों पर अकड़ दिखाऊँ।

मन करता है बाबा बनकर
घर में सब पर धौंस जमाऊँ।

मन करता है पापा बनकर
मैं भी अपनी मूँछ बढ़ाऊँ।

मन करता है तितली बनकर
दूर-दूर उड़ता जाऊँ।

मन करता है कोयल बनकर
मीठे-मीठे बोल सुनाऊँ।

मन करता है चिड़िया बनकर
चीं-चीं चूँ-चूँ शोर मचाऊँ।

मन करता है चर्खी लेकर
पीली-पीली पतंग उड़ाऊँ। 

अगले किसी आलेख में एक कविता कैसे हमारे खास कौशलों का विकास करती है, उस पर चर्चा करना चाहूंगा। सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने के साथ-साथ विचारों को सुनना और उन्हें सुनकर समझना की ताकत भी कविता में होती है। पाठक पढ़कर भाषाई विस्तार में खुद को समृद्ध करने का काम भी अनायास कविता के माध्यम से कर पाते हैं। भाषा शिक्षण के उद्देश्यों पर विस्तार से फिर किसी आलेख में चर्चा की जाएगी। 
उम्मीद है कि तमाम असहमतियों के बावजूद आप इस ओर विचार करेंगे। यकीनन आपकी टिप्पणियों ने मुझे और गहराई में जाने का अवसर दिया। बस मैं आपसे एक निवेदन करना चाहूंगा कि अपने आग्रह बना के रखिए। लेकिन अपने-अपने प्रदेशों में सार्वजनिक विद्यालयों की भाषा की पाठ्य पुस्तकें ज़रूर देखिएगा। विशेषकर कक्षा एक,दो,तीन,चार और पांच की अवश्य देखिएगा। कुकरमुत्तों की तरह उग आए निजी स्कूलों की बात मैं नहीं कर रहा। इसके साथ एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकें भी ज़रूर देखिएगा। एक बात ओर आपने जब से मोबाइल की दुनिया में कदम रखा है, तब से कितने मोबाइल और सिम बदल दिए हैं? 
कम से कम मैं नई पीढ़ी को ऐसी कविताएं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करूंगा जो उन्हें आज्ञाकारी होने से इतर स्वतंत्र समझ के अनुभव करने के बाद निर्णय लेने का नज़रिया दे सके। उन्हें दब्बू न बनाए। उन्हें सहमत होने से अधिक असहमत होने की ओर ले जाए। शांत प्रवृत्ति से इतर उन्हें बेचैन होने का आदत डाल पाए। सहज, सरल और शांत कविता से अधिक मैं ऐसी कविताएं पढ़ना और पढ़ाना पसंद करूंगा जो उनमें आलोचनात्मक क्षमता पैदा कर सके। अंत में ये धरती, ये आसमान, ये बादल ये हवा कहां शांत हुई जाती है जो हमारे नौनिहाल शांत बनें।

फिलहाल इतना ही।

॰॰॰ 

-मनोहर चमोली ‘मनु’

सम्पर्क: 9412158688

13 फ़र॰ 2018

कैसी कविता ? किसकी कविता ? क्यों कविता? poem

कैसी कविता ? किसकी कविता ? क्यों कविता?
-मनोहर चमोली ‘मनु’

मम्मी मेरा ब्याह करा दे
छोटी सी दुलहनियां ला दे
अंगुली पर मैं उसे नचाऊँ
बात न माने मार लगाऊँ
घोड़ी पर मुझको बिठला दे
मम्मी मेरा ब्याह करा दे
माँ तुझको आराम कराऊँ
हाथ पैर तेरे दबवाऊँ
सेवा में यदि कमी करे तो
झटपट पीहर को पहुँचाऊँ
राजकुँवर सा मुझे सजा दे
मम्मी मेरा ब्याह करा दे
मैं उसको आदेश सुनाऊँ
सब घर का झाड़ू लगवाऊँ
अगर बात माने न मेरी
तब डंडे से मार लगाऊँ
झट रिश्ते की बात चला दे
मम्मी मेरा ब्याह करा दे
छोटी सी दुल्हनियाँ ला दे।


इक्कीसवीं सदी के इस दौर में क्या ऐसी रचना बालोपयोगी है ?
जिसमें बच्चों की आवाज़ें न हों। वे कविताएँ कही-लिखी जानी चाहिए?
यदि बाल सुलभ, बाल मन दर्शाना ही है तो उसमें कल्पना की ऐसी अतिरंजना न हों, जो उसकी सोच को घटिया दर्शाती हो।
बच्चों को और उनकी बातों को बचकाना समझना किसी भी दशा में उचित नहीं है। ये कविता इस लिहाज़ से बच्चों की दुनिया का प्रतिनिधित्व नहीं करती।
एक बात तो यह है कि ब्याह करा देने में बच्चों की ध्वनियां शामिल हैं। लेकिन ब्याह कर लाने वाली दुल्हनियां के बारे में बच्चे के जो विचार गढ़े गए हैं, वे कल्पनाएं नहीं 'कुकल्पनाएं' हैं। यदि बकौल कवि कोई बच्चा ऐसा कह सकता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह जिस घर में पल-बढ़ रहा है वहां बहुत कुछ गड़बड़ है। यह गड़बड़ फैलाकर कविता करना क्या चाहती है? यह बच्चा अपनी मां को किसी गुलाम की तरह देख कर बड़ा हो रहा है क्या?
कहीं ऐसा तो नहीं परिवार में पुरुषवाद हावी है। उस घर में महिलाएं चाहें वह माँ हो या चाची या दादी सब शोषित हैं और इस बच्चे के पिता, चाचा और दादा किसी हिटलर से कम नहीं।
कोई बच्चा इतना घटिया और बुरा कैसे हो सकता है? वह सोलहवीं सदी की सोच वाला कैसे हो सकता है कि वह अपनी होने वाली सहधर्मिणी - पत्नी को, अर्धागिनी को अँगुली पर नचाने की बात करेगा? इससे हास्यास्पद बात क्या होगी कि बात न मानने पर मारने की बात कर रहा है। मानो पत्नी नहीं गुलाम है। पशु है। क्या वाकई ये बच्चों की ध्वनि है?
हद है। आज तो पशुओं के अधिकारों की बात हो रही है। मानवाधिकार की बात हो रही है। विडम्बना देखिए कि एक परिवार अपने घर में बहू को सदस्य के तौर पर नहीं देख रहा है। सास को आराम करने और बहू से नौकरानी सरीखे के बर्ताव को एक बच्चा तक महसूस कर रहा है! सेवा करना मात्र बहू का दायित्व नहीं है। नौकरानी जैसा? नौकर भी इंसान हैं जी !
परिवार भी एक समाज है। समाज सामाजिक संबंधों का जाल है। वहां कुछ नियम होते हैं। लेकिन नियम किसी को सामंत बना दे और किसी को गुलाम ! वाह!
बात-बेबात पर पीहर पहुंचाने का स्वर घर से बाहर निकाल देने जैसा प्रतीत हो रहा है। राजे-रजवाड़े का युग गया, लेकिन ये कैसा परिवार है जो बच्चों को आज भी राजा बनने के ऐसे सपने दिखा रहा है जो हमारी संवैधानिक व्यवस्था के ही ठीक उलट है। ऐसे कौन से कारण आज तलक जिन्दा क्यों हैं कि मां भी अपने बच्चे को राजा बेटा कहना नहीं भूलती?
पूरी की पूरी कविता सामंती सोच के दायरे में दम तोड़ रही है। पूरी कविता की ध्वनि ऐसी दुलहनियां की मांग ही नहीं कर रही है बल्कि उसे स्थापित सा महसूस कराती है। महसूस ही नहीं करा रही है बल्कि साफ संकेत दे रही है कि पहले भी ऐसा चला आ रहा है और नई पीढ़ी में भी ये बदस्तूर चलता रहेगा। ये किस तरह के आदेश की बात कर रही है? आदेश में आज भी राज-रजवाड़े और विदेशी हुकूमत की बू आती है। क्या हम आजाद भारत के सत्तर साल के बाद की कविताई कर रहे हैं? ताड़न के अधिकारी की सोच से कब हमारा साहित्य बाहर आएगा?
मैं कविताओं पर बात नहीं करता। कारण? मेरे अभिन्न मित्र खूब कविताई करते हैं। अक्सर मैं उन्हें बतौर पाठक यह बताने की कोशिश करता हूं कि कविता कैसे समझी जा रही है। कविता की दिशा क्या है।
कई मान जाते हैं और कई मुझे ही सीखाने लगते हैं कि भाव को ऐसे समझो। वैसे समझो। लेकिन मैं क्या, कोई भी पाठक इतनी तमीज़ तो जानता ही है कि एक कविता का असल धर्म क्या है।
यही कारण है कि मैं भटकी हुई कविताओं पर बात ही नहीं करता। पर इस कविता ने मुझे बात लिखने के लिए विवश कर दिया।
आप बताइएगा कि क्या वाकई मुझमें बतौर पाठक कविता पर बात करने की तमीज़ नहीं है? पहले तमीज़ सीखकर आऊँ या जैसा समझ में आता है उसे बगैर लाग - लपेट के कहता रहू? बताइएगा जरूर। क्यों बेकार में कवियों-कवयित्रियों को नाराज़ करता फिरूँ?

खैर...बेटा अनुभव दूसरी कक्षा में पढ़ता है। वह कल ही कह रहा था कि पापा मेरी शादी कब होगी। मुझसे ही नहीं उसने यह बात स्कूल में अपनी अध्यापिका से भी कही। अनुभव ने मुझे बताया कि मैडम ने कहा कि शादी कुछ पढ़ लेने के बाद होती है। कुछ कर लेने के बाद होती है। जब तुम हमारी तरह बड़े हो जाओगे तब तुम भी शादी कर लेना।
मैं सबसे पहले क्षमा-याचना के साथ अपनी क्षमताओं को बता देना अपना दायित्व समझता हूँ।
मैं अमूमन कविताएं नहीं लिखता। पहली बार मैं किसी कविता पर बात कर रहा हूँ। वह भी इसलिए कि इसे बाल कविता कहा गया है। बच्चों के क्षेत्र में काम करता हूँ। बच्चों को समझना चाहता हूँ तो इस कविता पर मेरी बहुत सारी आपत्तियां हैं।
मैं इस कविता के कवि/कवयित्री से खेद के साथ यह भी कहना चाहता हूँ कि मुझे इस कविता की ध्वनियों से आपत्ति है उनसे नहीं। 
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
whatsapp-7579111144

1 जन॰ 2018

नंदन, 2018 का जनवरी child story,nandan

ऊंची नहीं फेंकता ऊँट


-मनोहर चमोली ‘मनु’


एक ऊँट था। उसकी पीठ कुछ ज्यादा ही ऊंची थी। यही कारण था कि वह ऊंची-ऊंची फेंकता।
एक दिन वह टहलने निकला। नदी किनारे चूहा, गिलहरी, बंदर और खरगोश किसी बात पर हंस रहे थे। ऊँट भी जोर-जोर से हंसने लगा।
खरगोश ने पूछा-‘‘ऊँट भाई। तुम क्यों हंसे?’’

ऊँट बोला-‘‘तुम्हें देखकर हंस रहा हूं। मेरे सामने तुम सब कुछ नहीं।’’ 
चूहे ने पूछा-‘‘मतलब क्या है तुम्हारा?’’

ऊँट गरदन झटकते हुए बोला-‘‘मतलब ये कि मेरा एक दिन का राशन-पानी तुम सबके लिए महीने भर का होता है। जहां तक तुम देख सकते हो, वहां तक तो मेरी गर्दन ही चली जाती है। मैं रेगिस्तान का जहाज हूं। मैं वहां आसानी से दौड़ सकता हूँ। बिना रुके और बिना थके। तुम वहां चार कदम चलोगे तो हांफने लगोगे। समझे!’’
यह सुनकर गिलहरी हंसने लगी। चूहा, खरगोश और बंदर भी हंस पड़े। ऊँट पैर पटकते हुए बोला-‘‘तुम क्यों हंसे?’’
गिलहरी हंसते हुए ही बोली-‘‘ऊँट भाई। माना कि तुम बहुत बड़े हो। लेकिन कोई बड़ा एक छोटा सा काम भी कर सके, यह जरूरी नहीं।’’
ऊँट कुछ समझ न पाया। बोला-‘‘मैं बच्चों के मुंह नहीं लगता।’’
बंदर भी हंसते हुए बोला-‘‘ऊँट भाई। नाराज़ क्यों होते हो?’’
ऊँट ने बंदर से कहा-‘‘ये सब पिद्दी भर के हैं। इनसे मैं क्या बात करूं ! तुम सामने आओ। तुम ही बोलो। ऐसा कौन सा काम है जो तुम कर सकते हो और मैं नहीं? हां, पेड़ पर चढ़ने के लिए मत कहना। बोलो।’’
गिलहरी उछलकर बंदर के कान के पास जा पहुंची। दूसरे ही पल बंदर दौड़कर कहीं चला गया। वह पीठ पर एक तरबूज ला रहा था। उसने तरबूज ऊँट के सामने रख दिया।
बंदर ऊँट से बोला-‘‘ये लो। तुम्हें मेरी तरह इस तरबूज को अपनी पीठ पर ढोकर लाना है। उठाओ। बीस कदम ही सही, जरा चलकर तो दिखाओ। मगर ध्यान रहे ! तरबूज लुढ़कना नहीं चाहिए।’’
ऊँट बेचारा सकपका गया। भला वह पहाड़ जैसी तिकोनी पीठ पर गोल मटोल तरबूज कैसे रख पाता! तरबूज को पीठ पर रखकर चलना तो और भी मुश्किल काम था। ऊँट खिसियाता हुआ वहां से खिसक लिया।
तभी से ऊँट अब ऊँची-ऊँची नहीं फेंकता। 
०००

नंदन, साल 2018 का जनवरी अंक प्रकाशित हो गया है। अंक में प्रख्यात कवि शादाब आलम और रावेंद्रकुमार ‘रवि’ की कविताएं हैं। इस अंक में कथाकार रामशंकर अग्निहोत्री, अभिषेक मेहरोत्रा, योगेश्वर शर्मा, प्रो० योगेश चंद्र शर्मा, पूनम मेहता, रोचिका शर्मा, डॉ० अमिता भटनागर जैन, रेनू सैनी, विज्ञान भूषण, राजशेखर, आशा शर्मा, वेद मित्र, उदभ्रांत, रश्मिशील के साथ अपन की भी कहानी प्रकाशित हुई है। नए साल पर थीम स्टोरी सुनीता तिवारी ‘निगम’ और विमल चतुर्वेदी की हैं। नियमित स्तंभ तो हमेशा की तरह हैं ही। सुविधा के लिए अपनी कहानी यहाँ दे रहा हूँ। 
-मनोहर चमोली ‘मनु’, गुरु भवन, निकट डिप्टी धारा, पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी 246001 मोबाइल-09412158688.

second doon literature festival 2017 दून लिटरेचर फेस्टिवल

इस साल के खाते में यादगार रहा दून लिटरेचर फेस्टिवल 2017 

-मनोहर चमोली

देहरादून में तीन दिवसीय दूसरा ‘दून लिटरेचर फेस्टिवल’ साल 2017 के हिस्से में हिन्दी साहित्य की दृष्टि से अनमोल धरोहर के तौर पर कई विमर्श यादगार के तौर पर दे गया। तीसरे दिन की सुबह तलक पंजीकरण पंजिका में 440 साहित्यकार,पाठक और संस्कृतिकर्मियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कर ली थी। समय साक्ष्य व अर्श का यह आयोजन सामूहिकता के बैनर तले ध्यान मसीही केन्द्र,पुराना राजपुर,देहरादून में 24 दिसम्बर को सम्पन्न हुआ। मजेदार बात यह रही कि इन तीन दिनों में साहित्यिक विमर्श के साथ-साथ पुस्तक मेला भी तीनों दिन जमा रहा। हस्तशिल्प बाजार, लेखन कार्यशाला के साथ ऐपण कार्यशाला भी चलती रहीं। वहीं परिसर में फोटो प्रदर्शनी के साथ पेंटिंग प्रदर्शनी भी तीनों दिन अपनी उपस्थिति बनाए रही। दून लाइब्रेरी, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन और मीडिया जैसी संस्थाओं ने आयोजन को प्रायोजित किया। 
पहला दिन :
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पहले दिन बच्चों के माध्यम से हवा में गुब्बारे उड़ाकर आयोजन की शुरूआत की गई। स्वागत सत्र भी बेहद शानदार रहा। सत्र का करीने से संचालन मोना बाली जी ने किया। स्वागत सत्र का औपचारिक संबोधन बी०के०जोशी, वीरेन्द्र रावत, एस०फारूख और लीलाधर जगूड़ी ने किया। शिक्षा और विज्ञान के जानकार बी०के०जोशी जी ने अपनी बात की शुरूआत हिन्दी साहित्य लेखन से की। उन्होंने कहा कि साल भर में कई ऐसे आयोजन होते हैं जिनमें अंग्रेजी साहित्य और अंग्रेजियत पर बात होती है। यह साहित्य समागम विशुद्ध रूप से हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित है। यह बड़ी बात है। उन्होंने देहरादून को साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों का गढ़ कहा। उन्होंने कहा कि साहित्य और कला पर भी कई आयोजन होते हैं बस संगीत पर अभी हमें और ध्यान देने की जरूरत होगी। उन्होंने जोड़ा कि किसी भी शहर की असलियत और पहचान उस शहर में शिक्षा, साहित्य,कला और सांस्कृतिक गतिविधियों से बनती है। उन्होंने उम्मीद जताई कि इन तीन दिनों में सार्थक चर्चाएं होंगी जो हिन्दी लेखन में मील का पत्थर साबित होंगी।
इसी सत्र को संबोधित करते हुए निजी शिक्षा में पुस्तकालयों के काम को देख रहे वीरेन्द्र रावत ने भी संबोधित किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र से हूं और एक पाठक हूं। विज्ञान शिक्षा के लिए भी कला है। कला सुकून देती है। हमारे मानवीय संवेगों से साहित्य का रिश्ता है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकारी स्कूल सरकार के लिए नागरिक तैयार करते हैं और निजी स्कूल देश के लिए नागरिक तैयार करते हैं। उनका यह वक्तव्य देर शाम तक चर्चा का विषय बना रहा। उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी स्कूल में सबसे कम उपयोग में लाने वाली जगह लाइब्रेरी है।

इसी सत्र को हिमालयन ड्रग्स के एस० फारूख ने संबोधित करते हुए पाठकों, श्रोताओं, अभिभावको, शिक्षकों, बच्चों को संबोधित करते हुए बहुआयामी दृष्टिकोण रखा। उन्होंने कहा कि भाषा कोई भी हो बस बातचीत में खुशबू हो। नफरत न हो। दूसरी भाषा का अनुवाद करना बड़ी बात है। वह भी वही सलीका वही ध्येय दूसरी भाषा में हू-ब-हू चला जाए तो इससे बड़ा काम क्या हो सकता है। उन्होंने कहा कि जानवरों की जीभ होती है ज़बान नहीं। हम मनुष्य को प्रकृति ने ज़बान बख्शी है। उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया में जानवर जीभ से व्यवहार करते हैं इसलिए उनकी ध्वनि एक सी है। लेकिन हम मनुष्यों को देखिए हमारी जबान में कितनी विविधता है। हम अपनी जबान से सुकून पहुंचा सकते हैं। सुकून ए दिन इस दुनिया में वरना कौन बेचता है। उन्होंने कहा कि इसी ज़बान के जरिए साहित्य हमें आनंद देता है। कोई भी साहित्य, किसी भी भाषा का किसी भी देश का हो वह बुराई नहीं देता। साहित्य ही है जो इंसान से इंसान को मुहब्बत करना सिखाता है। इस अवसर पर स्टीव ऑल्टर ने भी सभी का धन्यवाद दिया।
इसी सत्र को लीलाधर जगूड़ी ने भी संबोधित किया। उन्होंने कहा हमारा देश मेलों का देश है। आज मेलों का स्वरूप बदल गया है। पुस्तक मेले और ऐसे आयोजन भी मेलों के नए रूप हैं। उन्होंने मनुष्य और मनुष्यता पर विस्तार से अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि लेखक भी मनुष्य होते हैं। मनुष्य के तौर पर उनमें भी उत्कृष्टताएं और निकृष्टताएं पाई जाती हैं। कितनी विचित्र बात है कि धरती की पपड़ी जो बेहद कठोर होती है एक नन्हा-सा बीज धरती की परत को फाड़कर बाहर आने का साहस करता है। उन्होंने भारतीय प्राचीन साहित्यकारों का उल्लेख भी किया। भामाह, वराह से लेकर तुलसीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व पर दृष्टि डाली। उन्होंने कहा कि अक्षर ही हैं जिनका पतन नहीं होता, क्षरण नहीं होता। एक-एक वर्ण जुटते हैं। फिर शब्द बनते हैं। फिर वाक्य बनते हैं। शब्द और वाक्य सामर्थ्य देते हैं। ताकत देते हैं। साहित्य अभिव्यक्ति का सशक्त स्वरूप है।
पहले दिन का पहला सत्र भी बेहद उपयोगी रहा।
‘भारत : सांस्कृतिक विविधता के संदर्भ में’ के लिए दो घण्टे भी कम पड़ गए। संचालन पल्लव जी का रहा। ज्ञानेन्द्र पाण्डे जी ने कहा कि भारत में दो बड़े आन्दोलन से हम अपनी सांस्कृतिक विविधता को समझ सकते हैं। भक्ति का आन्दोलन और आजादी का आन्दोलन। वैसे क्षेत्रीय आंदोलन तो अनेक हुए हैं। लेकिन व्यापक फलक पर भारतीयों का समागम इन दो आन्दोलनों में खूब दिखाई देता है। उन्होंने कहा कि हर देश काल में राजा की प्रंशसा से इतर भी साहित्य रचा गया है। हमें इस विविधता को समझना होगा। हमारे यहां जितनी विभिन्नताएं हैं वही हमे वैविध्य से भरा देश बनाता है। यही विविधता हमारा सौन्दर्य है।
इसी सत्र को रंग एवं संस्कृतिकर्मी हम्माद फारुखी ने भी संबोधित किया। उन्होंने भारतीयता और सास्कृतिक विविधता में खाना पर अपनी बात फोकस की। उन्होंने कहा कि यह दौर क्रूरता और हिंसा का दौर है। लेकिन नासमझों को कहां पता कि हमारा जो कुछ हम समझते हैं, हमारा हैं कहा। मिर्च, आलू से लेकर चीनी भी हमारी कहां हैं! ये जो बेगानापन समझने का दौर है, इसे समझना होगा। उन्होंने खाना और जनानखाना से अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि ज़बान का ताल्लुक हमारी भाषा से है और हमारी भाषा में जो हमें अपनत्व दिखाई देता है उसमें बहुत कुछ साझा है। उन्होंने कहा कि भारता मेरी अस्मिता है। मेरा गौरव है। यह अहसास मुझसे कोई नहीं छीन सकता। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत दक्षिण एशिया का हिस्सा है। दक्षिण एशिया भी किसी ओर का हिस्सा है। समूची दुनिया भी किसी न किसी का हिस्सा है।
हम्माद फारूखी जी ने कहा कि समझ में नहीं आता ये हिन्दू थाली का कंसेप्ट कहां से आ गया? अगर हम अपने घरों की भोजन की थाली देंखे तो उसमें से अधिकतर चीज़ें आयातित हैं। कहीं भी किसी की भी थाली हो। फिर ये खाने में अपना-बेगाना कहां से आ गया। खाना किसी धर्म-जाति और सम्प्रदाय से जोड़कर क्यों देखा जाने लगा है। क्यों पड़ोसी की रसोई की तलाशी जा रही है। यह सब क्या है? हमें समझना होगा कि सोलहवीं सदी में और उससे पहले भी जाएं तो रानियों ने अपने मायके का जनानखाना, वहां के स्वाद और खाने की रेसिपी अपने ससुराल तक कैसे पहुंचाई। इसी तरह राजे-रजवाड़ों से भी हमारा भोजन यहां-वहां फैला। लेकिन मैं यह कहने लगूं कि मेरा स्वाद श्रेष्ठ है तो यह गलत है। हम अपने को समृद्ध करें और दूसरे के स्वाद का भी सम्मान करें। उन्होंने कहा कि खाना हमारी सांस्कृतिक विविधता को बढ़ाने का कारगर नुस्खा रहा है। इस में महिलाओं का खा़सकर जनानखाने का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।
इस सत्र को शेखर पाठक जी ने भी संबोधित किया। उन्होंने अपनी बात में भक्ति आंदोलन और खान-पान को जोड़ते हुए कहा कि भारत की सांस्कृतिक विविधता पर बात करना बड़ी बात है। शेखर पाठक जी ने एक किताब का उल्लेख किया कि आदिवासी नहीं नाचेंगे। ये कौन तय कर रहा है कि हमें क्या करना है और क्या नहीं। उन्होंने कहा कि हम सभी को विविधताओं का सम्मान करना सीखना होगा। उन्होंने कहा कि इस समय सच बोलने का जोखिम उठाने वालों का साथ देना भी बडी बात है। उन्होने कहा कि भारत की सांस्कृतिक विविधता पर सोचते हुए ही पता चलता है कि हम कितना कम जानते हैं। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड को ही हम कितना जान पाए हैं। हिमालय की सांस्कृतिक विविधता के बारे में हमें कितना पता है! हम अपने जिले या पड़ोसी जिले को ही कितना जानते हैं। हमें यह भी जानना चाहिए कि निर्णायक लोग कितना जानते हैं।
उन्होंने कहा कि ऊपर से कुछ नहीं आता। मिट्टी से हम उठते हैं। मिट्टी ही हमें उठाती है। मिट्टी से ही किसी संस्कृति का परिचय होता है। यह सही है कि भूगोल मनुष्य को प्रभावित करता है। हम यदि हिमालयी क्षेत्र की ही बात करें तो बेहद विविधताएं हैं। भिन्नताएं हैं। समाज में पशुचारकों, खेतीहरों, मनुष्यों की बोली, खान-पान में ही ज़िन्दगी एक जैसी नहीं है। हिमालय दुनया का सबसे विविधता से भरा क्षेत्र है। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति इतनी विशिष्ट है कि इसका अध्ययन करने पर आनंद की अनुभूति होती है। लेकिन जो संस्कृति के संवाहक बने फिरते हैं, वे कितना कम जानते हैं। हिमालयी पर्वतीय संस्कृति का क्षेत्र ही विहंगम है। हिमालयी ़़क्षेत्र में हिन्दू धर्म भी है तो बौद्ध धर्म भी है। जैन धर्म भी है और इस्लाम भी। सूफी भी है तो कट्टर इस्लाम भी है। इस पूरे ़़क्षेत्र में वे भी हैं जो किसी धर्म को नहीं मानते। तिब्बती भी है तो नेपाली भी हैं इसाई भी हैं। बुद्धिज़्म भी है तो देवियों की जबरदस्त परम्परा भी है। लोक देवियां भी हैं। इस पूरे क्षेत्र में शिव केवल हिन्दुओं मात्र के नहीं हैं।
उन्होंने कहा कि हिमालयी क्षेत्र ऐसा है कि यहां ब्रहमा,विष्णु और महेश के बिना संस्कृति चल सकती है लेकिन लोक देवता के बिना नहीं। पूरे हिमालय ़क्षेत्र में समृद्ध वीर गाथाएं हैं। लोक नायकों की समृद्ध परम्परा हैं। कोल वंश हैं तो वैष्णव भी हैं तो यहां नागाज़ भी हैं। हिमालय में आज भी 600 भाषाएं बोली जाती हैं। यह कहना भी जरूरी होगा कि भाषा मात्र शब्द नहीं हैं। चित्र और पुरातत्व भी भाषा है। हिमालयी संस्कृति के पैरोकार भी आम आदमी थे। पण्डित नैन सिंह रावत की 150 साल पहले की डायरी हमें चौंकाती है कि हमारी यात्रांए कितनी अधूरी हैं। अमरनाथ की यात्रा खोजने वाला इस्लामी था।
कैलाश मानसरोवर की यात्रा कराने वाले कौन हैं? हेमकुण्ड साहिब, रीठा, नानकमत्ता की यात्राएं हमारी सांस्कृतिक विविधता की मिसाले हैं। हमारी साझा विरासत ही हमारा गौरव है। हम साहित्य में तो 2000 साल से ही आए हैं। हमारी श्रुत परंपरा 5000 साल पुरानी है। आज यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हमारे हिमालयी लोग 33 भाषाओं में लिख रहे हैं। हिमालयी परम्पराएं सदियों की समझ है। समझ थी। लेकिन आज स्थिति उलट है। हिमालय का अशांत करने पर तुले हुए हैं हम। हमारी मूर्खता है कि हम अपने पुरखों की समझ को नहीं समझ रहे। हम अब हिमालय की यात्रा सर्दियों में भी करेंगे। आल वैदर रोड इसका उदाहरण है। हिमालय को आराम नहीं देंगे। हम कब समझेंगे कि हिमालयी क्षेत्र की संपदा को फलने-फूलने का समय दिया जाता रहा है। अब हम वहां बारह महीने जाएंगे तो कैसे हमारी धरोहरें बचेंगी? गणेश देबी जी ने श्रोताओं को लगातार सबोधित किया और श्रोता भी थे एकाग्र होकर इस सत्र को सुनते रहे।
पहले दिन का दूसरा सत्र एक घण्टे का रहा। रोहित जोशी के संयोजन में इस सत्र के लिए दो वक्ता मंच पर आसीन थे। प्रियदर्शन और मनीषा पाण्डे। ‘सोशल मीडिया के दौर में‘ प्रियदर्शन ने बहुआयामी अनुभव श्रोताओं के समक्ष रखे। यह सत्र सवाल जवाब के तौर भी काफी कारगर रहा। प्रियदर्शन जी ने कहा कि समय के साथ-साथ हमारे संवाद भी बदले हैं। हम सब जानते हैं कि हमारी वाचिक परंपरा सदियों तक जिन्दा रही। वह सुनने के कौशल को बनाए हुए थी। सुनकर जानकारियों को हस्तांतरित किया जाता था। तब वाचिक परंपरा का अपना महत्व था। जैसे ही छापाखाना आया। सब बदल गया। जो अनुभव सुने जाते थे। सुनाए जाते थे। वे छापेखाने के बाद किताबों में आ गए। लिखित शब्दों की दुनिया अनोखा अनुभव रहा होगा। अब इंटरनेट आ गया। इंटरनेट ने हाथ से लिखने की निर्भरता पर प्रभाव डाला है। इंटरनेट के जितने माध्यम हैं। इसके दोनों परिणाम हमारे सामने हैं। सोशल मीडिया ने रिश्तों को डिजीटल ढंग से देखना शुरू कर दिया है। बीते समय में लैंगिक विषमता चरम पर थी। फेसबुक ने इसे तोड़ा है।
इसी सत्र में एक सवाल के जवाब में मनीषा जी ने कहा कि आज फेसबुक,व्हाट्स एप और टिवट्र के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आज नेतागण भी इसके महत्व को समझने लगे हैं। यह तकनीक बेहद कारगर भी सिद्ध हुई है। आज महिलाओं के पास अपनी अभिव्यक्ति का सरल,सहज और सुगम साधन है। वह अपनी टाइमलाईन की मालिक हैं। पहले संपादक हुआ करते थे। उनकी अपनी अहमियत थी। आज हर कोई अपनी वॉल का राजा है। जिस विचार में ताकत होगी वह पहुंचेगा। आगे जाएगा। गूगल में तथ्य ही तथ्य हैं। भरे पड़े हैं। सूचना की तेजी इस कदर बड़ी है कि एक क्लिक पर सारी दुनिया की जानकारी आपके सामने हैं।
एक सवाल के जवाब में प्रियदर्शन ने कहा कि हम पत्रकारिता के उस दौर को भी देख चुके हैं जब देश-विदेश की सूचनाएं दूर बैठे संवाददाता के फोन पर फैक्स पर तार पर निर्भर थी। फिर मेल आया। आज तो पूरी दुनिया में जो कुछ घट रहा है लाइव आपके सामने आपके मोबाइल पर है। सूचना आई और गई। आया-गया। आया-गया भी हो रहा है। सुबह खोलिए कोई चीज़ तेजी से ट्रैण्ड कर रही होती है। देखते ही देखते हजारों लाखों में ट्रैण्ड कर रही होती है। कुछ ही घण्टों में कोई दूसरी घटना लाखों में ट्रैण्ड कर रही होती है। सूचनाओं की और समाचारों की अब लम्बी उग्र नहीं है। इस तेजी के बुरे परिणाम भी है। प्रियदर्शन ने कहा कि जब आप जंगल में सैर कर रहे होते हैं तब स्थिति दूसरी होती है। लेकिन जब आप उसी जंगल में अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रहे होते हैं तब स्थिति दूसरी होती है। उन्होंने कहा कि स्मृति हमारे अनुभव से आती है। तेजी से बढती घटनाओं और एक के बाद एक सूचनाओं ने हमारी स्मृति और अनुभवों को पीछे धकेल दिया है। जब अनुभव ही नहीं हो रहा है तो स्मृति बनेगी कैसे? आज हमारा मिज़ाज सैलानी हो गया है। आज के सैलानी भी क्या गजब करते हैं। नैनीताल और मसूरी पहुंचते ही झट से क्लिक करते हैं। सेल्फी लेते हैं और फेसबुक में शेयर करते हैं। हो गया। अनुभव किया नहीं। यात्रा को शहर के मिज़ाज को महसूस किया नही ंतो स्मृति में रहेगा क्या! हमारी रचनात्मकता भाप की तरह उड़ रही है। खतरे पर बात करें तो पिछले दो-चार सालों के चुनाव देख लें। सूचना तकनीक के नए इस्तेमालों का जमकर दुरुपयोग हुआ। यकीन करना मुश्किल है कि सच से अधिक झूठ ज्यादा चला। ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं होता रहा होगा। लेकिन यहां झूठ इतनी तेजी से फैलता है कि पूछो मत।
एक सवाल के जवाब में मनीषा जी ने कहा कि माध्यम बदला है। ये ट्रैण्ड का दौर है। हम जो सोचते हैं कि इसे ट्रैण्ड नहीं करना चाहिए वहीं टै्रण्ड करने लगता है। इंटरनेट कौड़ियों का मीडिया बन गया है। मानीवय दखल कम हुआ है तो पसंद और नापसंद को आकलित नहीं कर सकते। यह सत्र मीडिया के स्वभाव और उसके बनते-बिगड़ते स्वरूप को समझने के लिए कारगर रहा। इस सत्र में श्रोताओं के पास कई सवाल थे लेकिन समयाभाव के चलते इस सत्र को भी समय के खाके में समेटना पड़ा।
भोजनोपरांत तीसरा सत्र दो घण्टे का रहा। ‘हिन्दी साहित्य में गाँव’ के इस सत्र का संयोजन युवा लेखक खेमकरण सोमन ने किया। पंकज बिष्ट, शिवमूर्ति, और कुशल कोठियाल ने समाज,साहित्य और वर्तमान परिदृश्य के साथ बीते कई दशकों के गांवों के हालात भी श्रोताओं के समक्ष रख दिए। यह सत्र भी बेहद शानदार रहा। युवा कथाकार दिनेश कर्नाटक ने दर्जनों कहानियों का उल्लेख उनके रचनाकारों के साथ गांव के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। हिन्दी साहित्य में गांव और गांव की खूबी,संस्कृति और गांव के लोकजीवन के कहानियों के बरअक्स उन्होंने प्रभावी ढंग से श्रोताओं के समझ रखा।
इस सत्र में बटरोही जी ने भी उत्तराखण्ड के साहित्यकारों की रचनाओं में गांव किस तरह प्रतिबिम्बित होता है, सधे हुए अंदाज में खोलकर रख दिया। बटरोही जी ने सवाल किया कि आज जब गांव ही नहीं रहेंगे तो साहित्य में गांव कैसे आएगा? उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य विशाल है। हम कहानियों का चुनाव कर गांव को अच्छी तरह विश्लेषित नहीं कर सकते। चुनाव के आधार पर विश्लेषण नहीं हो सकता। उन्होंने उत्तराखण्ड के उन लेखकों का उल्लेख किया जिनके साहित्य में और जिनके लेखन में गांव आया। गोविन्द वल्लभ पन्त, रमा प्रसाद घिल्डियाल, इलाचन्द जोशी, का उल्लेख उन्होंने किया लेकिन उन्होंने पहला ग्रामीण जनजीवन साहित्य में लाने वाले शैलेश मटियानी जी को श्रेय दिया। उन्होंने विद्यासागर नौटियाल, जगदीश चन्द्र पाण्डेय,राधाकृष्ण कुकरेती का उल्लेख ग्रामीण जीवन के श्रेष्ठ उत्तराखण्ड के कहानीकारों में शामिल किया। उन्होंने हिमांशु पाण्डे और शेखर जोशी को शहरी जीवन के कहानीकार बताया। पंकज बिष्ट, क्षितिज शर्मा, गोपाल उपाध्याय, नवीन कुमार नैथानी, मोहन थपलियाल, मुकेश नौटियाल,अनिल कार्की की रचनाधर्मिता को गहरे से उठाया।
पहले दिन के अंतिम सत्र भी बेमिसाल रहा। रंगू सरोया से संवाद का संयोजन उमेश ध्यानी जी ने किया। लड़कियों का अपहरण और उन्हें रेड लाईट एरिया में पहुंचाने वाले गिरोहर के साथ उनका संघर्ष दिल को दहलाने वाला था। अपने अनुभव बताते हुए रंगू बोलीं कि वे और उनकी टीम अब तक 400 लड़कियों को रेड लाईट एरिया से हटा चुकी है। वे बोलीं कि ह्यूमन टै्रफिक में कई समस्याएं हैं। लड़कियां इसमें कई तरह से फंस जाती हैं। गरीबी, लाचारी, भूखमरी और अच्छे रोजगार के झांसे में आने से भी यह कारोबार फल-फूल रहा है। समाज की नियति भी लड़कियों को यहां से बाहर निकालने में दिक्कते पैदा करती हैं। कंचनजंघा उद्धार केन्द्र के हवाले से रंगू सरोया ने एक घण्टे के अपने संबोधन में आंखों देखे अनुभव सुनाए। वे बोलीं कि पश्चिम बंगाल मानव तस्करी का सबसे बड़ा बाज़ार है। उन्होंने कहा कि समाज स्वस्थ कैसे बनेगा? यह हम सभी को सोचना होगा।
पहले दिन विद्यासागर नौटियाल की कहानी पर आधारित एकल नाट्य मंचन फट जा पंचधार ने मन मोह लिया। कुसुम पंत का अभिनय शानदार रहा। संभव मंच परिवार की यह प्रस्तुति और अभिषेक मैन्दोला के कुशल निर्देशन यादगार बन पड़ा। देर शाम अमित सागर की टीम की सांस्कृतिक प्रस्तुति भी यादगार रही। इस सत्र का संयोजन नंद किशोर हटवाल ने किया। 
दूसरा दिन:
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दून लिटरेचर फेस्टिवल के दूसरे दिन का पहला सत्र भी यादगार बन पड़ा। महात्मा गांधी और हमारा समय सत्र का संयोजन विजू नेगी ने किया। इस सत्र में वक्ता के तौर पर राधा भट्ट, नचिकेता और अनिल जोशी रहे।

दूसरे दिन का दूसरा सत्र कश्मीर और कश्मीरियत बेहद प्रभावी रहा। कश्मीर से आए निद़ा नवाज़ ने कश्मीर और कश्मीर के लोगों के बहाने वहां के हालातों का असरदार चित्रण अपने व्याख्यान में किया।
निदा नवाज़ जी ने कहा कि कश्मीर समस्या को वहां के हालातों,राजनीति और नेताओं ने अति संवेदनशील बना दिया है। यदि हम 13वी सदी में कशमीर का अध्ययन करें तो हालात ऐसे न थे। उन्होंने कहा कि धारा 370 की वजह से पाकिस्तान समर्थकों को कश्मीर के हालातों को और दुश्वार बनाने का मौका मिला। अलगाववादियों को मौका मिला। यह सब 370 के गलत प्रचार से हुआ। आज तक एक भी चुनाव कशमीर का नहीं सम्पन्न हुआ है जो सही तरीके से किया गया हो। धर्म और राजनीति की दो बन्दूकें हैं जिनके बीच कशमीर तड़प रहा है।
धर्म और राजनीति की दुकानों के बीच आम आदमी पिसा जा रहा है। कश्मीरियत गंगा-जमुनी की संस्कृति रही है और है भी। निदा जी ने कहा कि जो हालाता देश के हैं कम से कम कशमीर इससे बेहतर है। उन्होंने बार-बार कहा कि वहां साम्प्रदायिकता का माहौल नहीं है। वहां आतकवादियों और सेना के बीच संघर्ष जरूर है। आज भी वहां 5500 कशमीरी हिंदु रहते हैं। बीते दस बरस में एक भी हिन्दू पीटा तक नहीं गया है।
आज भी लाखों लोग हैं जो पूरे भारत से हैं और कशमीर में रह रहे हैं। हर घर में तीन से चार लोग कशमीर से बाहर के हैं जो आज वहां रह रहे हैं। वहां कोई नहीं पूछता किसी से कि आपका धर्म क्या है? आप कहां के रहने वाले हैं? वहां राजनीति है। आतंकवाद है पर सांप्रदायिकता नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि 2010 तक कशमीर में 47000 लोग मारे गए हैं। इतनी बड़ी संख्या में मात्र 219 हैं जो हिन्दू पण्डित थे, जो मारे गए। कश्मीर सियाशत और धर्म की भट्टी में जल जरूर रहा है। निदा ने साफ कहा कि कोई भी नहीं चाहता कि कशमीर समस्या हल हो। न दिल्ली न इस्लामाबाद। सबके अपने अपने स्वार्थ हैं।
चीन अधिकृत कशमीर, भारत अधिकृत कशमीर और पाकिस्तान अधिकृत कशमीर। कशमीरी तीना भागो में बंटा हुआ है। दूसरी बात पूरी दुनिया में कशमीरी जहां भी रह रहे हैं। जहां भी पढ़ रहे हैं उन पर हमले हो रहे हैं। यह किससे छिपा है। क्यों? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। कट्टरवाद के सामने कोई तर्क नहीं चलता। यह बात सही है कि वहां सम्पत्ति बहुतों ने अर्जित की है। वह सब अनाधिकृत तौर पर अर्जित की है। अब तक कशमीर में 60000 लोग मारे जा चुके हैं। 30000 वहां मिलिटेंट हैं। धर्म के नाम को यूज़ किया जाता रहा है।
सड़क से लेकर संसद तक ड्रामेबाजी हो रही है। कश्मीर में लोग मुस्कराना भूल चुके हैं। वहां के लोगों के चेहरे पत्थर के हो गए हैं। भावना शून्य चेहरे लिए घूमते हैं। 90 फीसदी महिलाएं तनावग्रस्त हैं। 70 फीसदी पुरुष तनावग्रस्त है। अपराध कश्मीर में सबसे कम है। आज भी कश्मीरियों में बहुत कुछ अच्छाईयां बची हुई हैं। वह मज़हबी नहीं है। साम्प्रदायिक नहीं है। कौन लोगों को मिलिटेंट बनाता है, यह सब जानते हैं।
तीसरा सत्र सिनेमा और समाज पर रहा। अविनाश दास और विभावरी ने इस सत्र में अपने विचार व्यक्त किये। इस सत्र का संयोजन भास्कर उप्रेती ने किया। तीसरा सत्र सिनेमा और समाज पर रहा। अविनाश दास और विभावरी ने इस सत्र में अपने विचार व्यक्त किये। इस सत्र का संयोजन भास्कर उप्रेती ने किया। भास्कर उप्रेती जी ने सिनेमा के कल और आज पर चर्चा करते हुए विमर्श के संकेत दिए। सिनेमा को किस तरह से देखा जाए? उन्होंने जोड़ा कि क्या मात्र मनोरंजन और पूंजी के तौर पर ही सिनेमा को देखने की जरूरत है या इसके कुछ और भी मायने हैं? उन्होंने नायक-नायिका के तौर पर और समाज के सन्दर्भ के तौर पर सिनेमा के इतिहास और वर्तमान पहलूओं को रेखांकित किया। विभावरी जी ने कहा कि सिनेमा मात्र सिनेमा नहीं है वह कला है। ऐसी कला है जिसके मायने समाज से सीधे जुड़े हैं। उन्होंने कहा कि हर कला को समाज से जुड़ना भी चाहिए। सिनेमा पर भी समाज की जिम्मेदारी है। आज तो यह जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है जब अभिव्यक्ति पर ही सवाल उठने लगे हैं। यह कहना गलत न होगा कि सिनेमा मनोरंजन का जरिया है। यहां बेशुमार पूंजी भी लगती है यह भी सही है। एक सौ बीस साल के छोटे से इतिहास में सिनेमा ने बहुत खास काम किए हैं। विभावरी जी ने कहा कि जब-जब सिनेमा ने समाज को साथ लेकर फिल्में की हैं वे फिल्में बेहतर सिनेमा के तौर पर गिनी गईं। उन्होंने मुक्तिबोध के हवाले से कहा कि समाज की चेतना को विकसित करने का काम भी कलाओं को करना चाहिए।
अविनाश जी ने एक सवाल के जवाब में कहा कि समाज में एक साथ कई गतिविधियां संचालित होती हैं। इस गतिविधियों को कहने के लिए कई विधाएं हैं। साहित्य है, सिनेमा है और ललित कलाएं हैं। हां हमें अपने इलाके की गतिविधियों की कहानी कहनी चाहिए। सिनेमा कला है पर आज उससे अधिक वह बाजार हो गया है। बाजार में तकनीक है। उत्पादन है। यह सिनेमा जो एक समाज का रूप ले चुका है वह आज पैसे पर टिका हुआ है। वैसे हर सिनेमा का अपना संघर्ष होता है। आज सिनेमा में हम अपनी कहानियां बेचते हैं। अगर बाजारवाद का पहलू देंखे तो हम फिल्म नहीं बनाते फिल्म हमें बनाती है। यह फिल्म ही तो हैं जो हमें बाजार में बनाए रखती है। समाज में बनाए रखती है। उन्होंने कहा कि फिल्मी दुनिया के लोगों को भी समझ, बेचैनी और अभिमुखीकरण बचाए और बनाए रखता है।
विवादों को आमंत्रित करना भी क्या एक एलीमेन्ट है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि बाजार के जो कायदे हैं, रणनीति है वह सिनेमा में भी काम करती है। श्रोताओं में भूपेन जी ने भी सवाल उठाया। उन्होंने सिनेमा को आधुनिक कला बताया। उन्होंने सवाल उठाया कि सिनेमा एक माध्यम है जो हमारी अस्मिताओं का उभार है। लेकिन आज सिनेमा में कब्जा किसका है? किसी एक ताकतवर का उभार खतरनाक नहीं?
श्रोताओं की ओर से प्रियदर्शन भी मंच पर आए। उन्होंने कहा कि कोई भी क्षेत्र है। वहां सियाशी फिज़ा आती है। फिल्में अछूती कैसे रह सकती हैं। विभावरी जी ने कहा कि प्रयोगधर्मिता वहां पहले भी थी और आज भी है। तीस के दशक की फिल्मों में और आज की फिल्मों में कई प्रयोग हमारे सामने हैं। आज का सिनेमा बदला है।
अविनाश जी ने कहा कि आज सिनेमा बदला है। लेकिन यह भी सच है कि बिना पूंजी के सिनेमा नहीं चलेगा। प्रतिरोध का सिनेमा आज भी है। कल भी था। लेकिन आज बहुत अच्छी फिल्में सामूहिकता के प्रयास से बन रही हैं। उन्होंने तुरुप फिल्म का उदाहरण दिया। सिनेमा के सिद्धहस्तों ने मिलकर जो जिस क्षेत्र का है उस क्षेत्र का योगदान कर सामूहिकता की मिसाल पेश की। मराठी की विलेज रोक स्टार का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि आज साहित्य से जितनी चेतना जगाते हैं। सिनेमा एक फिल्म से कई गुना चेतना जगाने का काम करता है। यह बात स्वीकार करनी होगी। सिनेमा ने हमारे रंग-ढंग जीवन शैली को नहीं बदला? सिनेमा एक तरह से विशालतम साहित्य है। सिनेमा औजार है। अब इन औजारों का प्रयोग कैसे होता है, यह ओर बात है।
एक सवाल के जवाब में वक्ता इस बात पर सहमत थे कि अभिव्यक्ति की आजादी सभी को है। आलोचना की आजादी भी है। अच्छी बुरी दोनों तरह की फिल्में दर्शकों के विवेक पर छोड़ी जाती है। ऐसा नहीं है कि सार्थक फिल्मों की चर्चा नहीं होती। क्लासिक फिल्में ही चर्चाओं में रहती हैं। ये ओर बात है कि कौन सी फिल्म कितनी चली और कितनी नहीं। फिल्म कैसी बननी चाहिए ये निर्माताओं पर छोड़ना ही होगा। लोगों पर भरोसा करना होगा। क्या इंटरनेट पर पोर्न फिल्में नहीं हैं। सेंसर करने की कितनी कोशिशें कीं। क्या हुआ?
फिल्मों पर चर्चा करते हुए प्रियदर्शन जी ने कहा कि आज समाज में स्वीकारोक्ति बढ़ी है। हिंस बड़े पैमाने पर बड़ी हैं। फिल्मों में पहले ऐसा नहीं था। कई चीज़ें परदे पर दूसरी तरह से बढ़ी हैं। हिंसा और अपराध फिल्मों में सामाजिक मजबूरी की तरह दिखाई देती है। ये सिनेमा में विकृत तौर पर दिखाया जा रहा है। लेकिन यह भी सच है कि फिल्मों ने सामाजिक सद्भाव भी समाज को दिए हैं। आज की नायिका बदली है। समाज भी बदला है। हम साहित्य और समाज को अलग नहीं कर सकते। सिनेमा ने हमारे पूरे समाज को दृष्टि भी दी है। यह भी सच है। हम बहुत कुछ असल में बाद में देखते हैं सिनेमा हमें पहले दिखाता है। कुल मिलाकर सिनेमा के बहाने समाज, साहित्य और सरोकारों पर खास बातें सुनने को मिली। यह सत्र भी कई घण्टे का विमर्श चाहता था। एक घण्टे का विमर्श बेहद सार्थक रहा।
चौथा सत्र लोक साहित्य और शिक्षा पर रहा। यह सत्र और भी समय की दरकार रख रहा था। अमरेन्द्र त्रिपाठी, दिवा भटट, सुभाष कुशवाहा, मदन मोहन पाण्डे, हजारीमयुम रिपुप्यारी ने सार्थक चर्चा श्रोताओं के समक्ष की। सार्थक संयोजन प्रियंवद का रहा।
दूसरे दिन शाम का सत्र पलायन एवं चिंतन के नाम रहा। प्रदीप टमटा, रतन सिंह असवाल के बहाने सुभाष तराण ने श्रोताओं के समक्ष शानदार चिंतन प्रस्तुत किया। देर शाम कवि सम्मेलन भी आयोजित किया गया। सुमन केशरी, हुसैन हैदरी, मदन मोहन डुकलाण सहित कई प्रतिष्ठित कवियों को मंच प्रदान किया हेमन्त बिष्ट ने।
तीसरा दिन :
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देहरादून में आयोजित दूसरे दून लिटरेचर फेस्टिवल के तीसरे दिन के पहले सत्र में ‘बाल साहित्य : शैक्षिक उपक्रम‘ के वक्ताओं ने बाल साहित्य में हर विषय को शामिल करने की पुरजोर वकालत की। वक्ताओं ने असरदार ढंग से तर्कसंगत उदाहरण देते हुए जोर दिया कि आज के बाल साहित्य को पंचतंत्र श्रृंखला से मुक्त होने की आवश्यकता है।
भोपाल से आए बाल विज्ञान मासिक पत्रिका और नन्हे-मुन्नों की लोकप्रिय दुमाही पत्रिका प्लूटो के संपादक सुशील शुक्ल जी ने कहा कि शैक्षिक उपक्रम और आनंद के साथ बाल साहित्य की बात करना उन्हें सुखद लग रहा है। आनंद का फलक विस्तार लिए हुए है। आज इस आनंद पर बात करते समय यह देखना होगा कि आनन्द का स्रोत है क्या! ‘मंदिर वहीं बनेगा’ जैसे वाक्य में वहीं शब्द कईयों के लिए आनंद हो सकता है।
लम्बे समय से बाल विमर्श पर अध्ययन-मनन-चिंतन और लेखन कर रहे सुशील शुक्ल जी ने कहा मशहूर किताब ‘तोत्तो चान‘, प्रेमचन्द की कहानी ‘ईदगाह‘ और ‘अनारको के आठ दिन‘ को अपनी बातचीत का हिस्सा रखा।
सुशील शुक्ल जी ने कहा कि तोत्तोचान में लड़की के आनंद को देखें तो यह दिलचस्प है। उसके स्कूल में जो डेस्क है और घर में है, दोनों में एक अन्तर है। स्कूल का डेस्क ऊपर की ओर खुलता है। उसे उसको खोलने में बड़ा आनंद आता है। वह कक्षा में बार-बार उसे खोलती है और बंद करती है। इस खोलने और बंद करने के उसके पास कारण है। वह किताब निकालती है। कॉपी निकालती है। कभी पेंसिल के बहाने तो कभी किसी ओर चीज़ को निकालने के बहाने उसे खोलती है। अध्यापक को इसमें उसके आनंद के क्षण नहीं दिखाई देते। वहीं लड़की उस ढक्कन को हजार बार खोलती है। हज़ार बार खोलने में खुद से सीखने या कर गुजरने के अहसास हैं।
सुशील शुक्ल जी ने कहा कि वे बाल साहित्य में आनंद को अनारकों के आठ दिन से कुछ उदाहरण के साथ आपके सामने रखना चाहेंगे। उन्होंने कहा कि अनारको एक लड़की है। सुशील शुक्ल जी ने कहा कि आज अनारको का मूड खराब है। सुबह-सुबह माँ ने उसे बिस्तर से उठा दिया और कहा कि ये लोटा ले और मंदिर में ठाकुर जी को जल चढ़ा आ। अनारको ने पूछा कि ठाकुर जी को जल क्यों चढ़ाएँ? तो माँ ने कहा ठाकुर जी को जल चढ़ाने से वह खुश होते हैं। अनारको ने पूछा कि ठाकुर जी को खुश क्यो करना? तो माँ ने जरा जोर से कहा कि ये भी कोई पूछने की बात हुई? चल उठ और मंदिर जा। आगे अनारको पूछती है कि ठाकुर जी मंदिर में ही क्यों रहते हैं? तो माँ ने जवाब दिया कि वह तो कहीं भी रहते हैं। तो अनारको ने कहा कि फिर मैं लोटे का पानी बाहर भिंडी के पौधों में डाल आऊँ?
सुशील शुक्ल जी ने अनारको के आठ दिन से एक दूसरा अनुच्छेद पढ़कर सुनाया। उन्होंने बताया कि एक बार प्रधानमंत्री उस शहर में आ रहे थे। चारों ओर चर्चा थी। 
सुबह की बात है। अनारको को मालूम था, नाश्ता करते वक्त पापा का मूड जरा अच्छा रहता है। सो वह बिस्तर से उठकर पापा के पास जाकर बैठ गई। ‘‘पापा प्रधानमंत्री क्यों आ रहे हैं?’’ अनारको ने पूछा। पापा ने कहा,‘‘पुल का उदघाटन करने आ रहे हैं।’’ ’’उदघाटन क्या होता है पापा? क्या पुल प्रधानमंत्री ने बनाया है?’’
नहीं बेटी,तूने देखा तो है,पुल मजदूरों ने बनाया है , लोगो ने बनाया है।’’
‘‘तो फिर प्रधानमंत्री क्यों आ रहे है उद्घाटन करने?’’
उन्होंने कहा,‘‘वो देश के प्रधानमंत्री हैं!’’
‘‘पुल बनाने के पत्थर कहां से आते हैं पापा? प्रधानमंत्री ने क्या पुल बनाने के लिए पत्थर दिए हैं?’’
‘‘बेटी, पत्थर पहाड़ों से आते हैं, उनको लोग काट-काटकर निकालते हैं।’’
अनारको ने आगे पूछा,‘‘फिर प्रधानमंत्री क्या पैसा देते हैं? प्रधानमंत्री के पास पैसे कहां से आते है?’’ 
पापा ने कहा,‘‘पैसे लोगों से आते हैं। लोग देते हैं सरकार को पैसे।’’ अबकी बार अनारको ने ज़रा जोर से पूछा,‘‘अच्छा लोग पुल बनाते हैं, पत्थर पहाड़ से आते है और पैसे भी लोग देते हैं,फिर पुल का उदघाटन करने प्रधानमंत्री क्यों आ रहे हैं?’’

एक अनुच्छेद सुशील जी ने और पढ़कर सुनाया। अनारको स्कूल में थी। मास्साब ने पूछा-‘‘अच्छा बताओ, आज कौन आ रहे हैं अपने यहाँ? बस अनारको खड़ी हो गई और पूछा,‘‘मास्साब,प्रधानमंत्री कौन होते हैं?’’ मास्साब अकड़-रो गए,‘‘तुम प्रधानमंत्री नहीं जानती? देश के प्रधानमंत्री! अच्छा चलो बताओ,हमारे देश के प्रधानमंत्री का नाम क्या है?’’ नाम तो अनारको जानती थी लेकिन बताया नहीं। बदले में उसने पूछा,‘‘मास्साब प्रधानमंत्री को मेरा नाम पता है?’’ इस पर तो मास्साब की अकड़ ही कम हो गई और चकरा भी गए। फिर कहा,‘‘प्रधानमंत्री को और कोई काम नहीं कि तुम्हारा नाम याद करते फिरें . . .चलो बैठ जाओ।’’
सुशील शुक्ल जी ने कहा कि हमारी पाठ्य पुस्तकों में भी जो बातें हैं। किस्से हैं, कहानियां हैं उन्हें दूसरी तरह से देखा-पढ़ा जाता है। ईदगाह को देखें तो उस कहानी की जो शुरूआत है। सुबह है। दिन की शुरूआत है। क्या वह कक्षा-कक्ष में वैसे पढ़ाई जाती है? कहानी में जो संदर्भ हैं। क्या बच्चे वे समझ पाते हैं? ये चिन्ता है। सुशील जी ने कहा कि जैसे हमारे सामने ही कोई पेड़ है। इस पेड़ को देखना क्या हुआ? पेड़ को देखना, समझना तो एक सिलसिला है। किसी चीज़ को समझने का जो सिलसिला है, वह महत्वपूर्ण है। पेड़ क्या है। उसकी शाखें क्या हैं? पत्ते कैसे हैं। उस पेड़ पर कौन-कौन से पक्षी आते हैं। वह हर मौसम में कैसा रहता है। पेड़ की जड़ें और भी बहुत कुछ है। अब बच्चे पेड़ को देखने का कोई तो सिलसिला कहीं से तो शुरू करेंगे। ये समझ का सिलसिला है।
सुशील जी ने कहा कि ऐसा कोई मुद्दा क्यों छूटे? हर इश्यू पर बाल साहित्य क्यों न हो? आज भी कई ऐसे इश्यू हैं जिन्हें बाल साहित्य से दूर रखा जाता है। बाल साहित्य में कई ऐसे विषय हैं जिन पर आपको एक भी कहानी नहीं मिलेगी। बार-बार और हर बार बीस से तीस ऐसे विषय हैं जो सालों से रिपीट होते चले आ रहे हैं। हमें समझना होगा कि बच्चों के लिए हर विषय जरूरी है। बच्चों पर यकीन करना होगा। बच्चों के साथ झुकना होगा। कब तक सतही सामग्री बाल साहित्य के नाम पर परोसी जाएगी। अब जैसे मृत्यु है। मृत्यु पर बच्चों पर कोई कहानी शायद ही मिले।
सुशील जी ने कहा कि बच्चों के मन में भी गंभीर सवाल हैं। हम ऐसे मसलो पर बात क्यों नहीं करना चाहते। लड़ाई-झगड़े, उनके सपने, उनके द्वंद, उनकी मुश्किलें क्या इनकी जगह हमारे साहित्य में है? उन्होंने कहा कि बच्चे जानते हैं कि बड़े क्या चाहते हैं? बड़े क्या सोचते हैं? सुशील जी ने कहा कि हम बच्चों को पढ़ने की सामग्री में शैक्षिक किस्म ही क्यों ढूंढते हैं? कौन सी ऐसी चीज़ें हैं जिनसे आंनद नहीं मिलता।
रचनात्मकता नहीं जगती तो फिर बच्चें कैसे शामिल होंगे? उन्होंने कहा कि बांग्ला और मराठी की तरह हिंदी में बालपन की गहराई साहित्य में उतनी नहीं दिखाई देती। बच्चों के साथ बड़ों का तर्कसंगत व्यवहार बहुधा साहित्य में दिखाई नहीं देता। उन्होंने सुकुमार राय, सुनील गंगोपाध्याय का उल्लेख भी किया। जीवन से जुड़ा साहित्य हो, यह बहुत जरूरी है। हमने हर साहित्य में शिक्षा को बहुत ज़्यादा तरजीह दे रखी है। बच्चों के साथ भी ऐसा ही है। कुछ भी देखेंगे तो हम खोजने लगेंगे कि इससे बच्चा सीख क्या जाएगा। हमारा तीव्र आग्रह साहित्य में अभी भी बना हुआ है। हम साहित्य में निचोड़ देखने लगते हैं। निष्कर्ष पर हमारा जोर रहता है। शिक्षा में भी ऐसा ही है। हम उद्देश्य और शिक्षा खोजने लगते हैं। इससे न पाठ की यात्रा होती है और न ही साहित्य की।
सुशील जी ने कहा कि बाल साहित्य भी आज भी पंचतंत्र से मुक्त नहीं हो पाया। हम कब समझेंगे कि हर बात पशु-पक्षियों के माध्यम से ही क्यों कहनी है? दूसरी बात यह कि उनके माध्यम से कुछ भी कह दो। वह भी जो पशु-पक्षियों का व्यवहार ही नहीं है। आदत नहीं है। स्वभाव ही नहीं है। कुछ सीखाना है तो कहानी गढ़ दो। कोई नज़रिया देना हो तो कहानी लिख दो। दृष्टिकोण और मूल्यों के लिए कहानी कह दो। हमें समझना होगा कि हम इंसानी पात्रों की कहानी क्यों न लिखें? बच्चों के आस-पास की कहानी क्यों न लिखें।
उन्होंने कहा कि नजरिया भी बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने बहेलिये वाली कहानी का उदाहरण दिया। एक बहेलिया जो दिन भर की मशक्कत के बाद पक्षियों को जाल में पकड़ता है। एक चूहा जाल को काट देता है। हमें इस कहानी में बहेलिये का संदर्भ भी समझना होगा। पक्षियों का भी और चूहे का भी। इस लिहाज से हर बार कहानी के मायने खास हो जाएंगे।
गुल्लक के संपादक रहे और शिक्षाविदों के साथ लंबे समय तक कार्य कर चुके बाल साहित्य के अध्येता गुरबचन सिंह जी ने कहा कि आज बच्चों के संदर्भ में विषय भविष्य का नहीं आज का मसला है। बच्चों का कल तो बाद की बात है उनका आज का बचपन नष्ट हो रहा है। साहित्य और बाल साहित्य को समझने के लिए बच्चे को समझना होगा।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय बंगलुरू के भाषा,अनुवाद और प्रकाशन से जुड़े गुरबचन सिंह जी ने कहा कि आज बच्चों के समर्थन में हम सभी को आगे आना होगा। उन्होंने एक प्रसंग सुनाया कि एक बच्ची के लिए छतरी का बार-बार खुलना रोचक अनुभव से कम नहीं है। मारिया मान्टेसरी का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि बच्ची को बार-बार छतरी बंद कर के दी जा रही है और वह बच्ची बार-बार उस छतरी को खोल रही है। वह सौ बार खोलने के बाद भी संतुष्ट नहीं है। वह छतरी के खोले जाने और बंद करने की प्रक्रिया को खुद से समझना चाहती है। बच्चे किसी बात को, किसी प्रक्रिया को जानने-समझने के लिए भले ही हजार बार क्यों न प्रयास करे, वो करेंगे। समय कितना भी लगे। सीखने और समझने के लिए यह जरूरी भी तो है। रचनात्मकता और उदार आनंद बचपन की कुंजी है। खुशी तो डूबने जैसी है। यह जरूरी नहीं कि वह चेहरे पर दिखाई ही दे।
गुरबचन जी ने भी ईदगाह और तोत्तोचान का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि पाठ्यपुस्तकों के अपने ढांचे होते हैं। मूल ईदगाह कहानी से इतर पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाने वाली ईदगाह गहरे संदर्भों की अनदेखी है। उन्होंने कहा कि साहित्य में वो भी बच्चों के साथ वर्जनाओं के मायने क्या हैं? क्यों हम बच्चों को यथार्थ से दूर ले जाना चाहते हैं? बच्चे के दृष्टिकोण को और उनकी रचनात्मकता को समझने की जरूरत है। एक स्कूल में गुलजार जी के गीत का उल्लेख उद्घोषिका कर रही थीं-‘‘जंगल-जंगल बात चली है पता चला है। टणटणटण टणा टणा टणा टणा है.....।
ये देखिए। मतलब कि हम बड़ों में वयस्कता के मसले इस कदर भरे पड़े हैं कि बच्चों की सृजनशीलता को देख ही नहीं पा रहे हैं। आदर्श की अतिरंजनाएं इतनी भरी पड़ी हैं कि बच्चे को अबोध मानने की परिपाटी छूटे नहीं छूट रही है। हम विवरण और कहानी का अंतर नहीं समझ पा रहे हैं। सूचनात्मक साहित्य भी जरूरी है पर उसमें आंनद की अनुभूति की बहुत अधिक संभावना नहीं रहती।
गुरबचन जी ने कहा कि बाल साहित्य का इतिहास देखें तो आजादी के बाद चार दशकों तक भी बाल साहित्य उपेक्षित रहा। 1986 की नई शिक्षा नीति और उसके बाद कहीं जाकर यह आदेशों में शामिल हुआ कि बच्चों तक बाल साहित्य पहुंचे। प्राइमरी, अपर प्राइमरी, माध्यमिक तक अलग-अलग तरह के पुस्तकालयों की बात हुई। लेकिन आज तक भी शिक्षा में बाल साहित्य एक पूरक सामग्री के तौर पर ही है। ऐसे कैसे बाल साहित्य के महत्व को जान-समझ सकेंगे। बाल साहित्य ही शिक्षा के काम को आगे बढ़ाता है। यदि बाल साहित्य को बढ़ावा मिले तो ही बच्चों का चहुर्मुखी विकास हो सकता है। बच्चे का भावनात्मक विकास बाल साहित्य से ही संभव है।
उन्होंने कहा कि हमें समझना होगा कि आज के बच्चे आक्रामक क्यों हो रहे हैं। वे संवेदनहीन क्यों हो रहे हैं? कहीं न कहीं उन्हें भावनात्मक और उनकी दुनिया का साहित्य नहीं मिल रहा। गंभीर साहित्य को पढने का आग्रह शून्य ही है। यही कारण है कि दुःख,मृत्यु अवसाद जैसे विषय बाल साहित्य में नहीं है। बच्चों के शुरूआती जीवन में मिलने वाला साहित्य बच्चों की समझ बढ़ाता है। हमें समझना होगा कि हम बच्चों को बहुसंस्कृति, बहुआयामी और विविधता से भरी संस्कृति,जीवन और प्रकृति से परिचित कराएं।
बाल साहित्य ऐसा संसार है जिसमें कुछ भी शामिल किया जा सकता है। शिक्षा इसमें बहुत बड़ा काम कर सकती है। बाल साहित्य बच्चों को तर्कशील समाज का हिस्सा बना सकता है। शिक्षकों से बात करते हैं तो एक अकेली पाठ्यपुस्तक से भला वे भी कितना कुछ कर सकते हैं?
ऐसे में बाल साहित्य आशा जगाता है। यदि वह वंचितों तक पहुंचे। पढ़ना वह भी अक्षरों और वणों, शब्दों तक सीमित रहे तो वह कोरा पढ़ना ही माना जाएगा। पढ़ने का अर्थ और अर्थ के साथ आनंद का भाव जगे तो बात बने। हमें समझना होगा कि बच्चे भाविष्य के गंभीर पाठक क्यों नहीं बन पाते। बाल साहित्य का उपयोग समझ और दक्षता बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।
गुरबचन सिंह जी ने कहा कि इस दिशा में यशपाल समिति की सिफारिशें बेहद खास हैं। शिक्षा जगत में उन पर ध्यान दिया जाता तो बेहतर होता। उन्होंने जोर देकर कहा कि बाल साहित्य बचपन को पोषित करता है। ज्ञान के स्रोत भी साहित्य ही खोलता है। यह पाठ्यपुस्तकों में सीमित होता है।
उन्होंने कहा कि पाठों के तौर पर जो साहित्य आया भी है वह गतिविधियों के कर्मकाण्ड में उलझकर रह गया है। यदि पाठों में आए साहित्य की ताकत को समझा जाए और कक्षा-कक्ष में उनका समझ के साथ उपयोग किया जाए तो यह अपनी ताकत का अहसास भी कराता है।
गुरबचन सिंह जी ने साहित्य के लेखकीय, सामाजिक और बच्चे के दृष्टिकोण पर भी चर्चा की। अंत में कुछ श्रोताओं की ओर से कुछ सवाल भी पूछे गए। समय के अभाव में बारह बजे इस सत्र का समापन किया गया। यदि सत्र दस बजे आरंभ होता तो विमर्श की संभावनाएं और भी बढ़ जातीं। एक घण्टा दस मिनट चले इस सत्र में बाल साहित्य की मुश्किलें,संभावनाएं और शिक्षा से इसके सरोकारों को रेखांकित किया जाना सुखद रहा।
सत्र के संयोजक अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन से जुड़े शिक्षा, भाषा और साहित्य के अध्येता अशोक मिश्र रहे। उन्होंने डेढ़ घण्टे संचालित इस सत्र की शुरूआत ख़ास शेरों से की। जिनका सार यही था कि वे घर कहां अच्छे लगते हैं, जहां बच्चे नहीं होते। यह भी कि बच्चों के बारे में चिंता करने के लिए भी विमर्श को स्थान मिले तो अशोक मिश्र जी ने यह भी कहा कि हम अपने भविष्य के बारे में चिंता करने के लिए यहां जुटे हैं। उन्होंने बाल साहित्य की परिपाटी पर भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि ऐसे मौके प्रायः कम ही होते हैं जब बच्चों के बारे में बात होती है।
देहरादून में आयोजित दूसरे दून लिटरेचर फेस्टिवल के तीसरे दिन के दूसरे सत्र में ‘शिक्षा और समाज‘ के वक्ताओं ने शिक्षा के सरोकार और समाज की प्रतिक्रिया की असरदार ढंग से समीक्षा की। वक्ताओं ने माना कि शिक्षा और समाज दोनों को बदलते हैं। आज भी सहभागी शिक्षा, सहज शिक्षा, सुलभ शिक्षा और सार्थक शिक्षा की आवश्यकता है। वक्ताओं ने कहा कि देखने दिखाने के दौर पर आज स्कूल का होना दिखना चाहिए। स्कूल का दिखाई देना नहीं स्कूल का होना जरूरी है।
अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन उत्तराखण्ड के राज्य प्रमुख कैलाश काण्डपाल जी ने कहा कि शिक्षा और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों एक दूसरे को बदलते हैं। इन दोनों का आपस में घना रिश्ता है। हम सब जानते हैं कि व्यक्तियों का समूह जो आपसी संवाद करते हैं और कुछ सामान्य उद्देश्य के लिए एक-दूसरे के साथ रहते हैं। वह उद्देश्य उन्हें बांधे रखता है।
कैलाश जी ने कहा कि हम बात करते रहेंगे तो कई सवाल उठेंगे। कई परतें हैं जिन्हें खोलना होगा। मानव समाज को देखें तो हम खुद को कहां रखें। मैं अपनी ही बात करता हूं तो मैं समाज में मानव के तौर पर हूं। फिर मैं भारतीय हूँ। फिर और देखें तो मैं किस हिस्से का हिस्सा हूँ? मेरे अपने मायने क्या हैं? समाज,मनुष्य,भारतीयता, राज्य, जिला, धर्म, जाति फिर स्तर भी गिना जाता है। यही नहीं और घनी तथा गहरी परतें हैं। समाज में हम अपनी विरासत का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। विस्तार में जाएंगे तो फिर हमारे मूल्य हैं। मानव विकास की यात्रा मूल्यों तक पहुंची। समय लगा। शिक्षा को देखें तो वह मूल्यों की बात करती है। मूल्यों में बदलाव समाज में होते रहते हैं।
कैलाश काण्डपाल जी ने कहा कि समाज की विकास यात्रा में फिर संवैधानिक मूल्य हैं। इन्हें भी गहराई से समझना होगा। हमें समझना होगा कि हिंसा कैसे काम करती है। शक्ति है तो उसका दुरुपयोग दमन के लिए किया जाता है। शिक्षा हमारी समझ बढ़ाती है। यह शिक्षा और समाज का रिश्ता ऐसा है कि इसके कई आयाम हैं जिन पर विस्तार से बात की जा सकती है।
ख्यातिलब्ध संस्था सिद्ध के प्रमुख और सामाजिक एक्टीविस्ट पवन गुप्ता ने शिक्षा और समाज के रिश्ते को गांव,शहर,राज्य,देश और राष्ट्रों की संस्कृति के साथ जोड़ते हुए अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जो असहज है। बोधशाला के अनुभवों को उन्होंने विस्तार से रखा।
पवन जी ने कहा कि आज भी अधिकतर स्कूल ऐसे प्रदर्शन का हिस्सा हैं जहां उनका जोर दिखना दिखाने पर रहता है। दरअसल स्कूल में होना दिखाई देना चाहिए न कि स्कूल का दिखाई देना। उन्होंने कहा कि मैं कैसा दिखता हूँ इस पर जोर है। जबकि मैं कैसा हूँ इस पर जोर होना चाहिए। ये जो स्मार्टनेस का मसला है इस पर विचार करने की जरूरत है।
विचारक,शिक्षाविद् एवं समाजशास्त्री प्रो०आनन्द कुमार जी ने कहा कि हमारा इतिहास जो भी रहा हो पर आज हम अपनी ऐतिहासिकता से ही त्रस्त हैं। ये समय आत्मग्लानि का समय है। आज का दौर ऐसा हो गया है कि सवाल पूछना ही साहस का काम है। हम उस दौर के हैं जब हमने आपातकाल का सामना किया। आपातकाल के पाखण्ड का सामना किया। प्रतिरोध किया। आज ऐसे गीत कम हो गए हैं। उन्होंने कहा कि आलोचना करने का विवेक जाग रहा है उसकी गति धीमी जरूर है। समीक्षा की जरूरत है। बड़े मामूली लोग बड़े सवाल करें तो जागरूक समाज माना जाए। आज ऐसा समय है कि कोई भी सवाल उठाते हैं तो दक्षिणपंथी सोच को हवा मिलती है। सतत् आंदोलन की प्रक्रिया हो।
प्रो० आनन्द कुमार जी ने कहा कि शिक्षा और समाज के बरअक्स देखें तो हम जितना जीते हैं उतना ही हारे हैं। बहुत जल्दी ही कस्तूरी रंगन कमेटी आने वाली है। उन्होंने कहा कि आज अंग्रेजी का आकर्षण बाजार का आकर्षण है। कृष्णमूर्ति जी के स्कूलों को समझने और जानने की जरूरत है। शिक्षा के मायने को हमें विद्यार्थी, शिक्षक और समाज के अंतरसंबंधों के ज़रिए समझना होगा।
प्रो०आनन्द कुमार जी ने कहा कि आज तो पेड़,धरती,मिट्टी और हवा ही लुटेरों के कब्जे में हैं। शिक्षा भी इस भयावह स्थिति से मुक्त नहीं है। सब जानते हैं कि हम मनुष्यों ने गंगा को कितने हद तक अपवित्र कर दिया है। फिर भी हम कहते हैं कि गंगा पवित्र है! यह कैसा समय है? हमें तीन स्थितियों को समझना होगा। समता बनाम सम्पन्नता, लोकतंत्र बनाम शक्तितंत्र और दिखावट बनाम बनावट। हम कब समझेंगे कि शिक्षा में बजट का छठा हिस्सा खर्च करो। हम सरकारों के खिलाफ इस नारे के साथ संघर्ष करते रहे हैं।
प्रो०आनन्द कुमार जी ने कहा कि आज स्थिति और भयावह हो गई है। बजट में मौजूदा सरकार मात्र 3.4 हिस्सा खर्च कर रही है। कैसे शिक्षा का सार्वत्रीकरण होगा? हम आज भी ऐसी मानकिसता में जी रहे हैं जहां शिक्षा को समाज की बेटी माना जाता है। वह तो समाज की बंधिनी है। बिना समाज के पूछे शिक्षा में बदलाव कैसे होगा? और समाज? समाज किस ओर जा रहा है? हमें शिक्षा के तीनों पक्षों को समझना होगा। इस पर सोचना होगा। शिक्षा का अर्थशास्त्र। शिक्षा की राजनीति। शिक्षा का समाज शास्त्र।
प्रो०आनन्द कुमार जी ने कहा कि हम सब जानते हैं कि शिक्षा का बाजारीकरण ने हमारे मन-मस्तिष्क में कैसी शिक्षा का ढांचा ला खड़ा कर दिया है। क्या स्त्रियां, क्या दलित और क्या अल्पसंख्यक। ब्राहम्ण-ठाकुर में बंटें है पर हम सब जानते हैं कि हम अपने बच्चों को अभिमन्यु बना रहे हैं। पता है कि इस तंत्र में वो मारा जाएगा। पर झोंक रहे हैं। यह जुड़ाव का समय नहीं बिखराव का समय है। बढ़ती भूख बिगड़ती भूख बन गई है। आकर्षण भी है तो असंतोष भी हैं प्रबल प्रतिरोध नहीं है। राजसत्ता को बाजार सत्ता संभाल रही है।
प्रो० आनन्द कुमार ने कहा कि जब तक हम समाज को सहभागी शिक्षा नहीं देंगे। सहज शिक्षा नहीं देंगे। सुलभ शिक्षा नहीं देंगे। सार्थक शिक्षा नहीं देंगे। समाज में ऐसे संघर्ष और उलझाव दिखाई देता रहेगा। हमें अपनी स्थिति से बाहर आना होगा। असहमति और सवाल उठाने के लायक खुद को बनाना ही होगा।
सत्र का संयोजन अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन से जुड़े नेतृत्वशील व्यक्तित्व जगमोहन कठैत जी ने किया। शिक्षा, सामाजिक सरोकारों के अध्येता और भाषा-साहित्य के जानकार जगमोहन कठैत जी ने सत्र को पांच खास सवालों के आस-पास रखा। दो घण्टे चले इस शानदार सत्र ने श्रोताओं को बांध कर रखने में सफलता हासिल की।
श्री जगमोहन ने सबसे पहले वक्ताओं का परिचय दिया। उन्होंने वक्ताओं से मुख़ातिब होते हुए जानना चाहा कि शिक्षा और समाज के रिश्ते को कैसे देखा जाए? उन्होंने जोड़ा कि वांछित समाज तक शिक्षा कैसे पहुंचाई जाए? आज भी गांव और अपनी जड़ों से निकलना और शहरों में काम करना सफलना का प्रतीक है। जो छात्र अपनी जड़ों में हैं। अच्छा कर रहे हैं उनके साथ समाज का रवैया कि ये कहीं निकल नहीं पाया! यही रह गया। इसे कैसे देखा जाए? श्री जगमोहन ने कहा कि शिक्षा के मकसद को कैसे देखें शिक्षा जोड़ने के लिए है या अपने क्षेत्र से निकलने के लिए है?
श्री जगमोहन ने अपने शिक्षा विमर्श को आगे बढ़ाते हुए जानना चाहा कि आज भी स्कूलों की स्थिति ऐसी क्यों है कि शिक्षक पूरे दिन भर बोलता रहता है और छात्र पूरे दिन पर सुनते रहते हैं। शिक्षा का ऐसा ढांचा किसने तय किया? उन्होंने कहा कि जिस विकास और प्रगति की बात हम कर रहे हैं उसे इस तरह कैसे देखें कि सुदूर गांव तक सड़क चली आई है। लेकिन वह गांव से शहर सब कुछ ले जा रही है। दूध,तरकारी,फल और बहुत कुछ और गांव में फास्ट फूड ला रही है। ये कैसी समझ है? कैसा विकास है? हम इस पूरे परिदृश्य में शिक्षा और समाज के रिश्ते को कैसे टटोलें?
तीसरे दिवस के तीसरे सत्र में जब महिलाएं लिखती हैं सत्र का संयोजन विद्या सिंह ने किया। इस सत्र में बेबी हाल्दार और सुमन केसरी ने अपने विचार व्यक्त किए।
पुस्तक विमोचन के बहाने फागूदास की डायरी पर भी बात हुई। संपादन लेखक प्रभात उप्रेती और वरिष्ठ कथाकार गुरदीप खुराना ने अपने विचार व्यक्त किए। संयोजन मनोहर चमोली का रहा। समापन पर आयोजकों की ओर से प्रवीण भट्ट और रानू ने आगन्तुकों का आभार प्रकट किया।
समय साक्ष्य व अर्श के तत्वाधान में आयोजित तीन दिवसीय दून साहित्य समागम पुराना राजपुर स्थित ध्यान मसीही केन्द्र, देहरादून में सम्पन्न हुआ। दून लाइब्रेरी,अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, मीडिया ने इसे प्रायोजित किया। समग्र ट्रस्ट,स्पैक्स, द हिमालय ट्रस्ट और चिट्ठी पत्री का विशेष सहयोग रहा। प्रचार समिति का संयोजन सुन्दर बिष्ट, गौरी सिंह और मोहित कुमार ने किया। प्रकाशन समिति का दायित्व सुशील उपाध्याय, नन्द किशोर हटवाल, प्रमोद भारतीय और सत्यानन्द बडोनी ने संभाला। मेहमानों की मेज़बानी भारती पाण्डे, सुरेन्द्र पुण्डीर, प्रहलाद रावत, आशीष सुन्द्रियाल, दिनेश कण्डवाल, प्रतिभा कटियार और रवि जीना ने संभाली। आयोजन समिति के बी०के०जोशी, एस०फारूख, योगेश भट्ट, गीता गैरोला, प्रवीन कुमार भट्ट, मदन मोहन डुकलान, बृज मोहन शर्मा,रानू बिष्ट, वन्दना वर्मा, निवेदिता शील, शेख अमीर अहमद और प्रेम पंचोली का योगदान अविस्मरणीय रहा।
बताते चलें कि दूसरा दून लिटरेचर फेस्टिवल इसलिए भी यादगार बन पड़ा कि पहले ही दिन से बच्चों के साथ साहित्यकारों ने कई सत्रों में विमर्श किया। उनकी सुनी और उन्हें अपने अनुभव सुनाए। स्वयं आयोजन में सहभागिता के साथ जिम्मेदारी वहन करने वाले नामचीनों में जितेन ठाकुर, राकेश रयाल, इन्द्रजीत सिंह, गिरीश सुन्द्रियाल, गजेन्द्र रौतेला, वन्दना वर्मा, मनमीत, राजेश पाल, बृजमोहन, मुकेश नौटियाल, भूपेन सिंह, दिनेश, धर्मेन्द्र नेगी, अनिल कार्की, सुभाष पंत, भारती पांडे, बसंती मठपाल, प्रीतम अपच्छयाण, दिनेश कंडवाल, मनोज इष्टवाल, मधूसूदन थपलियाल, दिनेश भट्ट, शिव प्रसाद सेमवाल का सहयोग देखते ही बनता था। ०००
-मनोहर चमोली 
सम्पर्क : 9412158688